चक्रविर्तत्व एवं तीर्थंकरत्व मिल-जुलकर प्राप्त नहीं होते। दो-चार व्यक्ति मिल-जुलकर तीर्थंकर या चक्रवर्ती नहीं बनते, एक ही होता है और चक्रवर्ती भी एक ही।
भाई! आत्मा का अकेलापन अभिशाप नहीं, वरदान है। जो अकेलापन आज तुम्हें सुहाता नहीं, वस्तुतः वही आनंद का धाम है। जिस साथ के लिए तुम इतने आकुल-व्याकुल हो रहे हो; वह मात्र मृगतृष्णा है, कभी प्राप्त न होनेवाली कल्पना है।
साथ खोजने के प्रयास न तो आज तक किसी के सफल हुए हैं और न कभी होंगे। इस दिशा में किया गया सारा श्रम व्यर्थ ही जानेवाला है। अच्छी फसल की आशा से पत्थर पर बीज बोने जैसे इस व्यर्थ के श्रम से क्या लाभ है?
ज्ञानीजन तो पुकार-पुकार कर कहते रहे हैं -
इन सब चिंतन का सार यही है कि पर का साथ खोजने के व्यर्थ विकल्पों से विरत हो; ज्ञान के घनपिंड, आनंद के कंद, शांति के सागर, निज परमात्मतत्त्व को पहिचानकर उसी में लीन रहो, संतुष्ट रहो, तृप्त रहो। सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है।
एकत्व-विभक्त आत्मा के प्रतिपादक ग्रन्थाधिराज समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द आदेश देते हैं, आशीर्वाद देते हैं कि -
हे आत्मन्! तू इस ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा में ही नित्य प्रीतिवन्त हो, इसमें ही नित्य संतोष को प्राप्त हो और इससे ही तृप्त हो तो तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा।‘‘
आचार्य भगवन्तों का मात्र यही आदेश है, यही उपदेश है, यही संदेश है कि सम्पूर्ण जगत से दृष्टि हटाकर एकमात्र अपने आत्मा की साधना करो, आराधना करो; उसे ही जानो, पहिचानो; उसी में जम जावो, उसमें ही रम जावो, उसमें ही समा जावो; इससे ही अतीन्द्रियानंद की प्राप्ति होगी-परमसुखी होने का एकमात्र यही उपाय है।
पर को छोड़ने के लिए, पर से छूटने के लिए इससे भिन्न कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि पर तो छूटे हुए ही हैं। वे तेरे कभी हुए ही नहीं है; तूने ही उन्हें अज्ञानवश अपना मान रखा था, अपना जान रखा था और उनसे राग कर व्यर्थ ही दुःखी हो रहा था। तू अपने में मगन हुआ तो वे छूटे हुए ही हैं।
पर को छोड़ने के लिए, पर से छूटने के लिए इससे भिन्न कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि पर तो छूटे ही हैं। वे तेरे कभी हुए ही नहीं है; तूने ही उन्हें अज्ञानवश अपना मान रखा था, अपना जान रखा था और उनसे राग कर व्यर्थ ही दुःखी हो रहा था। तू अपने में मगन हुआ तो वे छूटे हुए ही हैं।
इसीलिए तो करुणासागर कार्तिकेय स्वामी समझाते हैं -
पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न इस जीव को ही जानो। उसके जान लेने पर शरीरादि समस्त बाह्य पदार्थ एक क्षण में हेय हो जाते हैं।।‘‘
पर के साथ के अभिलाषी प्राणियों। तुम्हारा सच्चा साथी आत्मा का अखंड एकत्व ही है, अन्य नहीं। यह एकत्व तुम्हारा सच्चा साथी ही नहीं, ऐरावत हाथी भी है; इसका आश्रय ग्रहण करो, इस पर चढ़ो और स्वयं अंतर के धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर बन जावो; धर्म की धवल पांडुक शिला पर तुम्हारा जन्माभिषेक होगा, पावन परिणतियों की प्रवाहित अजस्त्र धारा में स्नान कर तुम धवल निरंजन हो जाओगे।
सारा लोंक निज अखंड एकत्व के आश्रय से उत्पन्न धवल निरंजन पावन परिणतियों के अजस्त्र प्रवाह में निमग्न हो, आनंदमग्न हो - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।
बुद्धि भी भवितव्य का अनुसरण करती है। जब खोटा समय आता है तो बड़े-बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि पर भी पत्थर पड़ जाते हैं।