द्यानत सेवक जानि के (हो) जगतैं लेहु निकार,
सीमंघर जिन आदि दे स्वामी बीस विदेह मंझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।। श्री महाराज हो।।
अर्थ-जल से लेकर फल तक आठों द्रव्य मिलाकर प्रेमपूर्वक अघ्र्य तैयार किया है। आपकी स्तुति गणधर और इन्द्र भी पूरी तरह से नहीं कर सकते। इसलिए आप (द्यानतराय) कवि को अपना सेवक जानकर विदेह क्षेत्र में विराजमान हे सीमांधर आदि जिनेन्द्र संसार सिन्धु से बाहर निकाल लें। क्योंकि हे जिनेन्द्र आप संसार सागर से तिरने तिराने वाले जहाज हैं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं सीमंधरादि विद्यमान विंशति तीर्थंकरेभ्योऽनघ्र्य पदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हम में आठों दोष, जजों अरघ ले सिद्ध जी। वसु गुण दीजै मोय, द्यानत कर जोड़े खड़ो।।
अर्थ-हे सिद्ध भगवान्! हममें ज्ञानावरण आदि कर्म रूपी आठ दोष हैं और आपने आठों कर्मों को नष्ट कर दिया है इसलिए अघ्र्य लेकर मैं आपकी पूजा करता हूं। आप हमें भी सम्यक्त्व आदि गुण वाली मोक्ष पर्याय दीजिए। द्यानतराय कवि हाथ जोड़े खड़े हैं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं श्रीसिद्धचक्रधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा
वसु कोटि सुछप्पन लाख ऊपर, सहस्त्र सत्यानवे मानिए। सत चार पै गिन लेै इक्यासी, भवन जिनवर जानिए।। तिहूं लोक भीतर राजते, सुर-असुर नर पूजा करें। तिन भवन को हम अघ्र्य लेकैं, पूजहैं जग दुःख हरें।
अर्थ-आठ करोड़ छप्पन लाख सत्तानवे हजार चार सौ इक्यासी (854697481) अकृत्रिम जिन चैत्यालय तीन लोगों के भीतर शोभायमान हैं जिनकी सुर (देवता) तथा असुर (भवनवासी व व्यनतर) एवं मनुष्य पूजा करते हैं। उन अकृत्रिम चैत्यालयों की हम संसार के दुःख नष्ट करने के लिए अघ्र्य लेकर पूजा करते हैं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं तीन लोक सम्बंधी आठ करोड़, छप्पन लाख सत्तानवे हजार चार सौ इक्यासी अकृत्रिम चैत्यालयभ्यों अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि निर्मल नीर गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हरषाय। दीप धूप फल अर्घ सु लेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय।। ऋषदेव के चरणकमल पर बलि-बलि जाऊं मनवचनकाय। हो करूणानिधि! भव दुःख मेटो, यातैं मैं पूजौं प्रभु पाय।
अर्थ-हे जिनेन्द्र! स्चच्छ निर्मल जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, अघ्र्य को संजोकर हर्षित होकर ताल, मृदंग आदि उत्तम वाद्यों को बजाते हुए, नाचते हुए हे ऋषभनाथ भगवान्! आपके चरणकमल पर मन वचन, कय से बलिहारी हूं, समर्पित हूं। हे करूणा की अनुपमनिधि! आप निश्चित ही मेरे संसार रूपी दुःख को नाश करेंगे। इसी भावना को लिए मैं आपके चरणों की पूजा करता हूं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं ऋषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जल फलादि वसु द्रव्य संवारे अघ्र्य चढ़ाऊं मंगल गाय। बखत रतन के तुम ही साहिब दीजे शिवपुर राज कराय शान्तिनाथ पंचम चक्रेश्वर द्वादश मदन तनो पद पाय। तिनके चरण कमल को पूजे रोग शोक दुःख दारिद जाय।
अर्थ-ख्तावर और तरन कवि कहते हैं कि हे प्रभु! जल से लेकर फल तक आठों द्रव्य चढ़ाकर मंगल गान गाता हूं। आप ही मेरे साहिब (मालिक) हो, शिवपुर (मुक्ति) को दे दीजिए। आपने पंचम चक्रवर्ती व बारहवें कामदेव का पद पाया है। मैं अपने रोग, शोक, दुख व गरीबी को दूर करने के लिए आपके चरण कमलों की पूजा करता हूं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गन्ध अक्षतान, पुष्प चारू लीजिए। दीप धूप श्री फलादि, अर्घतैं जजीजिए।। पाश्र्वनाथ देव सेव आपकी करूं सदा। दीजिए निवास मोक्ष भूलिए नहींए कदा।।
अर्थ-जल, चन्दन, अक्षत, फूल, नैवेद्य,दीप, धूप और फल आदि आठों द्रव्यों से पूजा करता हूं। हे पाश्र्वनाथ भगवान्! मैं आपकी हमेशा सदा सेवा करता हूं, करूंगा। आप मुझे न भूलकर मोक्ष-महल में निवास-स्थान दीजिए, मोक्ष पद को दीजिए।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं श्री पाश्र्वनाथ जिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल वसु सजि हिम थार, तनम न मोद धरो। गुण गाऊं भवदधिपार, पूजत पाप हरो।। श्री वीर महाअतिवीर, सन्मति नायक हो। जय वर्धमान गुणधीर, सन्मति दायक हो।।
अर्थ- हे वीर प्रभु! मैं जल, फलादि आठों द्रव्यों को सोने के थाल में सजाकर शरीर और मन में प्रसन्न हो रहा हूं। मैं आपके गुणों की प्रशंसा कर रहा हूं। आप मुझको संसार समुद्र से पार कीजिए। आपकी पूजा करने से मैं पापों को नष्ट कर दूंगा। क्योंकि आप वीर, महावीर, अतिवीर, सन्मति के नायक अर्थात स्वामी हो, गुणों में सतत वर्द्धमान हो और सन्मति को देने वाले हो।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।