।। संसारभावना ।।
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सर्वप्रथम अनित्यभावना में स्वभाव की नित्यता एवं संयोगों की अनित्यता बताकर दृष्टि को संयोगों पर से हटकार स्वभाव की ओर जाने के लिए प्रेरित किया जाता है; पर मोह-राग-द्वेष के जोर से अज्ञानी और राग-द्वेष के जोर से ज्ञानी भी जब अनित्य संयोगों की सुरक्षा के लिए शरण तलाशने लगते हैं तो अशरणभावना में संयोगों की अशरणता एवं स्वभाव की परमशरणभूतता का परिज्ञान अनेक युक्तियों एवं उदाहरणों के माध्यम से कराया जाता है; परंतु जब वे आकुल-व्याकुल हो प्राप्त संयोगों में ही सुख की कल्पना करने लगते हैं तो संसारभावना में सुख-प्राप्ति में संयोगों की निरर्थकता एवं स्वभाव की सार्थकता का ज्ञान कराया जाता है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि भावनाओं की चिंतन-प्रक्रिया में पवित्र उद्देश्य की पूर्ति करनेवाला एक क्रमिक विकास है; अतः यह अत्यंत स्पष्ट है कि संसारभावना अनित्य व अशरणभावना में चिंतित विषयों का पिष्टपेषण नहीं है, अपितु चिंतन-प्रक्रिया का अगला और आवश्यक कदम है।

यह बात भी अत्यंत स्पष्ट है कि संसारभावना में संसार की असारता अर्थात् संयोगों की निरर्थकता तथा आत्मस्वभाव की सारभूतता अर्थात् सार्थकता का विचार किया जाता है, चिंतन किया जाता है।

गहराई से विचार करें तो दुःख का ही दूसरा नाम संसार है। अनादिकाल से चतुर्गति में भटकते हुए इस जीव ने अनंत दुःख भोगे है और निरंतर भोग रहा है। बड़े ही भाग्य से सहज ही विचारशक्ति और विचार का अवसर प्राप्त हो गया है; अतः अवसर चूकना योग्य नहीं। संसार मे सुख की कल्पना मे उलझे रहकर यदि यह अवसर चूक गया तो फिर चार गति और चैरासी लाख योनियों में भटकने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रहेगा; अतः संसार की असारता जानकर सारभूत निज शुद्धात्मा की आराधना में ही सार है।

संसारभावना सम्बंधी इसप्रकार के विचार-चिंतन-मनन-घोलन की सार्थकता तभी है; जब चिंतक की दृष्टि, उपयोग और ध्यान संयोगों पर से हटकर स्वभावसन्मुख हो अतीन्द्रिय-आनंद का अनुभव करे।

सभी आत्मार्थीजन संसार के दुःखमयी स्वरूप का विचार कर स्वभावसन्मुख हो अनंतसुख को प्राप्त करें - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।

बंधन तभी तक बंधन है, जब तक बंधन की अनुभूति है। यद्यपि पर्याय में बंधन है; तथापि आत्मा तो अबंधस्वभावी ही है। अनादिकाल ये यह अज्ञानी प्राणी अबंधस्वभावी आत्मा को भूलकर बंधन पर केन्द्रित हो रहा है। वस्तुतः बंधन की अनुभूति ही बंधन है। वास्तव में ‘मैं बंधा हूँ‘। इस विकल्प से यह जीव बंधा है। लौकिक बंधन से विकल्प का बंधन अधिक मजबूत है। विकल्प का बंधन टूट जावें तथा अबंध की अनुभूति सघन हो जावे तो बाह्य बंधन भी सहज ही टूट जाते हैं। बंधन के विकल्प से, स्मरण से, मनन से दीनता-हीनता का विकास होता है। अबंध की अनुभूति से, मनन से, चिंतन से शौर्य का विकास होता है, पुरुषार्थ सहज जागृत होता है। पुरुषार्थ की जाग्रति में बंधन कहाँ?

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