।। अन्यत्वभावना ।।
‘‘अपने-अपने सत्त्व कूँ, सर्व वस्तु विलसाय।
ऐसे चितवै जीव तब, परतैं ममत न थाय।।

‘प्रत्येक वस्तु स्वतंत्ररूप से अपनी-अपनी सत्ता में विलास कर रही है, किसी का किसी में कोई हस्तक्षेप नहीं है; क्योंकि वे वस्तुएँ सम्पूर्णतः भिन्न-भिन्न है‘ - जब जीव इसप्रकार का चिंतवन करता है, तब उसके परपदार्थों से ममत्व उत्पन्न नहीं होता।‘‘

‘संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, साथ नहीं देते, हमसे अत्यंत भिन्न है‘ - यह सब जान लिया, अच्छी तरह जान लिया; अब क्या करें? बस इनका ही विचार, इनका ही चिंतन; कब तक चलेगा यह सब और क्या होगा इससे?

कुछ नहीं, मात्र इतने से कुछ नहीं होगा। यह तो मात्र विकल्पात्मक प्रारंभ है, इससे तो मात्र जमीन तैयार होती है, बीज तो अब डालना है। बीज डाले बिना तैयार जमीन भी कुछ फल नहीं दे सकती; पर ध्यान रहे पत्थर पर पड़ा बीज भी अंकुरित नहीं होता। जब वह अंकुरित ही नहीं होता तो फिर पल्लवित होने का, पूर्ण होने का, सफल होने का अवकाश ही कहाँ रहता है?

हाँ, तो संयोगों की अनित्यता, अशरणता, असारता, असंगता, पृथकता; चिंतन-मननपूर्वक भलीभाँति जान लेने पर इन्हें धारण कर लेना है, धारणा में ले लेना है, लब्धिज्ञान में डाल देना है, सुरक्षित कर देना है; इन पर से उपयोग हटा लेना है। उपयोग को इन पर से हटाकर इनसे भिन्न नित्य, परमशरणभूत, सारभूत, एक निज शुद्धात्मतत्त्व में लगाना है, लगाये रहना है। चिंतन-मनन के विकल्पों से भी विरत होकर मात्र निज को ही जानते रहना है, मात्र जानते रहना है और कुछ नहीं करना है; जानने का विकल्प भी नहीं करना है, जानना भी सहज होने देना है। कत्र्तत्व का तनाव रंचमात्र भी नहीं रखना है; बस मात्र सहज जानना, जानना, जानना होने दो। होनो तो दो घड़ी दो घड़ी इस सहज परिणमन को; इससे अंतर से अनंतवीर्य उल्लसित होगा, आनंद का सागर तरंगति हो उठेगा, देह-देवल में विराजमान देवता के प्रदेश-प्रदेश में आनंद की तरंगें उल्लसित हो उठेंगी। देह-देवल भी उसकी तरंगों से तरंगायित हो रोमांचित हो उठेगा, तेजोद्दीप्त हो उठेगा।

जब यह सब तेरे अंतर में घटित होगा, तभी पर से एकत्व और ममत्व विघटित होगा; तभी अन्यत्वभावना का चिंतन सफल होगा - सार्थक होगा।

होगा, अवश्य होगा; निराश होने की आवश्यकता नहीं, एक न एक दिन यह सब अवश्य घटित होगा। यदि अंतर की रुचि जागृत रही, विवेक कुण्ठित न हुआ, तो एक न एक दिन पर में एकत्व के, ममत्व के बादल विघटित होंगे ही, राग के तन्तु भी टूटेंगे। सम्यक् दिशा में किया गया सम्यक् पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता।

सर्वप्रभुतासम्पन्न, पर से भिन्न, निज शुद्धात्मतत्त्व को जन-जन जाने, पहिचाने; उसी में जमे, रमे और अतीन्द्रिय आनंदामृत का पान कर आनंदमग्न हों - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ।

वही सत्पुरुष है

सत्पुरुष की सच्ची पहिचान ही यही है कि जो त्रिकाली धु्रवरूप निज परमात्मा का स्वरूप बताये और उसी की शरण में जाने की प्रेरणा दे; वही सत्पुरुष है। दुनियादारी में उलझाने वाले, जगत के प्रपंच में फंसाने वाले पुरुष कितने ही सज्जन क्यों न हों, सत्पुरुष नहीं है - इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

4
3
2
1