जिस देह में यह आत्मा रहता है, जब वह एकक्षेत्रावगाही देह भी आत्मा से भिन्न है तो जो क्षेत्र से भिन्न है, उनकी क्या बात करें? वे तो सर्वथा भिन्न हैं ही। नगरवासी, कुटुम्बीजन, भाई-बहिन, माँ-बाप, पति या पत्नी, धन-धान्य एवं मकान आदि सभी आत्मा से भिन्न ही हैं।
छोटे-बड़े भाई, पुत्र-पुत्री, प्रिय मित्रजन आदि सभी तो आत्मा से भिन्न हैं ही, परंतु पर के लक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाली शुभाशुभभावरूप तथा स्वलक्ष्य से उत्पन्न होनेवाली शुद्धभावरूप चिद्वृत्तियाँ भी आत्मा से अन्य ही हैं, भिन्न ही है; चैतन्यमय ध्रुव आत्मा तो गुणभेद से भी भिन्न परमपदार्थ है।
यह गुणभेद से भी भिन्न परमपदार्थ आनंद का कंद, ज्ञान का घनपिंड एवं अनंत शक्तियों का संग्रहालय है। वह परमपदार्थ साध्य भी है, आराध्य भी है और आराधना का सार भी वही है। धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना का एकमात्र आधार वही परमपदार्थ निज आत्मा है।
जो जीव इस सत्य को जानते हैं, वे ही विवेकी हैं, वे ही धन्य हैं; क्योंकि धु्रवधाम के आराधकों की बात ही कुछ और है। अन्यत्वभावना का सार आत्मा का पर से भिन्नत्व पहिचानना ही है एवं अखंड एक आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।
तब प्रश्न उठता है कि आखिर ‘मैं हूँ कौन?‘ यदि एक बार यह प्रश्न हृदय की गहराई से उठे और उसके समाधान की सच्ची जिज्ञासा जगे तो इसका उत्तर मिलना दुर्लभ नहीं। पर यह ‘मैं‘ पर की खोज में स्वयं को भूल रहा है। कैसी विचित्र बात है कि खोजने वाला खोजने वाले को ही भूल रहा है। सारा जगत पर की संभाल में इतना व्यस्त नजर आता है कि ‘मैं कौन हूँ?‘ - यह सोचने-समझने की उसे फुर्सत ही नहीं है।
‘‘मैं‘‘ शरीर, मन, वाणी, और मोह-राग-द्वेष, यहाँ तक कि क्षणस्थायी परलक्षी बुद्धि से भिन्न एक त्रैकालिक, शुद्ध, अनादि-अत्यंत, चैतन्य, ज्ञानानंदस्वभावी ध्रवतत्व हूँ, जिसे आत्मा कहते हैं।
अन्यत्वभावना: एक अनुशीलन
संयोगों की अनित्यता, अशरणता एवं असारता; अनित्य, अशरण एवं संसारभावना में बताई जा चुकी है। एकत्वभावना में यह स्पष्ट किया गया है कि कोई भी संयोग सुख-दुःख के साथी नहीं होते, सम्पूर्ण सुख-दुःख जीव अकेले ही भोगता है। अब अन्त्वभावना में यह समझाते हैं कि परमार्थ से विचार करें तो आत्मा शरीरादि सर्व संयोगों से अत्यंत भिन्न ही है।
अन्यत्वभावना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं -
आत्मा ज्ञान-दर्शनस्वरूप है और शरीरादिक सभी बाह्म पदार्थ इससे भिन्न हैं - इसप्रकार चिंतन करना अन्यत्वभावना है।‘‘
इसीप्रकार का भाव कार्तिकेयानुप्रेक्षा में व्यक्त किया गया है, जो कि इसप्रकार है -
‘जीव के स्वरूप से देह भिन्न है‘ - जो जीव इस तात्त्विक मर्म को जानकर अपने आत्मा का सेवन (अनुभव) करता है, अन्यत्वभावना उसी के लिए कार्यकारी है अर्थात् सफल है।‘‘
आचार्य अमितगति भी जीव से भिन्न देहादि संयोगों पर से दृष्टि हटा लेने की प्रेरणा देते हुए सामायिक पाठ में कहते हैं -
जिस आत्मा का शरीर के साथ भी ऐक्य नहीं है; उसका पुत्र, पत्नी और मित्र के साथ ऐक्य कैसे हो सकता है? ठीक ही है; क्योंकि शरीर से चमड़ी दूर कर देने र रोमछिद्र कैसे रह सकते हैं?‘‘
और भी देखिए-
कोई बाह्म शरीरादि सांसारिक पदार्थ न तो मेरे हैं और न मैं उनका हूँ - ऐसा निश्चय करके हे भद्रजीव! तू बाह्मपदार्थ को छोड़ और मुक्ति की प्राप्ति के लिए निरंतर स्वस्थ हो अर्थात् अपनी आत्मा में ही पूर्णतः लीन रह।‘‘
इस संदर्भ में आचार्य पूज्यपाद का कथन भी द्रष्टव्य है -
‘‘शरीर से अन्यत्व का चिंतन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा - बंध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से मैं अन्य हूँ। शरीर ऐन्द्रिय है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि-अंतवाला है और मैं अनाद्यनंत हूँ। संसार मंे परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये, मैं उससे भिन्न ही हूँ, इसप्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ, तब हे वत्स! मैं बाह्म पदार्थों से भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य?