।। संसारभावना ।।
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कदाचित् पुण्ययोग से सब संयोग जुट भी जावें तो भी क्या सुख प्राप्त हो जावेगा?

-इस पर आप कह सकते हैं कि इसका पता तो तभी चलेगा, जब सभी अनुकूल संयोग जुट जावेंगे?

नहीं, भाई! इस प्रतीक्षा में समय गवाँना समझदारी नहीं है। इसप्रकार के संयोग आज जिन्हें उपलब्ध हैं, उन्हें ही देखकर सही निर्णय पर पहुँच जाना चाहिए। यह सर्वविदित तथ्य है कि लौकिक दृष्टि से जो व्यक्ति सर्वप्रकार से सम्पन्न है, उन्हें आज बिना गोली खाए नींद नहीं आती। हमें उन चक्रवर्तियों के अनुभव से भी लाभ उठाना चाहिए, जो छह खंड पृथ्वी के अधिपति होकर भी सब-कुछ छोड़कर नग्न दिगम्बर हो गये थे।

हमें वैराग्यभावना की निम्नांकित पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए -

‘‘मैं चक्री पद पाय निरंतर भोगे भोग घनेरे।
ते भी नतक भये नहिं पूरन भोग मनोरथ मेरे।।
राज-समाज महा अघकारण बैर बढ़ावनहारा।
वेश्या सम लक्ष्मी अति चंचल याका को पतियारा।।
मोह महारिपु बैर विचर्यो जग जिय संकट डारे।
गृह कारागृह वनिता बेड़ी परिजन जन रखवारे।।
सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण तप ये जिय के हितकारी।
ये ही सार असार और सब यह चक्री चितधारी।।‘‘

इसी वैराग्यभावना में समागत संसार के स्वरूप का सजीव चित्र उपस्थित करनेवाली निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं -

‘‘सुरगति में परसम्पत्ति देखे राग-उदय दुख होई।
मानुष योनि अनेक विपतिमय सर्वसुखी नहिं कोई।।
कोई इष्ट-वियोगी बिलखै कोई अनिष्ट-संयोगी।
कोई दीन दरिद्री बिगूचे, कोई तन के रोगी।।
किस ही घर कलिहारी नारी कै बैरी सम भाई।
किस ही के दुख बाहिर दीखै किस ही उर दुचिताई।।
कोई पुत्र बिना नित झूरै होय मरै तब रोवै।
खोटी संतति सों दुख उपजै क्यों प्राणी सुख सोवै?
पुण्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता।
यह जगवास जथारथ देखे सब दीखै दुखदात।।
जो संसार विषैं सुख होता तीर्थंकर क्यों त्यागैं?
काहे को शिव-साधन करते संजम सौं अनुरागैं?‘‘

अरे भाई! जरा विचार तो करो कि यदि इस चतुर्गति-भ्रमणरूप संसार में सुख होता तो तीर्थंकर जैसे पुण्यवंत महापुरुष इसे छोड़कर क्यों चले जाते, संयम धारण कर मुक्ति प्राप्त करने का पुरुषार्थ क्यों करते?

संयोगों में सुख खोजना समय और शक्ति का अपव्यय है। जिसप्रकार कितना ही मंथन क्यों न करो, पानी में से नवनीत निकलना संभव नहीं है; कितना ही पेलो, बालू में से तेल निकलना संभव नहीं है; उसीप्रकार सुख की प्राप्ति के लिए संयोगों की शोध-खोज में किये गये सम्पूर्ण प्रयत्न निरर्थक ही हैं, उनसे सुख की प्राप्ति कभी भी सम्भव नहीं है।

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सुख की प्राप्ति के लिए तो सुख के सागर निजस्वभाव की शोध-खोज आवश्यक है, निजस्वभाव का आश्रय आवश्यक है, उसी का ज्ञान-श्रद्धान आवश्यक है, ध्यान आवश्यक है।

- इस प्रकार का चिंतन ही संसारभावना का मूल है।

जिसप्रकार संयोग न सुखस्वरूप हैं और न सुख के कारण हैं, उसीप्रकार न दुःखरूप हैं और न दुःख के कारण ही हैं; वे तो परपदार्थ हैं, निमित्तमात्र है। दुःख के मूलकारण तो संयोगीभाव हैं, संयोग क आश्रय से उत्पन्न हुए आत्मा के ही विकारीभाव हैं। संयोगीभाव-विकारीभाव ही वस्तुतः संसार हैं।

इस सन्दर्भ में निम्नांकित छंद द्रष्टव्य हैं -

‘‘परद्रव्यन तैं प्रीति जो, है संसार अबोध।
ताको फल गति चार में, भ्रमण कह्यो श्रुतशोध।।
अरु संसारभावना एह, परद्रव्यन सौं कीजे नेह।
तू चेतन ये जड़ सरवंग, तातैं तजहु परायो संग।।

वास्तव में तो परद्रव्यों के प्रति जो प्रीति का भाव है, एकत्व है, राग है, अज्ञान है; वही संसार है। शास्त्रों के शोधियों ने उसी का फल चतुर्गतिरूप भ्रमण बताया है।

परद्रव्यों से किया गया स्नेह वस्तुतः संसार है। हे आत्मन्! तू चेतन है और शरीरादि परद्रव्य सर्वांग जड़ हैं; इसलिए इनसे स्नेह छोड़ दो - इसप्रकार का चिंतन ही संसारभावना है।‘‘

उक्त दोनों छन्दों में परद्रव्यों के प्रति प्रीति - स्नेह को ही संसार कहा गया है और इस प्रीति को चतुर्गति-भ्रमण का कारण बताया गया है। चूँकि परसंग से पर के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है; इसलिए परसंग के त्याग की भी सलाह दी गई है।

इसप्रकार यह स्पष्ट है कि आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष के भाव ही संसार हैं। ये भाव परलक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होते हैं, आत्मा की ही विकारी पर्यायें हैं, आत्मा की ही दुःखरूप अवस्थाएँ हैं।

आत्मा अनादि-अनंत नित्य अविनाशी परमपदार्थ है और यह मोह-राग-द्वेषरूप संसार क्षणभंगुर अनित्य है - इस दृष्टि से ‘जीव संसार में है‘ - यह कहने की अपेक्षा ‘जीव में संसार है‘ - यह कहना अधिक उपयुक्त है।

‘जीव‘ द्रव्य है और ‘संसार‘ पर्याय। द्रव्य में पर्यायें होती हैं, पर्यायों में द्रव्य नहीं। संसार जीवद्रव्य की विकारी पर्याय है; अतः यह कहना किसी भी प्रकार असंगत नहीं है कि जीव में ही संसार है, संसार में जीव नहीं। जब यह कहा जाता है कि जीव संसार में है तो उसका तात्पर्य भी यही होता है कि जीव इस समय मोह-राग-द्वेषरूप परिणमित हो रहा है, चतुर्गति-परिभ्रमण कर रहा है।

कुछ लोग संसार शब्द का अर्थ लोक समझते हैं। लोक में संसार शब्द का प्रयोग लोक (जगत, दुनियाँ) के अर्थ में होता भी है; पर संसार-भावना के सन्दर्भ में संसार का अर्थ लोक, दुनियाँ, जगत किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं है; क्योंकि बारह भावनाओं में संसारभावना के समान लोक भी एक भावना है। लोक और संसार भिन्न-भिन्न भावनाएँ हैं। संसार तीसरी भावना है और लोक दशवीं।

दोनों में बिन्दु और सिंधु का अंतर हैं। संसार बिन्दु है तो लोक सिन्धु। संसार जीव की विकारी पर्याय मात्र है और लोक छह द्रव्यों के समूह को कहते हैं। छह द्रव्यों में अनंत जीव, अनंतानंत पुद्गल, असंख्य कालाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य - ये सभी अनंतानंत द्रव्य समाहित हो जाते हैं।

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