।। संवरभावना ।।
’’आतम कौ अहित रहित ऐसो,
आस्त्रव महातम अखण्ड अंडवत है।
ब्रह्मंड कौ विकास ब्रहमंडवत है।।
जामैं सब रूप जे सब में सब रूप सौं पै,
सबनि सौं अलिप्त आकास-खंडवत है।
सोहै ग्यानभान सुद्ध संवर कौ भेस धरै,
ताकी रूचि-रेख कौं हमारी दण्डवत है।।1

अध्यात्म (आत्मज्ञान) से रहित, आत्मा का अहित करनेवाला आस्त्रवभाव महा अन्धकार अखण्ड अण्डे के समान जगत को घेरे हुए हैं। उसके विस्तार को समाप्त करने के लिए या सीमित करने के लिए जग-विकासी सूर्य के समान जिसका प्रकाश है और जिसमें सब पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं अथवा वह स्वयं उन सब पदार्थों के आकाररूप होता है, फिर भी आकाश के प्रदेशों के समान उनसे अलिप्त रहता है। शुद्ध संवर का वेश धारण किए वह ज्ञानरूपी सूर्य शोभायमान हो रहा है, उसकी प्रभा को हमारा अष्टांग नमस्कार (दण्डवत) है।’’

jain temple106

यहां एक प्रश्न संभव है कि आस्त्रवभावना के निरूपण में आस्त्रव को दुःखरूप और दुःख का कारण बताया गया था ओर उसके विरूद्ध आत्मा को सुखरूप और सुख का कारण बताया था; पर यहाँ आस्त्रव के विरूद्ध संवर को सुखरूप और सुख का कारण बताया जा रहा है।

आत्मा स्वभाव से ही सुखरूप है और उसके आस्त्रव से सुख की उत्पति होती है; अतः वह सुख का कारण भी है। - आस्त्रवभावना में यह बताया गया था औरयहां यह बता रहे हैं कि सुखस्वभावी आत्मा के आश्रय से मोह-राग-द्वेष का अभाव होकर जो अनाकुल आनन्द उत्पन्न होता है, वही संवर है; अतः संवर सुखरूप है तथा मोह-राग-देष के अभावरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन ही संवर है। यह दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन मोक्षमार्ग होने से सुख का कारण भी है।

आस्त्रवभावना में मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभावों के विरूद्ध, मोह-राग-द्वेष परिणामों से भिन्न आत्मस्वभाव की त्रिकाली सुखमयता और सुखकारणता की बात थी और यहां संवारभावना में मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभावों के विरूद्ध उनके अभावपूर्ण उत्पन्न होनेवाले वीतरांगभावरूप संवर की सुखरूपता और सुखकारणता की बात है।

संवर की सुखरूपता सुखकरणता व्यक्त है, मोक्षमार्गरूप है और त्रिकाली आत्मा की सुखरूपता और सुखकारणता शक्तिरूप है।

प्रश्न: जब संवर की उपलब्ध चिंतन में अधिकांश चिंतन संवरतत्व ओर संवरभावना को एक मानकर ही हुआ है तो फिर दोनों को एक ही क्यों न मान लिया जाए?

उत्तर: यह ठीक नहीं है; क्योंकि इससे संवारभावना के चिन्तन की विषयवस्तु का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जायगा, उसकी सीमा में समग्र मोक्षमार्ग ही समाहित हो जायगा।

ध्यान रहे संवरभावना संवर के अनेक कारणों में से मात्र एक कारण है।

संवरतत्व के विश्लेषण में सवर के सभी कारणों पर विस्तृत प्रकाश डाला जा सकता है, जैसाकि तत्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है; पर संवरभावना में उन सबकी विस्तृत चर्चा करना निश्चितरूप से सीमा का उल्लंघन होगा।

संवर के कारणों में तीन गुप्ति, पांच समिति, दश, धर्म, बारह भावनाएं, बाईस परीषहजय एवं पांच प्रकार का चारित्र अभी आ जाते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान भी संवर के कारण या संवररूप ही हैं।

इस प्रकार संवर की चर्चा में सम्पूर्ण मुक्ति का मार्ग ही समाहित हो जाता है; पर क्या संवरभावना में सभी का चिन्तन समाहित है?

नहीं, कदापि नहीं; संवरभावना के चिन्तन की अपनी सीमाएं हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो फिर मुक्तिमार्ग सम्बंधी सम्पूर्ण चिन्तन एक संवरभावना में ही समाहित हो जायेगा। ध्यान रहे संवर के कारणों में गुप्ति, समिति, धर्म आदि के साथ बारह भावनाएं भी हैं। इस प्रकार तो संवरभावना में ही शेष ग्यारह भावनाएं भी गर्भित हो जावेंगी, उनका पृथक अस्तित्व ही संभव न होगा, जो किसी भी स्थिति में उचित नहीं होगा।

इसप्रकार यह स्पष्ट है कि संवरभावना के चिनतन में संवर के कारणों के विस्तार में जाना अभीष्ट नहीं है, उनका संक्षिप्तोल्लेख ही पर्याप्त है।

इसीप्रकार की प्रवृति उपलब्ध बारह भावना साहित्य में देखने में भी आती है।

संवरभावना की चिनतनप्रक्रिया में भेदविज्ञान और आत्मानुभूति की मुख्यता है; गुप्ति, समिति आदि भेद-प्रभेदों के विसतार में जाने की नहीं। जैसा कि निम्नांकित उल्लेखों से स्पष्ट है -

’’जिन पुण्य-पाप नहीं कीना, आतम अनुभव चित दीना।
तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके।।1

द्रव्यस्त्राव व भावस्त्राव के अभावपूर्वक जिन्होंने द्रव्य संवर व भाव संवर प्राप्त किया है; उन्हीं ने सुख देखा है अर्थात् सुख प्रापत किया है।’’

उक्त छनद में आत्मानुभव को ही संवर कहा गया है। आत्मानुभव या आत्मानुभव की भावना ही वास्तविक संवरभावना है। आत्मानुभव भेदविज्ञानपूर्वक होता है; अतः आत्मानुभव के साथ भेदविज्ञान की भावना भी संवरभावना में भरपूर की जाती है और विशेषरूप से की जानी चाहिए।

आचार्य अमृतचन्द्र तो यहां तक कहते हैं -

’’संपद्यते संवर एष साक्षाच्छुत्मतत्वस्य किलोपलम्भात्।
स भेदविज्ञानत एव तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम्।।1

शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि से ही साक्षात् संवर होती है और शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि भेदविज्ञान से ही होती है; इसलिए वह भेदविज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है - भावना करने योग्य है।’’

और भी देखिए -

’’भेदविज्ञानतः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो वद्धा ये किल केचल।।2

आजतक जितने भी जीव सिद्ध दशा को प्राप्त हुए हैं, वे सब भेद-विज्ञान से ही हुए हैं और जो जीव संसार में बंधे हैं, कर्मों से बंधे हैं; वे सब इस भेदविज्ञान के अभाव से ही बंधे हुए है।’’

संवर की महिमा बताते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबडा लिखते हैं -

’’भेदविज्ञान कला प्रगटै, तब शुद्धस्वभाव लहै अपना ही।
राग-द्वेष-विमोह सबहि गल जाँय इमै दुठ कर्म रूकाहीं।।
उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातम माहीं।
यों मुनिराज भली विधि धारतु केवल पाय सुखी शिव जाहीं।।3
3
2
1