।। संसारभावना ।।
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कहाँ अनादि-अनंत षट्द्रव्यमयी लोक और कहाँ मोह-राग-द्वेषरूप दुःखस्वरूप जीव की क्षणभंगुर विकारी पर्यायरूप संसार?

लोक मात्र ज्ञेय है, पर संसार हेय भी है। षट्द्रव्यमयी लोक को मात्र जानना है, पर संसार का तो अभाव भी करना है। जिनागम का समस्त उपदेश भव (संसार) के अभाव के लिए ही है। इन बारह भावनाओं का चिंतन भी चतुर्गति-भ्रमणरूप संसार से विरक्ति उत्पन्न कर मोह-राग-द्वेषरूप संसार का अभाव करने के लिए ही किया जाता है।

इन दोनों की चिंतन-प्रक्रिया में भी अंतर है। लोकभावना का विस्तार षट्द्रव्यों के स्वरूपादि के विवेचनपरक भी हो सकता है ओर त्रिलोक के आकार-प्रकार के व्याख्यानरूप भी। जिसप्रकार संस्थानविचय नामक धर्मध्यान में लोक का भौगोलिक चिंतन होता है; उसीप्रकार लोकभावना में भी हो सकता है। संसारभावना में संयोगों की निरर्थकता एवं संयोगीभावों की दुःखरूपता का चिंतन किया जाता है।

यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि लोकभावना में भी स्वर्ग-नरक का वर्णन पाया जाता है और संसारभावना में भी नरकादि गतियों की चर्चा होती है?

हाँ, होती है; पर दोनों के दृष्टिकोण एवं विवेचनपद्धति में अंतर होता है। लोकभावना में अधोलोक, मध्यलोक और उध्र्वलोकक की रचना का स्वरूप बताया जाता है और संसारभावना मे तीन लोक का नहीं, चार गतियों और उनमें होनेवाले दुःखों का वर्णन किया जाता है। चूँकि चारों गतियों के जीव तीन लोकों में ही रहते हैं; अतः जिन लोगों को संसार और लोकभावना की चिंतन-प्रक्रिया का सम्यक् बोध नहीं है, उन्हें दोनों की एकतारूप भ्रम हो जाना असम्भव नहीं है।

लोकभावना की विषयवस्तु का विस्तृत विवेचन यथासमय किया जायेगा। यहाँ तो अभी संसारभावना का अनुशीलन चल रहा है।

संसारभावना की सीमा संयोग और संयोगीभावों तक ही है। संयोगों की निरर्थकता और संयोगीभावों की दुःखरूपता का चिंतन ही संसारभावना की मर्यादा है। चूँकि चतुर्गति भी संयोगरूप ही हैं या फिर जीव के भावों की अपेक्षा संयोगीभावरूप हैं; अतः संसारभावना में उनका वर्णन सहज ही आ जाता है।

यहाँ एक प्रश्न यह भी सम्भव है कि संयोगों की चर्चा तो अनित्य-अशरणभावनाओं में भरपूर आ चुकी है; अतः संसारभावना में भी उसी के बारे में सोचते रहना कहाँ तक उचित है?

भाई! अनित्य और अशरणभावना की चिंतन-प्रक्रिया से संसारभावना की चिंतन-प्रक्रिया भिन्न है। बारह भावनाओं में मूलभूत अंतर परस्पर चिंतन-प्रक्रिया का ही है। उसे समझे बिना इसीप्रकार के और भी अनेकों प्रश्न उठ सकते हैं।

भाई! अनित्य और अशरणभावना की चिंतन-प्रक्रिया से संसारभावना की चिंतन-प्रक्रिया भिन्न है। बारह भावनाओं में मूलभूत अन्तर परस्पर चिंतन-प्रक्रिया का ही है। उसे समझे बिना इसीप्रकार के और भी अनेकों प्रश्न उठ सकते हैं।

अनित्यभावना में संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता एवं संसारभावना में उन्हीं संयोगों की निरर्थकता बताई जाती है।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि इन भावनाओं की चिंतन-प्रक्रिया में क्रमिक विकास है। बारह भावनाओं के चिंतन का एकमात्र उद्देश्य दृष्टि को संयोगों पर से हटाकर स्वभाव की ओर ले जाना है; क्योंकि संयोगीभावरूप संसार की उत्पत्ति-वृद्धि संयोगाधीन दृष्टि का ही परिणाम है। जबतक इस जीव की दृष्टि संयोगों पर रहेगी, तबतक मोह-राग-द्वेषरूप संयोगीभाव उत्पन्न होते ही रहेंगे। मोह-राग-द्वेष भाव के अतिरिक्त और संसार है ही क्या? इसप्रकार यह सिद्ध है कि संयोगाधीन दृष्टि ही संसार का कारण है।

यदि हमें भवदुःख से बचना है तो संयोगाधीन दृष्टि का त्याग करना ही होगा। बारह भावनाओं की चिंतन-प्रक्रिया भी इसी दृष्टि से पल्लवित हुई है।

जिसप्रकार अनित्यभावना में संयोगों की अनित्यता के साथ-साथ स्वभाव की नित्यता का भी चिंतन किया जाता है, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता के साथ-साथ स्वभाव की शरणभूतता का भी चिंतन किया जाता है; उसीप्रकार संसारभावना में भी संयोगों की असारता के साथ-साथ स्वभाव की सारभूतता का भी भरपूर चिंतन किया जाता है।

इस सन्दर्भ में कविवर बुधजनकृत छहढाला में समागत संसारभावना सम्बंधी निम्नांकित छंद द्रष्टव्य है-

‘‘यह संसार असार महान, सार आप में आपा जान।
सुखतैं दुख दुखतैं सुख होय, समता चारों गति नहिं कोय।।

यह संसार महाअसार है, अपनी आत्मा ही महान है, सार है। इस चतुर्गति-भ्रमणरूप संसार में क्रमशः सांसारिक सुख से दुःख और दुःख से सांसारिक सुख तो होते ही रहते हैं, पर चारों ही गतियों में समतारूपी असली सुख कहीं भी नहीं है।

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उक्त छंद में संसार को असार और आत्मा को सारभूत बताया गया है।

यहाँ एक प्रश्न संभव है कि उक्त छंद में संसार में दुःख के साथ सुख होना भी बताया गया है; जबकि पंडित दौलतरामजी द्वारा रचित छहढाला में साफ-साफ लिखा है-

‘‘सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा।‘‘

हाँ भाई! लिखा तो है; पर वहाँ समतारूपी सुख की बात है, समतारूपी सुख अर्थात् वास्तविक सुख तो संसार में रंचमात्र भी नहीं है। जरा ध्यान से देखो! यह बात तो बुधजनजी ने भी स्पष्टरूप से स्वीकार की है कि -‘समता चारों गति नहिं कोय।‘ उन्होंने संसार में जिस सुख को स्वीकार किया है; वह तो पुण्योदय में प्राप्त होनेवाले विषयसुख की बात है, वह तो कहने मात्र का सुख है। वस्तुतः तो वह सुख है ही नहीं, दुःख ही है।

बात यह है कि लोक में अतीन्द्रिय आनंद के साथ विषयभोग को भी तो सुख ही कहा जाता है; अतः इस बात की सावधानी रखना अत्यंत आवश्यक है कि सुख शब्द का प्रयोग कहाँ किस अर्थ में हुआ है।

संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणता एवं निरर्थकता का भान हुए बिना दृष्टि संयोगों पर से नहीं हटेगी; इसीप्रकार स्वभाव की महिमा आए बिना दृष्टि स्वभावसन्मुख नहीं होगी। ध्यान रहे दृष्टि के स्वभावसन्मुख होने से ही सम्यग्दर्शनादि स्वभावभावों (मोक्षमार्ग) की उत्पत्ति और वृद्धि होती है।

संसारदुःखों से मुक्त होने के लिए मुक्ति के मार्ग का पथिक होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। स्वभावसन्मुखता के अतिरिक्त और कोई मुक्ति का मार्ग नहीं है; क्योंकि दृष्टि के संयोगविमुख और स्वभावसन्मुख होते ही स्वभाव के साधन संवर-निर्जरा की उत्पत्ति होकर वृद्धि आरंभ हो जाती है और कालांतर मंे यही संवर-निर्जरारूप स्वभाव के साधन वृद्धि को प्राप्त होते हुए मोक्षस्वरूप सिद्धत्व में परिणमित हो जाते हैं।

सिद्धत्व की प्राप्तिरूप पावन उद्देश्य से ही अनित्यभावना में संयोगों की अनित्यता एवं स्वभाव की नित्यता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता एवं स्वभाव की शरणभूतता तथा संसारभावना में संयोगांे की निरर्थकता (असारता) एवं स्वभाव की सार्थकता का भरपूर दिग्दर्शन कराया जाता है।

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