।। धर्मभावना ।।
निज भावना को जानना पहिचानना ही धर्म है।
निज आतमा को साधना आराधना ही धर्म है।।
शुद्धत्मा की साधना आराधना का मर्म है।
निज आतमा की ओर बढ़ती भावना ही धर्म है।।।।

अपनी आत्मा को जानना, पहिचानना ही धर्म है। इसीप्रकर अपनी आत्मा की साधना, आराधना भी धर्म है। अराधना का मर्म निज आत्मा की साधना ही है। निज आत्मा की ओर बढ़ती हुई भावना ही धर्मभावना है।

कामधेनु कल्पतरू संकटहरण बस नाम के ।
रतन चिन्तामणी भी हैं चा बिन किसी काम के।।
भोगसामग्री मिले अनिार्य है पर याचना।
है व्यर्थ ही इनक ल्पतरू चिन्तामणी की चाहना।।2।।

कामधेनु और कल्पवृक्ष नाममात्र के ही संकटहरण हैं। जिसे कोई चाह नहीं है,उसे चिन्तामणी रत्न भी किसी कम के है? यद्यपि इनसे भोगसामग्री उपलब्ध हो जाती है; पर बिना मांगे नहीं, याचना करना अनिवार्य है और मांगने के तो मरने से भी बुरा कहा गया है। अतः इनकी चाह करना व्यर्थ ही है।

धर्म ह वह कल्पतरू है नहीं जिमें याचना।
धर्म ही चिन्तामणी है नहीं जिसमें चाहना।।
धर्मतरू से याचना बिना पूर्ण होती कामना।
धर्म चिन्तामणी है शुद्धात्मा की साधना।।3।।

धर्म एक ऐसा कल्पवृक्ष है, जिससे याचना की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसीप्रकार धर्मरूपी कल्पवृक्ष से मांगे बिना ही कामनाएं पूर्ण होती हैं अथवा कामनाएं ही समाप्त हो जाती है। शुद्धात्मा की साधना ही सच्चा धर्म चिन्तामणी है, जिससे बिना चिन्तन के ही सर्व चिताएं समाप्त हो जाती है।

शुद्धातमा की साधना अध्यात्मा का आधार है।
शुद्धातमा की भावना ही भावना का सार है।
वैराग्यजननी भावना का एक ही आधार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।4।।

आध्यात्मिक जीवन का आधार एक शुद्धात्मा की साधना ही है और शुद्धात्म की भावना ही धर्मभावना का या बारह भावनाओं का सार है। बैराग्योत्पादक धर्मभावना या बारह भावनाओं का एक मत्र आधार निज शुद्धात्मा ही है और धु्रवधाम निज भगवान की आराधना ही आराधना का सार है।

धर्मभावना: एक अनुशीलन

निज भावना को जानना पहिचानना ही धर्म है।
निज आतमा को साधना आराधना ही धर्म है।।
शुद्धत्मा की साधना आराधना का मर्म है।
निज आतमा की ओर बढ़ती भावना ही धर्म है।।।।

आरंभिक नौ भावनाओं में ज्ञेयरूप संयोग, हेयरूप आस्त्रवभाव एवं उपादेयरूप संवर-निर्जरा के सम्यक् चिन्तन के उपरान्त लोक और बोधि-दुर्लभभावना में यह विचार किया गया है कि इस षट्द्रव्यमयी पुरूषाकार लोक में रत्नत्रयरूप बोधि की उपलब्धि उत्यन्तदुर्लभ है। चूंकि रत्नत्रयरूप बोधि ही वास्तविक धर्म है; अतः इस धर्मभावना में निज भागवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म का ही विचार किया जाता है, चिन्तन किया जाता है, धर्म की ही बारंबार भावना भाई जाती है।

धर्म का स्वरूप आचार्य समन्तभद्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -

सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः।।1

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को धर्म के ईश्वर सर्वज्ञदेव धर्म कहते हैं। यदि यही दर्शन-ज्ञान-चारित्र मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हों, तो संसार को बढ़ानेवाला हैं।’’

धर्म का क्षेत्र असीम है;क्योंकि उसमें एक प्रकार से सम्पूर्ण चरणानुयोग ही समाहित हो जाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में सर्वाधिक स्थान घरेनेवाली धर्मभावना ही है। 185 गाथाओं मं फैली इस भावना में श्रावकधर्म और मुनिधर्म का सांगोपांग विवेचन किया गया; जिसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र के विस्तृत विवेचन के उद्देश्य से देव-शासत्र-गुरू, सम्यग्दर्शन के आठ अंग, बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमाएं, दश धर्म, बारह तप एवं चार ध्यान आदि सभी विषय समा गये हैं।

इसी धर्मभावना के प्रकरण में प्रसंगानुसार वे क्रान्तिकारी महत्वपूर्ण गाथाएं भी आई हैं, जिनमें सहज ही क्रमबद्धपयार्य1 का महान सिद्धान्त प्रतिफलि हुआ है, जो इस युग का सर्वाधिक चर्चित विषय है।

वे गाथाएं मूलतः इस प्रकार हें -

जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि।
णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा।।
तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि।
को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिणिंदो वा।
एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए।
सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी।।1

जिस जीवन के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नितरूप से जाना है; उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से, वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्दग्र कौन टालने में समर्थ है? अर्थात् उसे कोई नहीं टाल सकता है।

इसप्रकर निश्चय से जो द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है; ओर जो इसमें शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।’’

जहां एक अेर धर्मभावना को इतना विस्तार दिया गया है तो दूसरी ओर अनेक कवियों ने इसे एक-एक छनद में भी समेट लिया है, जिनमें अधिकांशतः तो धर्मै की महिमा बताकर धर्म धारण करने की पावन प्रेरणा ही दी गई है; अनेकों में धर्म के स्वरूप को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। कविवर भूधरदास ने धर्म की महिमा बडे ही मार्मिक ढंग से व्यक्त की हे, जो इसप्रकार है -

’’जांचे सुरतरू देय सुख, चिन्तन चिन्ता रैन।
बिन जाँचे बिना चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन।।1

कल्पवृक्ष संकल्प करने पर अथवा मांगने पर तथा चिन्तामणि रत्न चिन्तवन करने पर फल देता है; किंतु धर्म से बिना मांगे व बिना चिन्तवन के ही उत्तम फल की प्राप्ति होती है।’’

कहां एक ओर दीनतापूर्वक मांगने पर तुच्छगसामग्रीप्रदान करनेवाला कल्पवृक्ष और कहां बिना मांगे ही उद्भुत अतीन्द्रिय आनन्द देनेवाला धर्म? इसीप्रकार कहां चिनता करने पर चिन्तित मनोरथ को पूर्ण करनेवाला चिन्तामणि रत्न और कहां बिना चिन्तवन के ही अत्यि आनन्द देनेवाला महान धर्म?

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