।। अन्यत्वभावना ।।
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जिसप्रकार दूध तो दूध है और पानी पानी, दूध कभी पानी नहीं हो सकता और न पानी दूध। दूध में पानी मिला देने से न तो दूध पानी हो जाता है और न पानी दूध; मिल जाने पर भी दूध दूध रहता है और पानी पानी। वस्तुतः वे मिलते ही नहीं, मात्र मिले दिखते हैं; क्योंकि किसी अन्य में मिलना उनका स्वभाव ही नहीं है। किसी में मिलने में स्वयं को मिटा देना होता है और कोई वस्तु स्वयं को कभी मिटा नहीं सकती है। वस्तु ही उसे कहते हैं; जो कभी मिटे नहीं, सदा सत्रूप ही रहे। अतः कोई वस्तु कभी किसी में मिलती नहीं, मात्र मिली कही जाती है। यही कारण है कि दूध भी पानी में कभी मिलता नहीं, संयोग देखकर मा. मिला कहा जाता है।

उसीप्रकार जीव जीव है और देह देह; जीव कभी देह नहीं हो सकता है और न देह जीव। जीव और देह एकक्षेत्रावगाह हो जाने पर भी न तो जीव देह हो जाता है और न देह जीव; संयोगदिशा में भी जीव जीव रहता है और देह देह। वस्तुतः वे मिलते ही नहीं, मात्र मिले दिखते हैं; क्योंकि किसी में मिलना उनका स्वभाव ही नहीं है। किसी में मिलने में स्वयं को मिटा देना पड़ता है और कोई वस्तु स्वयं को कभी मिटा नहीं सकती है। वस्तु ही उसे कहते हैं, जो कभी मिटे नहीं, सदा सत्रूप ही रहे। अतः कोई वस्तु किसी में कभी मिलती नहीं, मात्र मिली कही जाती है। यही कारण है कि जीव में देह कभी मिलती नहीं, एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग देखकर मात्र मिले कहे जाते हैं, हैं तो वे परस्पर अत्यंत भिन्न-भिन्न ही।

इस सतय के गहरे मंथन का नाम ही अन्यत्वभावना है। इसी की सम्यक् जानकारी के लिए कहा गया है-

‘जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।‘

विभिन्न संयोगों के मेले में खोये निज शुद्धात्मतत्त्व को खोजना, पहिचानना, पाना, उसे सबसे भिन्न निराला जानना, उसका ही सदा चिंतन करना, उसकी ही भावना भाना, उसी का ध्यान करना, उसी में जमना-रमना, उसी में लीन हो जाना, विलीन हो जाना, उसी में सम्पूर्णतः समा जाना ही अन्यत्वभावना के चिंतन का मूल प्रयोजन है; क्योंकि इस भवसागर से पार होने का-संसरणरूप संसारदुःखों से छूटने का एकमात्र यही उपाय है, समस्त शास्त्रों का यही सार है।

आचार्य योगीन्दुदेव भी यही प्रेरणा देते हैं -

‘‘पुग्गलु अण्णु जि अण्ण जिउ, अणु वि सहु ववहारु।
चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ, लहु पावहि भवपारु।।

पुद्गल अन्य है, जीव अन्य है, अन्य सब व्यवहार भी अन्य है; अतः हे आत्मन्! तू पुद्गल को छोड़ और अपने आत्मा को ग्रहण कर, इससे तू शीघ्र ही संसार से पार होगा।

जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ, असुइ-सरीर-विभिण्णु।
जो जाणइ सत्थई सयल, सासय-सुक्खहँ लीणु।।

जो जीव अशुचि शरीर से भिन्न शुद्ध आत्मा को जानता है, शाश्वत सुख में लीन वह आत्मा समस्त शास्त्रों को जान जाता है। भावार्थ यह है कि जिसने समस्त शास्त्रों के सारभूत निज शुद्धात्मतत्त्व को जान लिया और उसी में लीन हो गया, मूल प्रयोजन सिद्ध हो जाने से उसने एक प्रकार से समस्त शास्त्रों को ही जान लिया है।‘‘

आत्मोपलब्धि की विधि में शरीरादि संयोगी परपदार्थों से भिन्नत्व की भावना का क्या स्थान है, क्या महत्त्व है, क्या क्रम है? - यह बात कविवर पंडित बनारसीदास के निम्नांकित छंद में अत्यंत स्पष्टरूप से मुखरित हुई है -

‘‘प्रथम सुद्रिष्टि सौं सरीररूप कीजै भिन्न,
तामैं और सूच्छम सरीर भिन्न मानिये।
अष्ट कर्म भाव की उपाधिक सोऊ कीजै भिन्न,
ताहू मैं सुबुद्धिकौ विलास भिन्न जानिये।।
तामैं प्रभु चेतन विराजत अखंडरूप,
वहै श्रुतग्यान के प्रवांन उर आनिये।
वाही कौ विचार करि वाही मैं मगन हूजै,
वाकौ पद साधिबे कौं ऐसी विधि ठानिये।।
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सर्वप्रथम सुतीक्ष्ण दृष्टि से आत्मा को औदारिकादि स्थूल शरीरों से भिन्न जानना चाहिए, फिर तैजस-कार्माण सूक्ष्म शरीरों से भी भिन्न जानना-मानना चाहिए। तदनंतर अष्ट कर्मों के उदय से होनेवाले जीव के मोह-राग-द्वेषरूप औपाधिकभावों अर्थात् भावकर्मों से भिन्न जानना चाहिए।

- इसप्रकार नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म से अथवा वर्णादि और रागादिभावों से आत्मा को भिन्न जानने के बाद सुबुद्धि के विलास अर्थात् इन भेदविज्ञान संबंधी विकल्पों से भी भिन्न ज्ञानानंदस्वभावी त्रिकाली ध्रुव निज परमात्मतत्त्व को पहिचानना चाहिए।

इन देहादिरूप मंदिर में अखंडरूप निज चेतनप्रभु विराजमान है। सम्यक् श्रुतज्ञान प्रमाण से प्रमाणित अर्थात् जाने गये उस चेतनप्रभु को ही हृदय में धारण करना चाहिए, उसी का विचार करना चाहिए, चिंतन करना चाहिए, उसी में ही मगर हो जाना चाहिए, लीन हो जाना चाहिए; उस चेतनप्रभु की साधना की-आराधना का यही विधि है, ऐसी ही विधि है।‘‘

उक्त छंद में आत्मसाधना की विधि का व्यवस्थित क्रम से विवेचन किया गया है, साधक के लिए प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन दिया गया है। छंद की अंतिम पंक्ति में स्पष्ट कहा गया है कि आत्मा के पामपद को साधने के लिए इसप्रकार की विधि अपनाना चाहिए।

पर से भिन्नता का ज्ञान ही भेदविज्ञान है और पर से भिन्न निज चेतन भगवान का जानना, मानना, अनुभव करना ही आत्मानुभूति है, आत्मसाधना है, आत्माराधना है। सम्पूर्ण जिनागम और जिन-अध्यात्म का सार इसी में समाहित है। अन्यत्वभावना के चिंतन ही चरम परिणति भी यही है।

अनादिकाल से यह आत्मा पर को अपना मानकर उसी में रच-पच रहा है; इसीकारण चार गति और चैरासीलाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ अनंत दुःख भी भोग रहा है। पर से एकत्व और ममत्व के कारण ही अपने को सही रूप में जान भी नहीं पा रहा है, पहिचान भी नहीं पा रहा है। पर से एकत्व और ममत्व तोड़ने के लिए पर से अत्यत्व का चिंतन जिस गहराई से होना चाहिए; जबतक उस गहराई से नहीं किया जायेगा, तबतक पर के प्रति होनेवाले एकत्व और ममत्व को नहीं तोड़ा जा सकता है, इसके लिए सतत् प्रयास अत्यंत आवश्यक है।

पर से एकत्व और ममत्व तोड़ने का एकमात्र उपाय प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्र सत्ता का सम्यक् बोध ही है। अपनी सीमा में सर्वप्रभुतासंपन्न किसी भी वस्तु को अन्यवस्तु का मानना-जानना महामोह है, महा-अज्ञान है, मिथ्यात्व नामक महापाप है।

इस महापाप से बचने का एकमात्र यही उपाय है कि हम वस्तु की स्वतंत्रता का अविराम चिंतन करें, मनन करें। निरंतर चलनेवाली यह चिंतनप्रक्रिया ही अन्यत्वभावना है।

इस संदर्भ में पंडितप्रवर जयचंदजी छाबड़ा हमारा मार्गदर्शन इसप्रकार करते हैं -

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