।। अशरणभावना ।।
छिद्रमय हो नाव डगमग चल रही मझधार में।
दुर्भाग्य से जो पड़ गई दुर्दैव के अधिकार में।
तब शरण होगा कौन जब नाविक डुबा दे धार में।
संयोग सब अशरण शरण कोई नहीं संसार में।।१।।

एक तो छेदवाली नाव हो, मझधार में बह रही है और वह भी दुर्भाग्य से दुर्दैव के अधिकार में पड़ गई हो; तथा जब नाविक ही उसे मँझधार में डुबाने को तैयार हो तो फिर उसे कौन बचा सकता है? अतः यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सभी संयोग अशरण हैं, इस संसार में कोई भी शरण नहीं है।

जिन्दगी इक पुल कभी कोई बढ़ा नहीं पायगा।
रस रसायन सुत सुभट कोई बचा नहीं पायगा।।
सत्यार्थ है बस बात यह भी कुछ भी कहो व्यवहार में।
जीवन-मरण अशरण शरण कोई नहीं संसार में।।२।।

यह जीवन जबतक है, तबतक ही है; इसका एक पल भी कोई बढ़ा नहीं सकता; जब मौत आ जायगी तो न तो रस-रसायन ही बचा पायेंगे और न सुत (पुत्र), न सुभट अथवा न सुभट-सुत। व्यवहार से कुछ भी कहो, पर सत्य बात तो यही है कि जीवन-मरण अशरण है, संसार में कोई भी शरण नहीं है।

निज आत्मा निश्चय-शरण व्यवहार से परमातमा।
जो खोजता पर की शरण वह आतमा बहिरातमा।।
धु्रवधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।३।।

निश्चय से विचार करो तो एक अपना आत्मा ही शरण है, पर व्यवहार से पंचपरमेष्ठी को भी शरण कहा जाता है। इन्हें छोड़कर जो अन्य की शरण खोजता है, अन्य की शरण में जाता है; वह आत्मा बहिरात्मा है, मूढ़ है, मिथ्यादृष्टि है। ध्रुवधाम से विमुख पर्याय ही वस्तुतः संसार है और धु्रवधाम की आराधना ही आराधना का सार है।

संयोग हैं अशरण सभी निज आतमा ध्रुवधाम है।
पर्याय व्ययधर्मा परंतु द्रव्य शाश्वत धाम है।।
इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४।।

सभी संयोग अशरण हैं और ध्रुवधाम निज आत्मा ही परमशरण है। पर्याय का स्वभाव ही नाशवान है, किन्तु द्रव्य अविनाशी है। इस सत्य को पहिचानना ही अशरणभावना का सार है और धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही वास्तविक आराधना है, आराधना का सार है।

देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा को जानो

णविएहिं जं णविज्जई झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं।
थुत्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह।।
- मोक्षपाहुड़, गाथा १॰३

हे भव्यजीवों! जिनको सारी दुनिया नमस्कार करती है, वे भी जिनको नमस्कार करें; जिनकी सारी दुनिया स्तुति करती हैं, वे भी जिनकी स्तुति करें एवं जिनका सारी दुनिया ध्यान करती है, वे भी जिनका ध्यान करें - ऐसे इस देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा को जानो।

अशरणभावना: एक अनुशीलन

जिन्दगी इक पल कभी कोई बढ़ा नहीं पायगा।
रस रसायन सुत सुभट कोई बचा नहीं पायगा।।
सत्यार्थ है बस बात यह कुछ भी कहो व्यवहार में।
जीवन-मरण अशरण शरण कोई नहीं संसार में।।

‘‘सभी प्रकार के संयोग और पर्यायें अध्रुव हैं, अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं; तथा द्रव्यस्वभाव धु्रव है, नित्य है, चिरस्थाई है; अतः भला इसी में है कि हम इस शाश्वत सत्य को सहजभाव से स्वीकार कर लें तथा पर और पर्यायों से दृष्टि हटाकर स्वभावसन्मुख हों।‘‘

-यद्यपि इसप्रकार के चिंतन के माध्यम से अनित्यभावना में दृष्टि को पर और पर्यायों से हटाकर स्वभावसन्मुख होने के लिए प्रेरणा दी जाती है; तथापि अज्ञानी को अज्ञानवश तथा कदाचित् ज्ञानी को भी रागवश संयोगों और पर्यायों को स्थिर करने की विकल्पतरंगें उठा ही करती हैं। उन निरर्थक विकल्पतरंगों के शमन के लिए ही अशरणभावना का चिंतन किया जाता है।

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अशरणभावना में अनेक युक्तियों और उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट किया जाता है कि यथासमय स्वयं विघटित होनेवाले संयोगों एवं पर्यायों की सुरक्षा संभव नहीं है, उनका विघटन अनिवार्य है; क्योंकि उनकी यह सहज परिणति ही है।

संयोगों और पर्यायों की सुरक्षा में किए गये अगणित प्रयत्नों में से आज तक किसी का एक भी प्रयत्न सफल नहीं हुआ है और न कभी भविष्य में भी सफल होगा; अतः इन निरर्थक प्रयासों में उलझना ठीक नहीं है।

संयोगी पदार्थों में शरीर एक ऐसा संयोगी पदार्थ है, जिसकी सुरक्षा संबंधी विकल्पतरंगें चित्त को सर्वाधिक आंदोलित करती हैं। इस नश्वर देह की सुरक्षा के विकल्प में प्राणी क्या-क्या नहीं करते? अनेक प्रकार की औषधियों का सेवन करते हैं, कुदेवों की आराधना करते हैं, मंत्रों की साधना करते हैं, तंत्रों का प्रयोग करते हैं, सुद्दढ़ गढ़ बनवाते हैं, चिकित्सकों की शरण में जाते हैं, मांत्रिकों-तांत्रिकों के चक्कर काटते हैं, चतुरंगी सेना तैयार करवाते हैं; पर जब काल आ जाता है तो ये सब-कुछ काम नहीं आते। अन्ततोगत्वा इस नश्वर देह को छोड़ना ही पड़ता है।

देह का वियोग ही मरण है, वह अनिवार्य है; क्योंकि कोई शरण नहीं है। बस, यही अशरण है; इसका चिंतन ही मुख्यतः अशरण भावना है। जैसाकि निम्नांकित छन्दों से स्पष्ट हैं -

‘‘दल-बबल देई-देवता, मात-पिता परिवार।
मरती बिरियाँ जीव को, कोई न राखनहार।।

इस जीव को मरणकाल आ जाने पर सेना की शक्ति, देवी-देवता, माता-पिता और परिवारजन कोई भी नहीं बचा सकता।

सुर-असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरिकाल दले ते।
मणि-मंत्र-तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई।।

जिसप्रकार शेर मृगों को निर्दयतापूर्वक मसल डालता है; उसीप्रकार देवता, असुर एवं विद्याधर आदि जितने भी शक्तिशाली जीव हैं, वे सभी काल (यमराज) द्वारा मसल दिये जाते हैं। यद्यपि लोक में मणि, मंत्र-तंत्र बहुत होते हैं, पर मरते समय कोई भी नहीं बचा पाता है।‘‘

बारह भावना संबंधी उक्त छन्दों में मुख्यरूप से यही भाव स्पष्ट किया गया है।

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