।। आओ पूजन करें ।।
पुष्प कैसे चढ़ाएं?

अपने दोनों हाथों में पुष्प भरकर चढ़ाने वाली थाली में वर्षा के रूप में बरसाएं।

नैवेद्य

अति सबल मद-कन्दर्प, जाको क्षुधा-उग्ग अमान है।
दुस्सह भयानक तासु नाशन, को सुगरूड़ समान है।।
उत्तम छहों रस-युक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूं।
अरहन्त श्रुत-सिद्धांत गुरू निग्र्रन्थ नित पूजा करूं।।

अर्थ-छहों रसों से भरे ताजे व नवीन पकवानों से देव-शास्त्र-गुरू की पूजा करता हूं।

नैवेद्य केसे चढ़ाएं ?

एक छोटी प्लेट में नैवेद्य भरकर भगवान को चढ़ाएं, प्लेट भगवान की ओर करके ही चढ़ाएं।

मन्त्र-ऊँ ह्नीं देवशास्त्रगुरूभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मन्त्र-पंच परमेष्ठी और तीर्थंकर स्वरूपद ेव-शास्त्र-गुरू को क्षुधा रूपी रोग का नाश करने के लिए नैवेद्य चढ़ाता हूं।

दीप

जे त्रिजग उद्यम नाश कीनो, मोह-तिमिर महाबली।
तिहि कर्म-घाती ज्ञान-दीप प्रकाश ज्योति प्रभावली।।
इह भांति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजन में खचूं।
अरहन्त श्रुत-सिद्धांत-गुरू निग्र्रन्थ नित पूजा रचूं।।

अर्थ-हे भगवान! तीन लोक के प्राणियों के सच्चे पुरूषार्थ को नाश करने के लिए मोहनीय कर्म रूपी अन्धकार बहुत बलवान है। उस मोहनीय कर्म को नाश करने वाला आपका ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश ही समर्थ है। अर्थात आप मोहनीय कर्म को नष्ट कर केवल ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं। इस प्रकार दीपक जलाकर सुवर्ण के पात्र में सजाता हूं और प्रतिदिन देव, शास्त्र ओर गुरू की पूजा करता हूं जिससे मेरा मोह दूर हो जाए।

दोहा- स्वपर प्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन।
जासों पूजौं परमपद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।

अर्थ-केवल ज्ञान रूपी दीपक अज्ञान अन्धकार से रहित हैं, इससे अपना और पर पदार्थ का प्रकाश होता है। इसलिए मैं देव, शास्त्र और गुरू की पूजा करता हूं।

दीप कैसे चढ़ाएं?

छोटी प्लेट में कपूर प्रज्वलित कर जलता हुआ थाली में चढ़ाएं एवं घी के दीपक से आरती उतारें।

मन्त्र- ऊँ ह्नीं देवशास्त्रगुरूभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

अर्थ- देव, शास्त्र और गुरू रूपी अंधकार नाश करने के लिए दीपक चढ़ाता हूं।

धूप

जो कर्म-ईधन दहन अग्नि समूह सम उद्धत लसै।
वर धूप तासु सुगन्धता करि, सकल परिमलता हंसे।।
इहि भांति धूप चढ़ाय नित भव ज्वलन माहिं नहीं पचूं।
अरहन्त श्रुत-सिद्धांत-गुरू-निग्र्रन्थ नित पूजा रचूं।।

अर्थ-हे भगवान! कर्म रूपी ईंधन को जलाने के लिए आप अग्नि के समान प्रकाशित हैं। अच्छे धूप की सुगंध से सभी सुगन्धियां मन्द हो जाती हैं। इसलिए हे देव! मैं प्रतिनि धूप चढ़ाता हूं जिससे मैं संसार रूपी अग्नि से दूर रहूं। अर्थात् धूप चढ़ाने से संसार से मुक्त हो जावें। इसीलिए देव, शास्त्र और गुरू की प्रतिदिन धूप से पूजा करता हूं।

दोहा- विअग्निमांहि परिमल दहन, चन्दनादि गुण लीन।
जासौं पूजौ परमपद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।

अर्थ- चन्दन और सुगन्धित द्रव्यों के गुणों से मिश्रित धूप को अग्नि में जलाकर देव, शास्त्र और गुरू की पूजा करता हूं।

धूप कैसे चढ़ाएं ?

अपने दाएं हाथ की मध्यमा ओर अनामिका उंगली में धूप रखकर अंगूठे से विनयपूर्वक धूप अग्नि में छोड़े।

मन्त्र- ऊँ ह्नीं देवशास्त्रगुरूभ्यः अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

अर्थ- देव, शास्त्र और गुरू को आठों कर्मों का नाश करने के लिए धूप चढ़ाता हूं।

फल

लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं।
मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं।।
सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूं।
अरहन्त श्रुत-सिद्धांत-गुरू निग्र्रन्थ नित पूजा रचूं।।

अर्थ-हे देवाधिदेव! नेत्र इन्द्रिय, जिह्ना इन्द्रिय, नासिक इन्द्रिय और मन को प्रसन्न करने वाले ये फल हैं। इनमें अच्छे फलों के सभी गुण हैं। मुझसे जिनके गुणों की उपमा नहीं की जा सकती है। हे भगवान्! मैं अपने मोक्ष रूपी प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए फल चढ़ता हूं, जिससे मुझे अनन्त सुख प्राप्त हो। इस प्रकार प्रतिदिन देव, शास्त्र और गुरू की पूजा करता हूं।

दोहा- जे प्रधान फल-फल विषै, पंच करण रस लीन।
जासों पूजौं परमपद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।

अर्थ-इन्द्रियों को प्रसन्न करने वाले उत्तम फलों से देव-शास्त्र और गुरू की पूजा करता हूं।

फल कैसे चढ़ाएं ?

छोटी प्लेट में उत्तम फल भरकर भगवान की ओर प्लेट करके थाली में फल समर्पित करें।

मन्त्र-ऊँ ह्नीं देवशास्त्रगुरूभ्यः मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

अर्थ- देव, शास्त्र, गुरू को मोक्षरूपी फल प्राप्त करने के लिए फल समर्पित करता हूं।

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