इसी बात को निम्नांकित छन्द में और भी अधिक स्पष्ट किया गया है -
कालरूपी सिंह ने जीवरूपी मृग को इस संसाररूपी वन में घेर लिया है। इस जीवरूपी मृग को कालरूपी शेर से बचाने वाला कोई नहीं है-यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। जब कालरूपी लुटेरा कायारूपी नगर लूटता है, तब किसी का वश नहीं चलता। मंत्र-तंत्र सब रखे रह जाते हैं, सेना खड़ी देखती रह जाती है और राज-पाट तथा धन-सम्पत्ति सब छूट जाती है।
चक्ररत्न और बलदेव जैसा भाई भी काम नहीं आया और श्रीकृष्ण की काया एक तीर के लगने मात्र से नष्ट हो गई। अतः इस जगत में एक मात्र देव, गुरु एवं धर्म ही परमशरण है और कोई नहीं। शरण की खोज में इस जीव ने सम्पूर्ण उम्र भ्रम से भटकते हुए व्यर्थ में ही खो दी है।
सर्वाधिक सम्पत्ति और शक्ति से सम्पन्न मनुष्यों में चक्रवर्ती होता है और देवों में इन्द्र। आचार्य कुन्दकुन्द दोनों का उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि जब नवनिधियों एवं चैदहरत्नों का धनी चक्रवर्ती एवं वज्रधारी इन्द्र भी सुरक्षित नहीं तो साधारण जगतजन की क्या बात करें ?
उनका कथन मूलतः इसप्रकार है -
स्वर्ग जिसका किला है, देव जिसके भृत्य हैं, वज्र जिसका हथियार है, ऐरावत हाथी जिसका वाहन है - ऐसे इन्द्र को भी कोई शरण नहीं है।
इसीप्रकार काल के आ जाने पर नव निधियाँ, चैदह रत्न, चंचल घोड़े और मदोन्मत्त हाथी तथा सुसज्जित चतुरंग सेना भी चक्रवर्ती को शरण नहीं दे पाते; तब साधारणजन को कौन शरण दे?
तात्पर्य यह है जिसके पास सुरक्षा के इतने और इसप्रकार के साधन है, जब उसे भी समय आने पर देह छोड़नी ही पड़ती है, तब सामान्यजन की क्या विसात है?‘‘
इसप्रकार हम देखते हैं कि अशरणभावना में संयोगों और पर्यायों की क्षणभंगुरता का, अशरणता का गहराई से बोध कराया जाता है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि पर्यायों की क्षणभंगुरता का बोध तो अनित्यभावना के चिंतन में बहुत गहराई से करा दिया था; इस अशरणभावना में क्या नई बात है?
अनित्यभावना और अशरणभावना में मूलभूत अंतर क्या है?
अनित्यभावना में संयोगों और पर्यायों के अनित्यस्वभाव का चिंतन होता है और अशरणभावना में उनके ही अशरणस्वभाव का चिंतन किया जाता है। अनित्यता के समान अशरणता भी वस्तु का स्वभाव है। जिसप्रकार अनित्यस्वभाव के कारण प्रत्येक वस्तु परिणमनशील है, नित्य परिणमन करती है; उसीप्रकार अशरणस्वभाव के कारण किसी वस्तु को अपने परिणमन के लिए पर की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है। पर की शरण की आवश्यकता परतंत्रता का सूचक है, जबकि प्रत्येक वस्तु पूर्णतः स्वतंत्र है।
अशरण का अर्थ है असहाय। जिसे पर की सहायता की - शरण की आवश्यकता नहीं; वस्तुतः वही असहाय है, अशरण है। आचार्य पूज्यपाद ने इसी अर्थ में केवलज्ञान को असहाय ज्ञान कहा है। जिस ज्ञान को पदार्थों के जानने मे इन्द्रिय, आलोक आदि किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं होती, उसे असहाय ज्ञान या केवलज्ञान कहते हैं।
अशरणभावना को असहायभावना नाम से भी कहा गया है। एक प्राचीन गुटका में किसी अज्ञात लेखक की लिखी एक बारह भावना मिली है; जिसमें अनित्य और अशरणभावना का स्वरूप इसप्रकार दिया गया है -
कर्मोदय के योग से प्राप्त स्थूल देह एवं अन्य संयोगों को स्थिर नहीं समझना ही अनित्यभावना है।
अपने गुणों को पहचाने, सत्ता को देखे - अनुभव करे, द्रव्यदृष्टि के विषय में स्थिर हो जावे; एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की सहायता नहीं कर सकता - यह स्वीकार करे - यही भाव अशरण भावना है।‘‘
उक्त छंदों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें बारह भावनाओं का चिंतन न करके उनको परिभाषित किया गया है उनका स्वरूप समझाया गया है। जैसे प्रथम छंद का अंतिम पद है-‘अथिर भावना एह‘। ऐसा ही प्रयोग प्रायः प्रत्येक छंद में पाया जाता है।
उक्त दृष्टि से यदि अशरणभावना सम्बंधी छंद के अन्तिम पद पर ध्यान दे तो वहाँ कहा गया है कि ‘यहै भाव असहाय‘-यह असहाय भावना है। ‘भावना‘ के स्थान पर ‘भाव‘ शब्द का प्रयोग छन्दानुरोध से हुआ है। इसप्रकार के प्रयोग अन्य भावना सम्बंधी छन्दों में भी हुए हैं। जैसे अनित्यभावना को अथिराभावना और संसारभावना को जगतभावना कहा गया है-ये सभी प्रयोग छन्दानुरोधवश ही हुए हैं।
अशरण अहस्तक्षेप का सूचक है। किसी भी द्रव्य के परिणमन में किसी अन्य द्रव्य का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं चलता। कोई व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, वह अन्य द्रव्य के परिणमन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। वस्तु की इस स्वभावगत विशेषता का चित्रण एवं पर्यायों के स्वतंत्र क्रमनियमित परिणमन का चिंतन ही अशरणभावना का मूल है। निमित्तों की अकिंचित्करता का सशक्त दिग्दर्शन ही अशरणभावना का आधार है। ‘कोई बचा नहीं सकता‘ का अर्थ और क्या हो सकता है?
अनित्यभावना का केन्द्रबिंदु है-‘मरना सबको एक दिन,अअपनी-अपनी बार‘ और अशरणभावना कहती है कि - ‘मरतैं न बचावे कोई‘ - यही इन दोनों में मूलभूत अंतर है।
यद्यपि अनित्य और अशरणभावना संबंधी उपलब्ध चिंतन में देह के वियोगरूपम रण की ही चर्चा अधिक है; तथापि इनकी विषयवस्तु मृत्यु की अनिवार्यता तक ही सीमित नहीं है, अपितु उनका विस्तार असीम है; क्योंकि उनकी सीमा में सभी प्रकार के संयोगों तथा पर्यायों की अस्थिरता एवं अशरणता आ जाती है।
मृत्यु सम्बंधी अधिक चर्चा का हेतु जगतजन की मृत्यु के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता ही है। जगतजन मृत्यु के प्रति जितने संवेदनशील देखे जाते हैं, उतने किसी अन्य परिवर्तत के प्रति नहीं।