अर्थ-जो मनुष्य पवित्र या अपवित्र यहां तक कि सुस्थित या दुःस्थित भी पंच नमस्कार मन्त्र का ध्यान करता है वह सब पापों से छूट जाता है।
(2) अपवित्रः पवित्रों वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचिः।।
अर्थ-जो मनुष्य पवित्र या अपवित्र सब अवस्थाओं में स्थित होकर परमात्मा का स्मरण करता है यह भीतर और बाहर सर्वत्र पवित्र हो जाता है।
(3) अपराजितमन्त्रोऽयं सर्व-विघ्न-विनाशनः। मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः।।
अर्थ- यह पंच नमस्कार मन्त्र अजेय है, सब िवघ्नों का विनाश करने वाला है और सब मंगलों में पहला मंगल है।
(4) एसो पंच णमोक्कारों सव्व-पावप्पणासणो। गंगलाणं च सव्वेसिं पढमं होई मंगलं।ं
अर्थ- य पंच नमस्कार मन्त्र सभी पापों का नाश करने वाला है और सभी मंगलों में पहना मंगल है।
(6) कर्माष्टकविनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मी-निकेतनम्। सम्यक्व्वादि-गुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम्।।
अर्थ- आठों कर्मों से रहित मुक्ति रूपी लक्ष्मी के मंदिर और सम्यक्त्वादि आठों गुणों से युक्त सिद्ध-समूह को मैं नमस्कार करता हूं।
(7) विघ्नौघः प्रलयं यान्ति शाकिनी-भूत-पन्नगाः। विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे।।
अर्थ-भगवान जिनेन्द्र की स्तुति करने पर विघ्न समूह नष्ट हो जाते हैं। शाकिनी, भूत और पन्नगों का भय नहीं रहता तथा विष निर्विष्र हो जाता है। (पुष्पांजलि क्षिपेत्)
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरूसुदीप-सुधूप-फलाध्र्यकैः। धवल-मंगल-ागन-रवाकुले, जिन-गृहे कल्याणमहं यजे।।
अर्थ-मैं प्रशस्त मंगलगान (मांगलिक जिनेन्द्र स्तवन) के शब्दों से गुंजायमान जिन मंदिर में पंचकल्याणक युक्त जिनेन्द्र देव का जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल तथा अघ्र्य से पूजन करता हूं।
मन्त्र-ऊँ हृी श्री भगवज्जिनेन्द्र गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंच कल्याणेभ्यों अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरूसुदीप-सुधूप-फलाध्र्यकैः। धवल-मंगल-गान-रवाकुले, जिन-गृहे जिननाथमहं यजे।।
अर्थ-मैं प्रशस्त मंगलगान के शब्दों से गुंजायमान जिनमंदिर में इट पंच परमेष्ठी का जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य,दीप, धूप, फल तथा अघ्र्य से पूजन करता हूं।
मन्त्र- ऊँ हृी श्री अरिहनत, सिद्धाचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधुभ्या ेनमः अध्र्य निर्वपामीति स्वहा।
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरूसुदीप-सुधूप-फलाध्र्यकैः। धवल-मंगल-गान-रवाकुले, जिन-गृहे जिननाम अहं यजे।।
अर्थ-मैं प्रशस्त मंगलगान के शब्दों से गुंजायमान जिनमंदिर में जिन सहस्त्रनाम का जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल तथा अघ्र्य से पूजन करता हूं।
मन्त्र- ऊँ हृीं श्री भगवत् जिनेन्द्र सहस्त्रनामेभ्योः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अब स्वस्ति मंगल पाठ पढ़ते हुए पुष्प क्षेपण करते जाएं।
श्री मज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशं स्याद्वाद-नायकमनंत-चतुष्टयार्हम्। श्रीमूल संघ-सुदृशां सुकृतैकहेतुर।। जैनेन्द्र-यज्ञ-विधिरेष मयाऽभ्यधायि।।1।।
अन्वयार्थ-(जगत्त्रयेशं) तीन लोक के ईश (स्याद्वादनायकम् अन्नत-चतुष्टयार्हम्) स्याद्वाद नीति के नायक अैर अनन्त चतुष्टय के धनी (श्रीमूलसंघ सुदृशां-सुकृतैक हेतुः) मूल संघ की परम्परा जैन संघ के सम्यग्दृष्टि जीवों के सुकृत पुण्य बन्ध में एकमात्र कारण भूत (एष जैनेन्द्र-यज्ञ-विधिः) यह जिनेन्द्रदेव की पूजा-विधि (अभ्यधायि) कहीं गई हैं। (जाती है)।
अर्थ- तीन लोक के ईश, स्याद्वादनीति के नायक और अनन्त चतुष्टय के धनी श्री सम्पन्न जिनेन्द्र देव को नमस्कार करके मैंने मूलसंघ के अनुसार सम्यग्दृष्टि जीवों के सुकृत की एममात्र कारण भूत जिनेन्द्र देव की यह पूजा विधि कही है।
स्वस्ति त्रिलोक गुरूवे जिन पुंगवाय स्वास्ति स्वभाव-महिमोदय-सुस्थिताय। स्वस्ति प्रकाश-सहजोज्र्जित दृडमयाय, स्वस्ति प्रसन्न-ललिताद्भुत-वैभावाय।।2।।
अन्वयार्थ-(त्रिलोक गुरूवे) तीन लोक के गुरू तथा (जिन-पुंगवाय) जिन प्रधान कषाय एवं दोषों को जीतने वाले मुनिश्वरों के स्वामी आपकी (स्वस्ति ) जय हो, जय हो। (स्वभाव-महिमोदय-सुस्थिताय) स्वाभाविक महिमा का उदय होने के कारण (आत्मस्वरूप में) सम्यक् रूप से स्थित भगवान आपकी जय हो, जय हो। (प्रकाश-सहजोज्र्जित दृडमयाय) स्वाभाविक (ज्ञानरूपी) प्रकाश से तेजस्वी, दीप्त तथा केवल दशर््न से युक्त जिनेन्द्र आपकी (स्वस्ति) जय हो, जय हो। (प्रसन्न-ललित-अद्भुत-वैभवाय) मंगलप्रद सुंदर तथा अद्भुत (समवशरणादि) वैभव वाले जिनेन्द्र आपकी (स्वस्ति) जय हो, जय हो।
अर्थ- तीन लोक के गुरू तथा जिनप्रधान (कषायों और दोषों को जीतने वाले मुनिश्वरों के स्वामी) आपकी जय हो, जय हो। स्वाभाविक महिमा का उदय हाने से भली प्रकार स्थित हुए भगवान् ाअपकी जय हो, जय हो। स्वाभाविक प्रकाश से बढ़े हुए तथा केवल दर्शन से युक्त जिनेन्द्र आपकी जय हो, जय हो। मंगलप्रद सुन्दर तथा अद्भुत समवशरणादि वैभव वाले जिनेन्द्र आपकी जय हो, जय हो।