।। संवरभावना ।।
देहदेवल में रहे पर देह से जो भिन्न है।
है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी अन्य है।।
गुणभेद से भी भिन्न है पर्याय से भी पार है।
जो साधकों की साधना का एक ही आधार है।।1।।

यह भगवान आत्मा यद्यपि देहरूपी मंदिर में रहता है, पर देह से भिनन ही है। इसीप्रकार रागादि विकारीभाव इसमें ही उत्पन्न होते हैं, पर यह उनसे भी भिन्न है। अधिक क्या कहें? अनन्त गुणवाला होने पर भी आत्मा गुणभेद से भिन्न एवं निर्मल पर्यायों से भी पार है। साधकों की साधना का एकमात्र आधार भी यही शुद्धत्मा है।

मैं हूँ वही शुद्धात्मा चैतन्य का मार्तण्ड हूँ।
आनन्द का रसकन्द हूँ मैं ज्ञान का घनपिण्ड हूँ।।
मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।2।।

ऐसा शुद्धात्मा और कोइ नहीं, मैं ही हूँ। चैतन्यरूपी सूर्य, आनन्द का कन्द और ज्ञान का घनपिण्ड आत्मा मैं ही हूँ। मैं ही ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय, परमज्ञान का ज्ञेय हूँ। मात्र ज्ञेय ही नहीं, ज्ञान भी मैं ही हूँ। बस, मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ। अधिक क्या हूँ? मैं स्वयं भगवान हूँ।

यह जानना पहिचानना ही ज्ञान है श्रद्धान है।
केवल स्वयं की साधना आराधना ही ध्यान है।।
यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना।
बस यही संवरतत्व है, बस यही संवरभावना।।3।।

यह जानना ही सम्यग्ज्ञान है, यह पहिचानना ही सम्यग्दर्शन है और मात्र अपनी साधना अपनी आराधना ही सम्यक्चरित्र है, ध्यान है।

यह ज्ञान-श्रद्धान एवं यही साधना-आराधना ही संवरतत्व है और यही संवरभावना भी है।

इस सत्य को पहिचानते वे ही विवेकी धन्य हैं।
ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है।।
शुद्धातमा को जानना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।4।।

जो जीव इस सत्य को जानते हैं, पहिचानते है; वे ही विवेकी है, वे ही धन्य है क्योंकि धु्रवधाम निज भगवान के आराधकों की बात ही कुछ और होती है, गजब की होती है, संवरभावना का सार शुद्धात्मा को जानना ही है और धु्रवधाम निज भगवान की आराधना ही आराधना का सार है।

संवरभावना: एक अनुशीलन

मैं ध्यये हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।
यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना।
बस यही संवरतत्व है बस यही संवरभावना।।

’’आस्त्रव का निरोध संवर है। वह संवर तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बाहर भावना, बाईस परीषहजय और पांच प्रकार के चारित्र से होता है।1’’

महाशास्त्र तत्वार्थसूत्र के उक्त कथन से एक बात अत्यन्त स्पष्ट है कि संवरभावना और संवरतत्व के कारण-कार्य का सम्बंध है; क्योंकि उक्त कथन में बारह भावनाओं को संवर के कारणों में गिनाया गा है और संवरभावना भी बारह भावनाओं में एक भावना है।

इसप्रकार यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है कि संवरभावना कारण है और संवरतत्व कार्य है।

यदि कारा-कार्य को अभेदद1ष्टि से देखें तो संवरभाव और सवंवरतत्व एक ही सिद्ध होते हैं।

यह संवरभावना सम्बंधी उपलब्ध समग्र चिन्तन पर दृष्टि डालते हैं तो अधिकांशतः यही दिखाई देता है कि संवरभावना में संवर और उसके कारणों का चिन्तन बिना भेदभाव किए समग्ररूप से ही हुआ है।

इस संदर्भ में सवंरभावना सम्बंधी निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -

’’निज स्वरूप में लीनता, निश्चयसंवर जानि।
समिति गुप्ति संजम धरम, धरैं पाप की हानि।।1

निश्चयसंवरभावना तो निजस्वरूप में लीनता ही हैं व्यवहार से पापानिरोधक गुप्ति, समिति, धर्म, संयमादि को भी संवरभावना कहते हैं।

ज्ञान-विराग विचार के, गोपै मन-वच-काय।
थिर ह्वै अपने आप में, सो संवर सुखदाय।।2

ज्ञान और वैरागयपरक चिन्तनपूर्वक अपने उपयोग को मन-वचन-काय से हटकार जो अपने आप में स्थिर होते हैं, उनके संवर या संवरभावना होती है।

गुप्ति समिति वर धर्म धर, अनुप्रेक्षा चित चेत।
परिषहजय चारित्र लहि, यह छह संवर हेत।।
है संवर सुखमय महा, जहँ ’जग’ अध नहिं लेश।
गुप्ति समिति धर्मादि तैं, करें न करम प्रवेश।।3

श्रेष्ठ गुप्ति, समिति और धर्म के धारण करने से, अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन से परिषहजय और चारित्र से संवर होता है अर्थात ये छह संवर के कारण हैं।

यह संवर महासुखमय है। गुप्ति, समिति व धर्मादिमय होने से इसमें कर्म का प्रवेश एवं पाप लेश भी नहीं है।’’

उक्त छन्दों में संवरभावना का जो चिन्तन किया गया है; उसमें चाहे नाममात्र को ही सही, पर संवर के हेतुओं को भी गिनाया गया है तथा संवरभावना के स्वरूप को भी निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। संवर और संवरभावना में भेद न करके संवरभावना को भी ’संवर’ शब्द से ही अभिहित किया गया हे। ’निश्चय संवर जानि’ और ’सो संवर सुखदाय’ पदों से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उक्त छन्दों में संवर को ’सुखमय’ और ’सुखदाय’ कहा गया है

ध्यान रहे आस्त्रव का निरोध संवर है। तात्पर्य यह है कि संवर आस्त्रव की अभावपूर्ण उत्पन्न होने वाली स्थिति है, दशा है, पर्याय है। - यह बात आरम्भ में ही स्पष्ट हो चुकी है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि आस्त्रव और संवर परस्पर विरोधी भाव है; क्योंकि आस्त्रव दुःखमय और संवर सुखमय, आस्त्रव दुःखदायक अर्थात् दुःख का कारण्या है और संवर सुखदायक अर्थात सुख का कारण है। इस कारण संवर आस्त्रव का प्रतिद्वन्द्वी है, निषेधक है; उसका अभाव करके उत्पन्न होनेवाला पराक्रमी सज्जनोत्म यो; है, अनन्त आनन्ददायक है, वन्दनीय है, अभिनन्दनीय है। संवर का वेष धारण किये सम्यग्ज्ञान की वन्दना करते हुए पण्डित बनारसीदासजी लिखते हैं -

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