।। एकत्वभावना ।।

इसी को लक्ष में रखकर मैंने बहुत पहले लिखा था -

‘‘ले दौलत प्राणप्रिया को तुम मुक्ति न जाने पाओगे।
यदि एकाकी चल पड़े नहीं तो यहीं खड़े रह जाओगे।।‘‘

एकत्वभावना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए ब्रह्मदेव लिखते हैं -

jain temple88

‘‘निश्चयरत्नत्रय ही जिसका एक लक्षण है - ऐसी एकत्वभावना रूप से परिणमित इस जीव के सहजानंतसुखादि अनंत गुणों का आधारभूत केवलज्ञान ही एक सहज शरीर है। यहाँ शरीर शब्द का अर्थ है स्वरूप है, सप्तधातुमय औदारिकादि शरीर नहीं।

इसीप्रकार आत्र्त-रौद्र दुध्र्यान से विलक्षण परमसामायिक जिसका लक्षण है - ऐसी एकत्वभावना से परिणमित निजात्मतत्त्व ही सदा एक शाश्वत परमहितकारी बंधु है; विनश्वर और अहितकार पुत्र-स्त्री आदि नहीं।

इसीप्रकार परम-उपेक्षासंयम जिसका लक्षण है - ऐसी एकत्वभावना सहित स्वशुद्धात्मपदार्थ एक ही अविनाशी और हितकारी परम-अर्थ है; सुवर्णादि पदार्थ अर्थ नहीं।

इसीप्रकार निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न निर्विकार परमानंद जिसका लक्षण है-ऐसे अनाकुलस्वभावयुक्त आत्मसुख ही एक सुख है; आकुलता का उत्पादक इन्द्रियसुख नहीं।

यदि कोई यह कहे कि शरीर, बंधुजन, सुवर्णादि अर्थ एवं इन्द्रियसुख आदि निश्चय से जीव के नहीं हैं - यह कैसे कहा जा सकता है?

उससे कहते हैं कि मरण समय जीव अकेला ही दूसरी गति में जाता है, शरीरादि जीव के साथ नहीं जाते।

तथा जब जीव रोगों से घिर जाता है, तब भी विषय-कषायादि दुध्र्यान से रहित निज शुद्धात्मा ही सहायक होता है।

यदि कोई कहे कि रोगादि की अवस्था में शुद्धात्मा किसप्रकार सहायक होता है; क्या उससे रोगादि मिट जाते हैं?

उससे कहते हैं कि रोगादि के मिटने की बात नहीं है; अपितु यदि चरमशरीर हो तो शुद्धात्मा की आराधना से उसी भव में केवलज्ञानादि को प्रगटतारूप मोक्ष प्राप्त होता है और यदि चरमशरीर न हो तो संसार की स्थिति हटाकर देवेन्द्रादि संबंधी पुण्य का सुख होता है, तत्पश्चात् परंपरा से मोक्ष की भी प्राप्ति होती है।

मोक्षपाहुड़ गाथा २३ में भी कहा है कि तप करने से स्वर्ग तो सभी प्राप्त करते हैं, परंतु ध्यान के योग से जो स्वर्ग प्राप्त करता है, वह आगामी भव में अक्षय सुख प्राप्त करता है।

इसप्रकार एकत्वभावना का फल जानकर निज शुद्धात्मा के एकत्व की भावना निरंतर करना चाहिए।‘‘

बारह भावनाओं के चिंतन की एक आवश्यक शर्त यह है कि उसके चिंतन से आनंद की जागृति होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो समझना चाहिए कि कही कुछ गड़बड़ अवश्य है।

‘अकेले ही मरना होगा, अकेले ही पैदा होना होगा, सुख-दुःख भी अकेले ही भोगना होगा‘ - इसप्रकार के चिंतन से यदि खेद उत्पन्न होता है तो हमें अपनी चिंतन-प्रक्रिया पर गहराई से विचार करना चाहिए। यदि हमारी चिंतन-प्रक्रिया की दिशा सही हो तो आह्लाद आना ही चाहिए।

जरा गहराई से विचार करें तो सब-कुछ सहज ही स्पष्ट हो जावेगा।

आपको यह शिकायत है कि सुख-दुःख, जीवन-मरण सब-कुछ आपको अकेले ही भोगने पड़ते हैं; कोई सगा-सम्बंधी भी साथ नहीं देता। क्या आपकी यह शिकायत उचित है?

जरा इस पर गौर कीजिये कि कोई साथ नहीं देता है या दे नहीं सकता? वस्तुस्वरूप के अनुसार जब कोई साथ दे ही नहीं सकता है, तब ‘साथ नहीं देता‘-यह प्रश्न ही कहाँ रह जाता है?

जब हम ऐसा सोचते हैं कि कोई साथ नहीं देता तो हमें द्वेष उत्पन्न होता है; पर यदि यह सोचें कि कोई साथ दे नहीं सकता तो सहज ही उदासीनता उत्पन्न होगी, वीतरागभाव जागृत होगा।

आचार्य श्री पूज्यपाद एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन और फल बताते हुए लिखते हैं -

‘‘एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबंधो न भवति परजनेषु च द्वेषानुबंधो नोपजायते। ततो निसंगतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।

इसप्रकार चिंतवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबंध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबंध नहीं होता; इसलिए निःसंगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।‘‘

यद्यपि वस्तुस्थिति यही है कि कोई साथ दे नहीं सकता; तथापि अब जरा इस बात पर भी विचार कर लीजिए कि जीवन-मरण और सुख-दुःख में यदि आपके परिजन साथ दे भी सकते होते और देने को तैयार भी होते तो क्या आप यह चाहते कि आपके मरने के साथ ही आपका सभी कुनबा समाप्त हो जावे या आपके बीमार होते सभी बीमार हो जावें।

नहीं, कदापि नहीं; तो फिर ‘कोई साथ नहीं देता‘ का क्या अर्थ रह जाता है?

इसीप्रकार क्या आप चाहते हैं कि आपके जन्म के सथ ही आपके परिवारवालों और इष्ट मित्रों का जन्म भी होता? यदि ऐसा होता तो फिर आपका बेटा बेटा नहीं होता, आपका जुड़वाँ भाई होता।

jain temple89

यह बात तो आपको भी स्वीकृत नहीं होगी। यदि हाँ, तो फिर व्यर्थ की शिकायत क्यों? सनातन सत्य की सहज स्वीकृति क्यों नहीं?

एकत्व ही सनातन सत्य है, साथ की कल्पना मात्र कल्पना ही है। एकत्व ही शिव है, कल्याणकारी है; साथ ही कल्पना अशिव है, दुःख का मूल है। एकत्व ही सुंदर है, साथ की कल्पना मात्र कल्पनारम्य ही है।

एकत्व ही सत्य है, शिव है, सुंदर है। साथ है ही नहीं; अतः उसके कुछ होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। साथ न सत्य है, न असत्य है; न शिव है, न अशिव है; न सुंदर है, न असुंदर है; क्यांेकि ज बवह है ही नहीं, तब फिर ‘क्या है, कैसा है?‘ - आदि प्रश्न ही असंभव हैं।

इस पर आप कह सकते हैं कि हम यह तो नहीं चाहते कि हमारे पुत्र-परिवार हमारे साथ ही जन्मंे-मरें, दुःख भोगंे; फिर भी अकेलापन

भाई! महानता तो एकत्व में ही है, अकेलेपन में ही है। मानव तो अकेला ही जन्मता-मरता है, कूकर-सूकर अवश्य दस पाँच एक साथ पैदा होते देख जाते हैं। सर्प एकसाथ लाखों पैदा होते हैं। अनंतों का एकसाथ जन्म-मरण तो निगोदिया जीवों में ही देखा जा सकता है- इसप्रकार यदि गहराई से विचार करें तो जन्म-मरण का साथी खोजने का अर्थ निगोद को आमंत्रण देना है, निगोद की तैयारी है।

इस पर कोई कहे कि निगोद में ही सही, पर साथ मिल तो जायेगा न?

नहीं। साथ नहीं; संग मिलेगा, संयोग मिलेगा। निगोद में भी अनंत जीवों का संग ही है, संयोग ही है; साथ-नहीं; क्योंकि उनमें परस्पर सहयोग नहीं है, मात्र एकक्षेत्रावगाहत्व है।

4
3
2
1