इसीप्रकार का भाव आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि में व्यक्त किया है।
जैसाकि संसारभावना के अनुशीलन में स्पष्ट किया जा चुका है कि बारह भावनाओं के चिंतन का एकमात्र उद्देश्य दृष्टि को संयोगों पर से हटाकर स्वभाव की ओर ले जाना है; क्योंकि संयोगाधीन दृष्टि ही संसारदुखों का मूल है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए एकत्वभावना मंे इस तथ्य की ओर बार-बार ध्यान आकर्षित किया जाता है कि साथी की खोज कभी सफल होनेवाली नहीं है; क्योंकि साथ की बात ही असंभव है, वस्तुस्थिति के विरुद्ध है।
भले ही क्षणभंगुर सही, अशरण सही, निरर्थक सही, पर संयोग है तो सही; किन्तु साथी तो जगत में कोई है ही नहीं। परद्रव्यों का संयोग है, पर साथ नहीं। परद्रव्य संयोगी है, परंतु साथी नहीं।
संयोग और साथ में अंतर है। संयोग तो मात्र संयोग है, पर साथ में सहयोग अपेक्षित है। संयोग में सहयोग शामिल करने पर साथ होता है। गणित की भाषा में हम इसे इसप्रकार व्यक्त कर सकते हैं - संयोग$सहयोग = साथ। दो व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्रित होना संयोग है, उनमें परस्पर सहयोग होना साथ है।
बेटा पहली बार मुंबई जा रहा था। उसे गाड़ी में बिठाकर पिताजी जब घर वापिस आये तो माँ ने पूछा -
‘‘क्यों, उदास क्यों हो? बेटे को बैठने को जगह तो मिल गई थी न?‘‘
‘‘हाँ, मिल तो गई थी; पर भीड़ बहुत थी, पैर रखने को भी जगह न थी। चिंता जगह की नहीं, इस बात की है कि बेटा पहली बार बम्बई जा रहा है और वह भी अकेला।‘‘
‘‘अकेला क्यों; आप ही तो बता रहे हैं कि गाड़ी में पैर रखने की भी जगह न थी?‘‘
‘‘भीड़ तो बहुत थी, पर साथी कोई नहीं।‘‘
भीड़ तो मात्र संयोग की सूचक है, साथ की नहीं। जब संयोग में सहयोग, अपनापन जुड़ जाता है तो साथ बन जाता है। किन्तु जब कोई अपना है ही नहीं, कोई किसी का सहयोग कर ही नहीं सकता है; तब साथ की बात ही कहाँ रह जाती है?
जगत में संयोग हैं, पर साथ नहीं। संयोग से इंकार करना भी भूल है और साथ मानना भी भूल है। यद्यपि संयोग क्षणभंगुर हैं, अशरण हैं, असार हैं; पर हैं अवश्य; किन्तु साथ तो है ही नहीं।
अनित्यभावना में संयोगों की अनित्यता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता, संसारभावना में संयोगों की असारता समझाई जाती है तो एकत्वभावना में संयोगों की स्वीकृति के साथ-साथ साथ से इंकार किया जाता है। साथ से इंकार का नाम ही अकेलेपन (एकत्व) की स्वीकृति है। एकत्वभावना का मूल प्रतिपाद्य यही अकेलापन (एकत्व) है।
चित्त में इस अकेलेपन की चिंतनधारा का अविराम प्रवाह ही एकत्वभावना है। एकत्वभावना के चिंतन-प्रवाह को देखने के लिए कविवर गिरधर का निम्नांकित छंद उल्लेखनीय है -
उक्त छंद में अंतर में पैठ जानेवाली अकेलेपन की अनुभूति का तरल प्रवाह तो है ही, सम्यग्दिशानिर्देश भी है। अकेलापन (एकत्व) है स्वरूप जिसका - ऐसे अद्वितीय चिदानंदघन आत्मा को असत्कल्पनाओं से विरत होकर एकांत में बैठकर अकेले ही तत्त्वाभ्यास करने की मार्मिक प्रेरणा भी इसमें दी गई है।
एकत्व (अकेलापन) आत्मा की मजबूरी नहीं, सहजस्वरूप है।
एकत्व आत्मा का ऐसा स्वभाव है, जो अनादिकाल से प्रतिसमय उसके साथ है और अनंतकाल तक रहेगा; क्योंकि वह आत्मा का द्रव्यगत स्वभाव है। इसीप्रकार अन्यत्व भी आत्मा का द्रव्यगत स्वभाव ही है। निज में एकत्व और पर से अन्यत्व वस्तु की स्वभावगत विशेषताएँ हैं, इनके बिना वस्तु की अस्तित्व भी संभव नहीं है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इसी एकत्व-विभक्त आत्मा के प्रतिपादन की प्रतिज्ञा की है। सम्पूर्ण समयसार एकत्व-विभक्त आत्मा के प्रतिपादन को ही समर्पित है। जैसाकि निम्नांकित पंक्ति से स्पष्ट है -
‘‘तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण।
उस एकत्व-विभक्त आत्मा को मैं अपने निजवैभव से दिखाता हूँ।‘‘
एकत्व न केवल आत्मा का, अपितु प्रत्येक पदार्थ का सौन्दर्य है; पर के साथ संबंध (साथ) की चर्चा ही असत् है, विसंवाद पैदा करनेवाली है।
एकत्व वस्तु की अखंडता का सूचक है, कण-कण की स्वतंत्र सत्ता का सूचक है। साथ या साथी की कल्पना वस्तु की अखंडता को चुनौती है, स्वतंत्र सत्ता को चुनौती है।
एकत्व की प्रतीति में स्वाधीनता का स्वाभिमान जागृत होता है, स्वावलंबन की भावना प्रबल होती है और वृत्ति का सहज स्वभावसन्मुख ढुलान होता है। एकत्वभावना के चिंतन का वास्तविक सुफल यही है। ध्यान रहे एकत्व वस्तु का त्रैकालिक स्वभाव है और तत्संबंधी चिंतन, मनन, घोलन एवं तद्रूप परिणमन एकत्वभावना है।
अखंड स्वाधीनता की सूचक और स्वावलंबन की प्रेरक एकत्वभावना के चिंतन से जो उल्लास और आनंदातिरेक जीवन में प्रस्फुटित होना चाहिए, दिखाई देना चाहिए; वह आज देखने को नहीं मिलता, आज के आदमी को तो अकेलापन काटने को दौड़ता है।
सामान्यजनों की बात तो जाने दीजिये, आज त्यागियों को भी साथ चाहिए। सांसारिक कार्यों में तो साथ चाहिए ही; पर गजब तो यह है कि इसे साधना में भी साथ चाहिए, आराधना में भी साथ चाहिए, ज्ञान में ही साथ चाहिए, ध्यान में भी साथ चाहिए। नरक-स्वर्ग की बात भी जाने दीजिये; मोक्ष भी अकेले जाना स्वीकार नहीं है, वहाँ भी साथ चाहिए। अब तो ध्यान भी एकांत में न होकर समूहों मंे होता है।