।। अशुचिभावना ।।
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इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु यह छोड़ने योग्य ही है; अतः हे भव्य प्राणियों! इस मानव तन को पाकर महातप करो; क्योंकि इस नरदेह पाने का सार आत्महित कर लेने में ही है।‘‘

उक्त छंदों में देह के अशुचि स्वरूप का वैराग्योत्पादक चित्रण कर अंत में यही कहा गया है कि ‘अस देह करे किम यारी‘ अर्थात् ऐसी अशुचि देह से क्या प्रेम करना? तथा ‘राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है‘ अर्थात् इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु यह छोड़ने योग्य ही है।

हे आत्मन्! देह यदि अपवित्र है तो रहने दे इसे अपवित्र; तुझे इससे क्या लेना-देना? तू तो इससे अत्यंत भिन्न परमपवित्र भगवान आत्मा है। तू तो अपने को पहिचान। तू इस देह के ममत्व एवं स्नेह में पड़कर क्यों अनंत दुःख उठा रहा है? इससे सर्वप्रकार स्नेह तोड़कर स्वयं में ही समा जाने में ही सार है।

इसी बात को पंडित जयचन्दजी छाबड़ा इसप्रकार व्यक्त करते हैं -

‘‘निर्मल अपनी आत्मा, देह अपावन गेह।
जानि भव्य निजभाव को, यासों तजो सनेह।।

अपनी आत्मा अत्यंत निर्मल है और यह देह अपवित्रता का घर है। हे भव्यो! इसप्रकार जानकर इस देह से स्नेह छोड़ो और निजभाव का ध्यान करो।‘‘

इसप्रकार के चिंतन का मूल उद्देश्य देह के प्रति विरक्ति उत्पन्न कर देहदेवालय में विराजमान देह से भिन्न निज भगवान आत्मा के दर्शन-ज्ञान-रमणता की रुचि उत्पन्न करना ही है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि अशुचिभावना में देह सम्बंधी अशुचिंता का चिंतन किया जाता है; तथापि इसके चिंतन की सीमा देह की अशुचिता तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसमें आत्मा की पवित्रता का चिंतन एवं रमणता भी समाहित हो जाती है। कार्तिकेय स्वामी तो स्पष्ट लिखते हैं -

‘‘जो परदेहविरत्तो, णियदेहे ण य करेदि अणुरायं।
अप्पसरूव सुरत्तो, असुइत्ते भावणा तस्य।।

जो भव्य जीव परदेह (स्त्री आदि की देह) से विरक्त होकर अपनी देह में भी अनुराग नहीं करना तथा अपने आत्मस्वरूप में अनुरक्त रहता है, उसके अशुचिभावना होती है।‘‘

उक्त छंद में देह से विरक्ति और आत्मस्वरूप में अनुरक्ति की बात तो अत्यंत स्पष्टरूप से कही ही गई है; पर एक नई बात और भी कही गई है, जो सहजरूप से अन्यत्र देखने में नहीं आती। इसमें देहह के भी परदेह और स्वदेह - ऐसे दो भेद कर दिये गये है।

एकक्षेत्रावगाही निकटवर्ती संयोगी पदार्थ होने के कारण निजदेह में तो सामान्यजनों का सहज स्नेह पाया ही जाता है, पर स्पर्शनादि इन्द्रियों के उपभोग की वस्तु होने से स्त्री आदिक के शरीर में भी राग होता ही है।

स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषयों से विरक्ति उत्पन्न करने के उद्देश्य से स्त्री आदिक की देह की अपवित्रता का भी दिग्दर्शन कराया जाता रहा है। ब्रह्मचर्य धर्म की पूजा के प्रसंग में दशलक्षणपूजन में भी इसप्रकार का एक छंद प्राप्त होता है, जो कि इसप्रकार है -

‘कूरे तिया के अशुचि तन में, कामरोगी रति करे।
बहु मृतक सड़हिं मसान माँहिं, काग ज्यों चोंचे भरे।।

कामवासना से पीडि़त व्यक्ति स्त्रियों के अपवित्र शरीर में अनुराग करता है और वह उस अपवित्र शरीर के साथ इसप्रकार का व्यवहार करता है कि जिसप्रकार कौआ श्मशान में पड़े हुए सड़े मृतक कलेवर में बार-बार चोंचे मार कर करता है।

उक्त संदर्भ में ‘पद्यनंदि पंचविंशति‘ का निम्नांकित छंद भी द्रष्टव्य है -

‘‘यूकाधाम कचाः कपालमजिनाच्छत्रं मुखं योषितां।
तच्छिद्रे नयने कुचै पलभरौ बाहू तते कीकसे।।
तुन्दं मूत्रमलादिसद्य जघनं प्रस्यन्दिवर्चोगृहं।
पास्थूणमिदं किमत्र महतां रागाय संभाव्यते।।
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जिनके बाल जुओं के घर हैं, कपाल और चेहरा चमड़े से आच्छादित है, दोनों नेत्र उस चेहरे के छिद्र हैं, दोनों स्तन माँसे से भरे हुए हैं, दोनों भुजायें हड्डियाँ हैं, उदर मलमूत्रादि का स्थान है, जंघा प्रदेश बहते हुए मल का घर है तथा पैर ठूंठ के समान है; स्त्रियों का ऐसा यह अपवित्र शरीर क्या महान् पुरुषों के लिए अनुराग का कारण हो सकता है? नहीं, कदानि नहीं।‘‘

यद्यपि उक्त सम्पूर्ण कथन स्त्री शरीर को लक्ष्य में लेकर किया गया है; तथापि इसका आशय यह कदापि नहीं है कि पुरुष शरीर पवित्र होता है; पुरुष शरीर भी स्त्री शरीर के समान ही मल-मूत्र का घर एवं रक्त, माँस और हड्डियों का ही पिंड है।

चाहे नरदेह की चर्चा हो, चाहे नारीदेह की; इसीप्रकार चाहे स्वदेह की चर्चा हो या परदेह की; अशुचिभावना में सभी देहों की चर्चा उनकी स्वभावगत अशुचिता के दिग्दर्शन के लिए ही होती है; क्योंकि अशुचिभावना के चिंतन का प्रयोजन स्व-पर देह एवं तत्संबंधी भोगों से विरक्ति उत्पन्न करना होता है।

यह शरीर स्वयं तो अशुचि है ही, इसके संसर्ग में आनेवाला प्रत्येक पदार्थ भी इसके संयोग से अपवित्र हो जाता है। शुद्ध, सात्त्विक, सुस्वादु, सुन्दरतक भोजन इसके संसर्ग में आते ही उच्छिष्ट हो जाता है, मुँह में डालते ही अपवित्र है। पेट में पहुँच जाने के बाद वमन हो जावे तो उसे कोई छूने को भी तैयार नहीं होता। अधिक काल तक देह के सम्पर्क में रहने पर तो वह मल-मूत्र मंे परिणमित हो ही जाता है।

प्रातः शुद्ध, साफ, सुंदर वस्त्र पहनते हैं तो शाम तक ही मैले-कुचैले हो जाते हैं, पसीने की गंध आने लगती है। निर्मल जल से स्नान करने पर भी यह शरीर तो निर्मल नहीं होता, जल अवश्य मैला हो जाता है।

इस बात की चर्चा करते हुए स्त्रानाष्टक में कहा गया है -

‘‘सन्माल्यादि यदीयसंनिधिवशादस्पृश्यतामाश्रयेद्
विण्मूत्रादिभूतं रसािदघटितं वीभत्सु यत्पूति च।
आत्मानं मलिनं करोत्यपि शुचिं सर्वाशुचीनामिदं
संकेतैकगृहं नृणां वपुरपां स्नानात्कथं शुद्धयति।।

जिस शरीर की समीपता के कारण उत्तम माला आदि पदार्थ छूने के योग्य नहीं रहते हैं, जो मल-मूत्रादि से भरा हुआ है, रस-रुधिरादि सप्तधातुओं से रचा गया है, भयानक है, दुर्गन्ध से युक्त है तथा जो निर्मल आत्मा को भी मलिन करता है, समस्त अपवित्रताओं के एक संकेतगृह के समान यह मनुष्यों का शरीर जल के स्नान से कैसे शुद्ध हो सकता है?‘‘

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