शास्त्रों में मुनियों को जिनेन्द्र का लघुनन्दन माना गया है और उनकी सेवा, वैय्यावृत्ति, आहारदान आदि को नित्यमह पूजन में गर्भित किया हैं
मैंने अपने 40 वषर्् के दीक्षित जीवन में आचार्यश्री शांतिसागर महाराज से लेकर आज तक सैकड़ों साधु देखे किन्तु आचार्यश्री के समान तो दूसरा कोई न हुआ न होगा। वे तो वास्तव में सुदृढ़ चारित्र और तप की साक्षात् मूर्ति थे। इसीलिए उनकी चारित्रचक्रवर्ती उपाधि सार्थक थी। आप सभी श्रावक हैं अतः गुरूचरणों के भक्त बने रहें, दान-पूजन की सार्थकता समझकर उससे जीवन को अलंकृत करें, यही मेरा मुगल आर्शीवाद है।
श्रुतज्ञान महान वृक्ष सदृश है।
अनादिकाल की अविा के संस्कार से प्रत्येक मनुष्य का मन मर्कट के समान अतीव चंचल है। उसको रमाने के लिए श्री गुणभद्र सूरि इस श्रुतज्ञान को महान वृक्ष की उपमा देते हुए कहते हैं-
जो श्रुतस्कंधरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका है, वचनोरूप पत्ते से व्याप्त है, विस्तृत नयोंरूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त हैं, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है, उस श्रुतस्कंध वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधु अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमण करावें।
इस श्रुतस्कंध वृक्ष के चारों ही अनुयोग समाविष्ट है क्योंकि एक अनुयोग से होने वाला ज्ञान अपूर्ण ही हैं।
-आत्मानुशासन