।। अशुचिभावना ।।
जिस देह को निज जानक नित रम रहा जिस देह में।
जिस देह को निज मानकर रच-पच रहा जिस देह में।।
जिस देह में अनुराग है एकत्व है जिस देह में।
क्षण एक भी सोचा कभी क्या-क्या भरा उस देह में ।।१।।

हे आत्मन्! जिस देह को अपना जानकर, अपना मानकर तू उसमें दिन-रात रम रहा है, रच-पच रहा है; जिस देह में तूने एकत्व स्थापित कर रखा है और जिस देह में तेरा इतना अनुराग है; उस देह में क्या-क्या भरा है?

-इस बात का विचार क्या तूने कभी एक क्षण भी किया है?

क्या-क्या भरा उस देह में अनुराग है जिस देह में।
उस देह का क्या रूप है आतम रहे जिस देह में।।
मलिन मल पल रुधिर कीकस वसा का आवास है।
जड़रूप है तन किन्तु इसमें चेतना का वास है।।२।।

जिस देह में निज भगवान आत्मा रहता है और जिस देह में तेरा इतना अनुराग है, उस देह का वास्तविक स्वरूप क्या है, रूप क्या है? - इस बात का विचार भी तूने कभी किया? यह देह अत्यंत मलिन, मल-मूत्र, खून-माँस, पीप एवं चर्बी का घर है। यद्यपि यह शरीर जड़रूप है, तथापि इसमें चैतन्यभगवान आत्मा विराजमान है।

चेतना का वास है दुर्गन्धमय इस देह में।
शु़द्धातमा का वास है इस मलिन कारागेह में।।
इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयगी।
वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायगी।।३।।

इस दुर्गन्धमय शरीर में चैतन्य भगवान रहते हैं, इस मैली-कुचैली जेल से शुद्धात्मा का आवास है। इस देह की स्थिति में तो ऐसी है कि पवित्र से भी पवित्र जो वस्तु इस मलिन देह के संयोग में एक क्षण को भी आवेगी; वह भी मलिन हो जावेगी, मल-मूत्र-मय हो जावेगी, दुर्गन्धमय हो जावेगी।

किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा।
वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा।।
उस आतमा की साधना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४।।

किंतु आश्चर्य की बात तो यह है कि महामलिन देह में रहकर भी यह भगवान आत्मा सदा निर्मल ही रहा है। यह निर्मल आत्मा ही परमज्ञेय है - परमशुद्धनिश्चय नय का विषय है, परमभावग्राहीशुद्धद्रव्यार्थिक नय का विषय है; श्रद्धेय है - दृष्टि का विषय है और वह भगवान आत्मा ही ध्यान का विषय है, ध्येय है। अशुचिभावना का सार उक्त भगवान आत्मा की साधना ही है और धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

हे प्रभो! कितने आश्चर्य की बात है, जिन भोगों को तुच्छ जानकर आपने स्वयं त्याग किया है, वे उन्हें ही इष्ट मान रहे हैं और आपसे ही उनकी मांग कर रहे हैं, आपको ही उनका दाता बता रहे हैं।

हे प्रभो! आपके अनंतज्ञान की महिमा तो अनंत है ही, पर अज्ञानियों के अज्ञान की महिमा भी अनंत है, अन्यथा वे इसप्रकार व्यवहार क्यों करते?

अशुचिभावना: एक अनुशीलन

इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयगी।
वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायगी।।
किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा।
वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा।।

‘‘शरीरादि संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, साथ नहीं देते, अपने आत्मा से एकदम भिन्न है‘‘ - अनित्यादि भावनाओं के चिंतन से इस पारमार्थिक सत्य से भलीभाँति परिचित हो जाने पर भी ज्ञानीजनों को रागवश भूमिकानुसार देह अत्यंत निकटवर्ती संयोगी पदार्थ होने से देह सम्बंधी विकल्पतंरंगें उठा ही करती हैं।

देह सम्बंधी उक्त रागात्मक विकल्पतरंगों के शमन के लिए ज्ञानीजनों द्वारा किया जानेवाला देह संबंधी अशुचिता का बार-बार चिंतन ही अशुचिभावना है। जैसा की पंडित दौलतरामजी कहते हैं -

‘‘पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि तैं मैली।
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करे किम यारी।।

कफ और चर्बी आदि से मैली यह देह मांस, खून एवं पीपरूपी मल की थैली है। इसके आँख, कान, नाक, मुँह आदि नौ द्वारों से निरंतर घृणास्पद मैले पदार्थ ही बहते रहते हैं। हे आत्मन्! तू ऐसी घृणास्पद इस देह से यारी (मित्रता, स्नेह) क्यों करता है?‘‘

इस संदर्भ में पंडित भूधरदासजी की निम्नांकित पंक्तियों भी द्रष्टव्य हैं -

‘‘देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई।
सागर के जल सौं शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई।।
सत कुधातमयी मलमूरत, चाम लपेटी सोहै।
टंतर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है।।
नव मलद्वार स्त्रवैं निशि-वासर, नाम लिए घिन आवै।
व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै?
पोषत तो दुख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै।
दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै।।
राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है।
यह तन पाय महातप कीजे, यामैं सार यही है।।

यह देह अत्यंत अपवित्र है, अस्थिर है, घिनावनी है, इसमें रंचमात्र भी सार नहीं है, सागरों के जल धोये जाने पर भी शुद्ध होनेवाली नहीं है। चमड़े में लिपटी शोभायमान दिखनेवाली यह देह सात कुधातुओं से भरी हुई मल की मूर्ति ही है; क्योंकि अंतर में देखने पर पता चलता है कि इसके समान अपवित्र अन्य कोई पदार्थ नहीं है।

इसके नव द्वारों से दिन-रात ऐसा मैल बहता रहता है, जिसके नाम लेने से ही घृणा उत्पन्न होती है। जिसे अनेक व्याधियाँ और उपाधियाँ निरंतर लगी रहती हैं, उस देह में रहकर आजतक कौन बुद्धिमान सुखी हुआ है?

इस देह का स्वभाव दुर्जन के समान है; क्योंकि इसमें भी दुर्जन के समान पोषण करने पर दुःख और दोष उत्पन्न होते हैं और शोषण करने पर सुख उत्पन्न होता है। फिर भी यह मूर्ख जीव इससे प्रीति बढ़ाता है।

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