।। धर्मभावना ।।
jain temple124

संसार में पडे हुए प्राणियों को संसारदुःखों से निकाल कर नरेन्द्र, नागेन्द्र और देवेन्दों द्वारा वंदीनय मोक्षपद में जो धारण करा दे, वही धर्म है। यहां ’धर्म’ शब्द से निश्चय से जीव के शुद्ध परिणाम ही ग्रहण करना चाहिए। उन शुद्ध परिणामें में वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रतिपादित नयविभाग से सभी धर्म परिणामों में वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रतिपादित नयविभाग से सभी धर्म अन्तर्भूत हो जते हैं। अहिंसा धर्म भी जीव के शुद्ध भावों के बिना संभव नहीं है। इसीप्रकारगृहस्थ और मुनिधर्म तथा उत्तमक्षमादि दशधर्म भी जीव के शुद्ध स्वभावों की अपेक्षा रखते हैं। ’धर्म के यह लक्षण भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही है तथा राग-द्वेष-मोह रहित आत्मा का परिणामस्वरूप धर्म भी जीव का षुद्धस्वभाव ही है। इसीप्रकार वस्तु का स्वभाव धर्म है - यह कथन भी जीवन के शुद्धस्वभावरूप धर्म को ही बताता है।’’

उक्त सम्पूर्ण कथन से यह बात हाथ पर रखे आंवले के समान स्पष्ट हो जाती है कि आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निर्मलपरिणाम - शुद्धभाव ही वास्तविक धर्म है। विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न स्थानों पर विभिन्न अपेक्षाओं से की गई धर्म की व्याख्याएं विभिन्न प्रकार से जीव के स्वभावभावरूप शुद्धपरिणामों को ही धर्म निरूपति करती हैं, उनमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं है।

द्रव्यस्वभावप्रकाशन नयचक्र में धर्म को शुद्धभाव, वीतरागता आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया हे। धर्म के नामान्तर बताते हुए द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्रकार माइल्लधवल लिखते हैं।

’’समदा तह मज्झत्थं सुद्धों भावों य वीयरायत्तं।
तह चरित्तं धम्मो सहाव आराहणा भणिया।।357।।

समता, माध्यस्थ्यभाव, शुद्ध, वीतरागता, चारित्र औरस्वभ्व की आराधना - इन सबको धर्म कहा जाता है।

विष्वविख्यात समस्त दर्शनों में जैनदश्रन ही एक ऐसा दर्शन है, जो निज भगवानआत्मा की आराधना को धर्म कहता है; स्वयं के दर्शन को सम्यग्दर्शन, स्वयं के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और स्वयं के ध्यान को सम्यकचारित्र कहकर इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र को ही वास्तवक धर्म घोषित करता है। ईश्वर की गुलामी से भी मुक्त करनेवाला अनन्त स्वतंत्रता का उद्घोषक यहदर्शन प्रत्येक आत्मा को सर्वप्रभुतासम्पन्न परमात्मा घोषित करता है और उस परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी स्वावलम्ब्न को ही बतातता हैं

यद्यपि प्रतयेक आत्मा स्वभाव से स्चंय परमात्मा ही है; तथापि यह अपने परमात्मस्वभाव को भूलकर स्वयं पामर बन रहा है। पर्यायगत पामरता को समाप्त कर स्वभावगत प्रभुता को पर्याय में प्रगट करने क एकमात्र उपाय पर्याय में स्वभावगत प्रभता की स्वीकृति ही है, अनुभूति ही है। स्वभावगत प्रभुता की पर्याय में स्वीकृति एवं स्वभावसन्मुख होकर पर्याय की स्वभाव में स्थिरता ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, धर्मभावना है।

पर्याय की पामरता के नाश का उपाय पर्याय की पामरता का चिन्तन नहीं, स्वभाव के सामथ्र्य का श्रद्धान है, ज्ञान है। स्व-स्वभाव के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान का नाम ही धर्म है; धर्म की साधना है, आराधना है, उपासना है, धर्म की भावना है, धर्मभावना है।

निज भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली यह धर्मभावना, धर्मरूपपर्याय निज भगवान आत्म का ही वरण करे, निज भगवान आत्मा का ही शरण ग्रहण करे ओर सम्पूर्ण जगत धर्ममय हो जाय, शर्ममय (सुखमय) हो जाय - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।

4
3
2
1