दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन के समय मिट्टी का घरौंदा और खेल-खिलौने भी रखे जाते हैं। यह भगवान महावीर अथावा उनके शिष्य गौतम गणधर की उपदेश सभा की यादगार में है। चूंकि उनका उपदेश सुनने के लिए 1. जैनसन्देश 26 अक्टूबर 1978 (डाॅ. ज्योति प्रसाद जैन का लेख) पृ. 115 मनुष्य, पशु सभी जाते हैं अतः उनकी यादगार में उनकी मूर्तियां रखी जाती है।
इस दिन प्रातः जैनमंदिरों में भगवान महावीर की पूजा के समय निर्वाणकल्याणक के अर्घ के समय अष्टद्रव्य के साथ लाडू चडाया जाता है। लोगों का कहना है कि वह यह लाडू अर्द्धचन्द्राकार सिद्धशिला का प्रतीक है, जहां भगवान मोक्षावस्था में अवस्थित हैं।
आत्मजयी महावीर अपने निर्वाण से पहले कह गए-
धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। धर्म का अर्थ है, अहिंसा, समय और तप। जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
त्रस और स्थावर जीवों का प्रमादवश प्राणवध न करना अहिंसाणुव्रत है।
जिसने हिंसा करना छोडदिया है, वही समझदार है और वही ज्ञानी है, इस बात को भलीभांति समझो।प्रिय, हितकर और तथ्यपूर्ण वचन बोलना सत्यमहाव्रत है। सत्य वही है जो न अप्रिय हो और न अहितकर हो।
जो वचन दूसरे को पीडित करने वाला हो, यदि वह सत्य भी हो तो भी न बोले।
जो बहुमूल्य वस्तु को अल्प मूल्य में नहीं लेता, दूसरे की भूली हुई वस्तु को नहीं उठाता, थोडे लाभ से ही संतुष्ट रहता है तथा कपट, लोभ, माया व क्रोध से पराए द्रव्य का हरण नहीं करता है, वह शुद्धमति दृढनिश्चयी श्रावक अचैर्याणुव्रती है।
दिव्य या स्थूल शरीरों के साथ काम भोगों का मन, वचन और काया से स्वयं त्याग करना, कराना तथा करने वाले का अनुमोदन करना ब्रह्मचर्य है।
आसक्ति ही परिग्रह है। जो अल्पाहारी, अल्पभाषी, अल्पशायी तथा अल्पपरिग्रही है, उसे देवता भी प्रमाण करते है। परिग्रह दुःख का कारण है, असंतोष और अविष्वास का जनक है और हिंसा रूप फल का उत्पादक है अतः परिग्रह पर नियंत्रण करना चाहिए।
क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सदगुणों का नाश करता है।
क्षमा से क्रोध को, मृदुता से अभिमान को, सरलता से माया को और अनासक्ति सेू लोभ को जीतना चाहिएं जिस प्रकार आग की एक चिनगारी तृणसमूह को जला देती है, उसी प्रकार मद्यपान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, दया व क्षमा सभी गुण नष्ट हो जाते है।
जिस प्रकार अतिसुंदर चित्ररचना पर काजल गिर जाय तो वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। उसी प्रकार म़द्यपान से व्यक्ति की कांति, कीर्ति, बुद्धि एवं लक्ष्मी नष्ट हो जाती है।
कर्मों के नष्ट हो जाने पर आत्मा में अनन्तवीर्य (शक्ति), अतीन्द्रिय ज्ञान व सुख उत्पन्न हो जाते हैं।
जिस साधु के किसी परवस्तु में न राग है, न द्वेष तथा न मोह है और जो सुख व दुख में साम्यभाव रखता है, उसके किसी प्रकार के शुभ या अशुभ कम नहीं बांधते हैं। हमें इनउ पदेशों का सदैव पालन करना चाहिए।