।। जिनाभिषेक ।।

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महानुभावों! अभिषेक, पूजा, दान आदि से अनेकों जन्मों के महापाप क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं फिर पूजा अभिषेक रूप आरम्भजनित पाप तो थोडत्रा सा होता है, वह तो अवश्य ही नष्ट होताहै इसमें संशय नहीं रखना चाहिए।

जिन-प्रतिमा में अतिशय

जिन चैत्य/जिन प्रतिमा का अतिशय बनाये रखने के लिये भी अभिषेक आवश्यक है। खेत में बीज बो दिया जावे उसे योग्य हवा-प्रकाश्ज्ञ-पानी आदि नहीं किले तो वह बीज अंकुरित हो पुष्पितफलित नहीं हो सकता, वैसे ही हमने जिन प्रतिमाओं बीजाक्षरों से अंगन्यास किया है, मंत्रों से संस्कारित किया है, सूर्यमन्त्र आदि देकर प्राण प्रतिष्ठा की है,उनका अभिषेक, पूजा आदि नहीं किया जायेगा तो उन प्रतिमाओं का अतिशय भी नहीं बढ़ेगा। जिन प्रतिमाओं का प्रतिदिन अभिषेक तथा विशेष पर्वादि दिनों में वृहद अभिषेक आदि अवश्य करना चाहिए। यह अभिषेक जिनबिम्ब के अतिशय की वृद्धि का कारक तो है ही साथ ही साथ घ-परिवार-समाज, नगर-देश तथा विश्व में शान्तिप्रदायक है।

जब तीर्थंकर बालक का देवगण सुमेरूपर्वत पर अभिषेक करते हैं, वे विशाल/बड़े-बड़े 1008 कलशों से अभिषेक करते हैं। देवगण उस अभिषेक में इस प्रकार डुबकियां लगाते हैं कि एक बूंद भी नहीं बचता।

अभिषेक से लाभ

कहा है जिनाभिषेक से पांच लाभ हैं-

विघ्न विदारक मंगलदायक, मन में अति आनंदकरा।
कर्मविनाशक, शिवसुखदायक श्री जिनका अभिषेक वरा।।

1 - विघ्नों का नाशक,

2 - मंगलदाय

3 - आनन्दकारक,

4 - कर्मविनाशक

5 - मोक्षसुख का देने वाला।

जिन - अभिषेक के विघ्नोंका नाश होता है। आचार्य रविषेणकृत पद्मपुराण में कथन मिलता है कि सीता महादेवी बलभद्र राम की पट्टरानी थी। उसकी दांई आंख फड़कने लगी। उसने आगत विघ्न का यह निमित है ऐसा जान अयोध्या के जिनालयों में/मंदिरों में विघ्ननिवारक शांति अभिषेक, वृहद् अभिषेक करायें। पूर्व भव में मुनियों के लिए अपवाद लगाने रूप तीर्व निकाचित पाप कर्मोदय से उसे वनवास तो हुआ किन्तु जिनाभिषेक के प्रभाव से वन में भी उसके विघ्न टलते रहने वन में भी उसको सहायता मिलती रही और शीघ्र मामा का आश्रय या विघ्नों पर विजय पाई थी।

जिनाभिषेक मंगलदायक होता है। जो प्रातः अपनी क्रियाओं से निर्वृत हो जिन भगवान् का अभिषेक करते हैं उसका पूरा दिन मंगलमय बीतता है। पापों का क्षय होता है सुख, शांति और समृद्धि को प्राप्त होता है।

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आदिपुराण में वर्णन आता है कि भरत चक्रवर्ती को जब 16 अशुभ स्वप्न आये, उन्होंने उन अशुभ की निवृति के लिए जगह-जगह मन्दिरों में शान्ति अभिषेक करवाया जो कि उसके लिए मंगलदायक था।

जिनाभिषेक मन में अत्यधिक आनन्द को करने वाला होता है। जो जिनाभिषेक करता है व देखता भी है उसके मन से शोक का समुद्र भी दूर भाग जाता है और आनन्द की लहरें लहराने लगती है। भरत चक्रवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि, तद्भव मोक्षगामी को जिनाभिषेक में इतना आनन्द आता था कि विशाल घड़ों से अभिषेक करते हुए नदियां बह निकलती थीं, उनका आनन्द भीतर न समता हुआ नदियों के बहाने बाहर फूट पड़ता था। पूजा करते हुए द्रव्य के पहाड़ बन जाते थे।

जिनाभिषेक कर्मविनाशक है। जिनेन्द्रदेव का अभिषेक करने से अष्टकर्मों का नाश होता है। ज्यों-ज्यों अभिषेक की धारा धधकती-फफकती जिनदेव के ऊपर पड़ती है त्यों-त्यों शरीर में आत्मदेव पर चिपके कर्म शत्रु झर-झर करते झरने लगते हैं। अनादिकालीन मिथ्यात्व धुल जाता है। सम्यक्त्व - निधि प्राप्त कर सोऽहं में लीन भव्यात्मा स्वयं कर्मक्षय कर पवित्रात्मा परमात्मा बन जाता है।

यह जिनाभिषेक मुक्ति वधू से भेंट करने का एक महासाधन है। शिववालय पहुंचने के लिए यह रिजर्वेशन का कार्य करता है। जिसने जिन- अभिषेक किया है, उसका मुक्तिपुरी जाने के लिए बुकिंग हो गया है अर्थात् जिनाभिषेक शिवसुख को देने वाला एक अमोघ मंत्र है ऐसा श्रद्धान कर प्रतिदिन जिनाभिषेक अवश्य करना चाहिए।

तात्पर्य है कि जिनाभिषेक सर्वसुखदाता, शान्तिप्रदाता, आनन्दकर्ता, विघ्नहर्ता, पापनाशक और अष्टकर्म विध्वंसक है, अतः प्रतिदिन करना प्रत्येक भव्यत्मा का कर्तव्य है।

एक गांव में लोग दरिद्री थे। अर्थ-व्यवस्था ठीक न होने से सदा चिन्तित रहते थे। एक समय विहार करते हुए एक महानाचार्य देव उस गांव में पधारे। गांव के लोग आचार्यश्री के दर्शनार्थ पहुंचे। महाराज मंदिर में ठहरे थो। मंदिर एकदम सूना सन्नाटा था, मंदिरजी में चारों ओर कूड़ा-कचरा फैला था। कोई भी दर्शन, पूजा, अभिषेक नहीं करते थे। सभी लोगों ने महाराजा से प्रार्थना की-हे गुरूदेव! हमारे गां में सभी लोग दुखी हैं, पैसे-पैसे के लिए मुहताज हो गए हैं, आप कृपाकर कोई उपाय बताइये।

गुरूदेव ने कहा- आप लोग प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव का दर्शन व अभिषेक कीजिये, पूरे गांव मंे सुख, शांति व समृद्धि होगी। सभी लोगों ने आचार्य श्री से दश्ज्र्ञन व अभिषेक करने नियम लिया।

अब मंदिर में प्रतिदिन सफाई होने लगी। लोगों की भीड़ जमने लगी। कोई दश्ज्र्ञन कर रहा है, कोई अभिषेक तथा कोई पूजन व आरती। चारों और गांव में मंगलमय धार्मिक वातावरण बन गया। गांव में धीर-धीरे व्यापार बढ़ गया, लोगों के घरों में समृद्धता हाने लगी, सम्पत्ती बढ़ने लगी। सब, अब क्या हुआ? व्यापार, शान शौकत में फंस गये। फुर्सत मिलना कठिन हो गई। मंदिर में आना धीरे-धीरे कम हुआ। ऐसी स्थिति आ गई कि सब समृद्ध हो गये किसी को अभिषेक के लिए फुर्सत नहीं है। अभिषेक के लिए पुजारी की नियुक्ति की गई। बेचार पुजारी ने बहुत कहा- मैं मंत्र आदि कुछ नहीं जानता आप लोग मात्र अभिषेक करके चले जाया करें, शेष कार्य में कर लूंगा। पर कौन सुनने वाला था। आखिर पुजारी प्रतिदिन घंटा बजाकर भगवान पर जलधारा छोड़ दिया करता। एक दिवस गांव में कुछयात्री आये। यात्रियों ने पुजारी से अभिषेक दिखाने के लिए कहा। पुजारी जिनदेव पर जल-धारा छोड़ने लगा। यात्रियों ने कहा-पुजारीजी कुछ मंत्र पढ़कर अभिषेक करिये। पुजारी जी कहने लगे।

मैं तो कुछ जानता नहीं।
पंच लोग मानते नहीं।। जलं स्वाहा।।

धीरे-धरे पुनः गांव में फिर अशांति का वातावरण छाने लगा, दरिद्रता का वास होने लगा। सत्य है जिनन्द्रदेव की आराधना से जिसका संकट दूर हुआ है, यदि वह अपनी स्वार्थपूर्ति के बाद अपने नियम व आराधना छोड़ देता है तो 11 वर्ष बाद पुनः संकट आ घेरते हैं। गुणभद्र स्वामी आत्मानुशासन में लिखते हैं-

पुण्यस्य फलं इच्छन्ति पुण्य नेच्छन्ति मानवाः।
फलं पाप नेच्छन्ति पापं करोति यत्नतः।।

प्रमादी, अज्ञानी जीव पुण्य के फल को तो चाहते हैं परन्तु पुण्य करना नहीं चाहते हैं तथा पाप के फल कोनहीं चाहते हैं, किन्तु पाप दि-रात प्रयत्पूर्वक करते हैं।

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