।। नूतन वर्ष - अभिनन्दन ।।

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अवसर्पिणी के सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमासुषमा, दुःषमा ओर अतिदुःषमा। ये ही उत्सर्पिणी में उल्टे क्रम से चलते हैं। जैसे अतिदुःषमा आादि। इन सब कालों की समाप्ति आषढ़ शुक्ला पूर्णिमा को होती है और प्रारम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से होता है।

इस मंगल दिवस ही भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी थी अतः आज इसे ‘‘वीरशासन जयंती’’ दिवस के नाम से मनाने की प्रथा है। इस विषय में तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में कहा है।

एत्थावसप्पिणीए चउत्थकालस्स चरिमभागम्मि।
तेत्तीसवासअऽमासपण्णरसहितवससेसम्मि।।68।।

वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए।
अभिजोणक्खत्तम्मिं य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स।।69।।

सावणबहुले पाडिवरूद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो।
अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदो इमसस पुढं।।70।।

यहां अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के अंतिम भाग में तेतीस वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर वर्ष के श्रावण नामक प्रथम महीने में, कृष्णापक्ष की प्रतिपदा के दिन अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।।68-69।।

श्रावण कृष्ण पडिवा के दिन रूद्र मुहूर्त के रहते हुए सूर्य का शुीा उदय होन ेपर अभिजित नक्षत्र के प्रथम योग में इस युग का प्रारम्भ हुआ, यह स्पष्ट है।।70।।

धर्मतीर्थ का उत्पत्ति का अर्थ है भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी धवला प्रथम पुस्तक में भगवान महावीर को ‘‘अर्थकता’’ बताते हुए आचार्य श्री ने कहा है-

इमिसे वसप्पिणीए चउत्थ-समयस्स पच्छिमे भाए।
चैत्तीस-वास-ससे किंचि विसेसूणए संते।।55।।

वासस्स पढम-मासे पढमे पक्खहम्ह सावणे बहुले।
पाडिवद-पुव्व-दिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि।।56।।

सावण-बहुण-पडिवदे रूद्द-मुहुत्ते सुहोदए रविणो।
अभिजिस्स पढम-जोए एत्थ जुगाई मुणेयव्वो।।57।।

इस अवसर्पिणी कल्पकाल के दुःषमा-सुषमा नाम के चैथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चैंतीस वर्ष बाकी रहने पर, वर्ष के प्रथम मांस अर्थात् श्रावण मास में, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्णपक्ष में, प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर तीर्थ अर्थात् धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।।55-56।।

श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन रूद्रमुहूर्त में सूर्य का उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए।।57।।

इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि ‘‘श्रावण कृष्णा प्रतिपदा’’ युग की आदि हैं। भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद पांचवां काल प्रवेश होने में तीन वर्ष, आठ माह, पन्द्रह दिन बाकी रहे थे। तीन वर्ष-कार्तिक शुक्ला के पन्द्रह दिन और मगसिर से आषाढ़ तक आठ माह गिनने चाहिए।

कर्नाटक में लोग चैत्र शुक्ल 1 को ही ‘‘युगादि अब्बा’’ कहते हैं किंतु वह तो विक्रमादित्य राजा से चला है। जैन ग्रंथों के अनुसार श्रावणकृष्णा एकम् ही युगादि पर्व है। दक्षिण में पर्व को ‘‘अब्बा’’ कहते हैं।

महानुभावों! मेरा अभिप्राय यही है कि आप जैन लोग वीर निर्वाण सम्वत् से ही ‘‘नूतन वर्ष’’ मनावें तथा श्रावण कृष्ण एकम् को ‘‘वीरशासन जयन्ती’’ और युगादि दिवस-पर्व अवश्य मनावें। यदि जैन ही अपनी संस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं करेंगे तो भला और कौन करेंगे? इसलिये वीर निर्वाण के दिन रात्रि में जैन विधि से बही और वसना आदि बदलकर कार्तिक शुक्ला एकम से ‘‘नूतनवर्ष’’ मानना चाहिए।

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