जल फल आठों शुचिसार ताकों अघ्र्य करों। तुमकों अरपों भव तार, भव तरि मोक्ष वरों।। चैबीसों श्री जिनचन्द्र आनन्द कन्द सही। पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही।।
अर्थ- हे चैबीसों भगवान्! मैं पवित्र और उत्तम जल और फलादि आठों द्रव्यों का अघ्र्य बनाकर आपके चरणों में चढ़ता हूं। आप भव्य जीवों को संसार से तारने वाले हैं। इसलिए आपको अघ्र्य चढाकर संसार समुद्र को पार करके मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करूंगा। क्योंकि आप चैबीसों भगवान आनन्द के पिण्ड हो, आनन्द के खजाने के समान हो, आपके चरणों की पूजा करने से संसार का फन्दा टूटता है और मोक्ष प्राप्त होता है।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं श्री वृषभादिवीरान्त-चतुर्विंशति तीर्थंकरेभ्योऽनघ्ज्र्ञपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गन्ध अक्षत पुष्प चरू फल, दीप धूपायन धरौं। ‘द्यानत’ करो निर्भय जगत सों, जोर कर विनती करौं।। सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलाश को। पूजों सदा चैबीस जिन, निर्वाण भूमि निवास को।।
अर्थ-जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल मैं आपके चरणों में चढ़ा रहा हूं, समर्पित कर रहा हूं कि हे जिनेन्द्र! मुझे संसार के दुखों से निर्भय (मुक्त) करो। मैं हमेशा चैबीसों तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि सम्मेदशिखर, गिरनार, चम्पापुर, कैलाश पर्वत और पावापुर की पूजा करता हूं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं श्री तुर्विंशति तीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग के वैभव को पाकर मैं, निश दिन कैसा अलमस्त रहा। चारों गतियों की ठोकर को खाने में ही अभ्यस्त रहा।। मैं हूं स्वतंत्र ज्ञाता द्रष्टा, मेरा घर से क्या नाता। कैसे अनघ्र्यपद पा जाऊँ, यह करूण भावना भाता।।
अर्थ-हे गुरूवर! संसार के सांसारिक वैभव को प्राप्त कर मैं प्रतिदिन उसमें भंवरे की तरह लीन रहा जिससे चारों गतियों की ठोकर खाता रहा और ठोकर खाने का अभ्यस्त भी हो गया हूं। परंतु मेरी (आत्मा) स्वभाव तो ज्ञाता है, द्रष्टा है, पर पदार्थों से मेरा कोई सम्बंध नहीं है। कवि कहना चाहते हैं कि मैं अपने उस स्वभाव अनघ्र्य पद को कैसे पाऊं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं श्री 108 आचार्य विद्यासागर गुरूभ्यो अनघ्र्य पद प्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
अरमानों की थाली संजोई, नयनों में जल भर लाया। सुनहिल भावों की केशर ले, शब्द पुष्प तन्दुल लाया।। तन नैवेद्य बना मन दीपक, मद यौवन की धूप बना। तव पद में अर्पित कर सिर, फल पूजन का यह अरघ बना।।
अर्थ- हे गुरूवर! मैंने अपने अरमानों को संजोकर पूजन की थाली बना लिया है। अपनी आंखों में पूजन हेतु जल भरकर लाया हूं, सुन्दर को चन्दन, शब्दों को अक्षत और पुष्प का रूप देकर अपने शरीर को नैवेद्य, मन को दीपक एवं अपनी यौवन अवस्था की धूप बना लाया हूं। आपके चरणों में अपना सिर रूपी श्रीफल अर्पित कर यह पूजन का अघ्र्य बनाकर लाया हूं।
तन-मन-धन अर्पण किया, रहा न कुछ भी शेष। अष्ट द्रव्य से पूज कर, पाऊं जिन का भेष।।
अर्थ- हे गुरूवर! मैंने अपना तन-मन-धन स कुछ समर्पित कर दिया है, मेरे पास अब कुछ भी शेष नहीं रहा। इस अष्ट द्रव्य पूजन द्वारा मैं आपके वीतरागी भेष को धारण करने के लिए कह रहा हूं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं श्री 108 आचार्य पुष्पदन्त सागर गुरूभ्यो अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं देव श्री अरिहन्त पूजूं सिद्ध पूजूं भाव सों। आचार्य श्री अवज्झाय पूजूं चाव सों। अर्हन्त भाषित बैन पूजूं द्वादशांग रचे गनी। पूजूं दिगम्बर गुरू चरन शिव हेत सब आशा हनी।। सर्वज्ञ भाषित धर्म दशविधि दयामय पूजूं सदा। जजूं भावना षोडश रतनत्रय जा बिना शिव नहिं कदा।। त्रैलोक्य के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय जजूं। पंचमेरू नन्दीश्वर जिनालय, खचर सुर पूजित भजूं।। कैलाश श्री सम्मेद श्री गिरनार गिरि पूजूं सदा। चम्पापूरी पावापुरी पुनि और तीरथ सर्वदा। चैबीस श्री जिनराज पूजूं, बीस क्षेत्र विदेह के। नामावली इक सहस वसु जपि होय पति शिवगेह के।। दोहा- जल-गन्धाक्षत-पुष्प-चुरू-दीप-धूप-फल लाय। सर्वपूज्यपद पूजहूं, बहु विधि भक्ति बढ़ाया।।
मन्त्र-ऊँ ह्नीं भावपूजा भाववंदना त्रिकालपूजा, त्रिकालवन्दना करे करावे भावना भावे श्री अरिहन्त जी, सिद्धजी, आचार्य जी, उपाध्याय जी, सर्वसाधुजी, पंचपरमेष्ठिभ्या ेनमः। प्रथमानुयोग-करणानुयोग-चरणानुयोग-द्रव्यानुयोगेभ्या ेनमः। दर्शनविशुद्धयादि-षोडशकारणेभ्या ेनमः उत्तमक्षमादि दशधर्मेंभ्या ेनमःह। सम्यग्दर्शन-सम्यग्यज्ञान-सम्यग्चारित्रेभ्या ेनमः। जल के विषैं, थल के विषैं, आकाश के विषैं, गुफा के विषैं, पहाड़ के विषैं, नगर-नगरी के विषैं, ऊध्र्वलोक-मध्यलोक-पाताललोक विषैं, विराजमान कृत्रिम-अकृ.िम-जिनचैत्यालय-जिनबिम्बेभ्या ेनमः। विदेह-क्षेत्र विद्यमान बीस तीर्थंकरेभ्या ेनमः। पांच भरत पांच ऐरावत दस क्षेत्र सम्बंधी तीस चैबीसी के सात सौ बीस जिनराजेभ्योः नमः। नन्दीश्वर द्वीप सम्बंधी बावन जिन चैत्यालयेभ्या ेनमः। पंचमेरू सम्बंधी अस्सी, जिनचैत्यालयेभ्या ेनमः। सम्मेदाशिखर, कैलाश चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, सोनागिर, मथुरा आदि सिद्धक्षेत्रेभ्या ेनमः। जैनबद्री मूडबद्री, देवगढ़, चन्द्ररी, पपौरा, हस्तिनापुर, अयोध्या, राजगृही, तारंगा, चमत्कार जी, श्री महावीर जी, पदमपुरी, तिजारा आदि अतिशयक्षेत्रेभ्या ेनमः। श्री चारऋद्धिधारी सप्तपरमर्षिभ्या ेनमः। ऊँ ह्नीं श्रीमंतं भगवन्तं कृपावन्तं श्री वृषभादि महावीर पर्यंत चतुर्विंशति तीर्थंकर-परमदेवं आद्यानां आद्ये जम्बूदीपे भरत क्षेत्रे आर्यखण्डे......नाम्नि नगरे मासानामुत्तसे मासे.....मासे शुभे..... पक्षे शुभ.......तिथौ.....वासरे मुनि-आर्यिकानां सकल कर्मक्षयार्थं (जल धारा) भाव पूजा-वन्दना-स्तव-समेतं अनघ्र्यपदप्राप्तये महाघ्र्यं, सम्पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।