।। वीतरागी संतों की अमृतवाणी ।।
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अरे जीव! तेरा आत्मा तेरे पास ही है और उसी के आधार से ही तेरा धर्म है। अंतर्मुख होकर एकबार उसे प्रतीति में ले। जिस प्रकार रत्नों में वज्ररत्न सर्व श्रेष्ठ है; उसी प्रकार जगत् के समस्त पदार्थों में यह चैतन्यस्वभावी रत्न सर्वश्रेष्ठ है और इस चैतन्यस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान-एकाग्रतारूप जो बोधि, उसकी प्राप्ति जैनधर्म में ही है; इसलिए जैनधर्म ही जगत् में उत्तम है। जगत् में यह वीतरागभावरूप जैनधर्म ही एक सत्यधर्म है; यह एक वीतरागी जैनधर्म ही मोक्ष की प्राप्ति करानेवाला है। दूसरे धर्म तो नाममात्र ही धर्म हैं, मोक्ष की प्राप्ति उनमें नहीं है अर्थात् वे वास्तव में धर्म है ही नहीं।

जिस प्रकार कड़वे चिरायते की थैली पर ‘मिश्री’ नाम लिख दें, तो वह नाममात्र ही है, उससे कहीं चिरायते की कड़वाहट दूर होकर वह मीठा नहीं हो जाता; उसी प्रकार अन्य धर्मों को या रागादि को धर्म कहना भी नाममात्र ही है, उससे कहीं भव का नाश नहीं होता। आत्मा का शुद्ध वीतरागभाव ही वास्तव में धर्म है, इसके अतिरिक्त शुभराग भी अन्य धर्म है; उस राग को धर्म कहना तो नाममात्र है। राग धर्म नहीं है किंतु धर्म से अन्य है; इसलिए राग को धर्म माननेवाले भी अन्यमती हैं अर्थात् लौकिकजन हैं - मिथ्यादृष्टि हैं। इसलिए परीक्षा करके निर्णय करना चाहिए कि मोक्ष के कारणभूत धर्म कौन-सा है।

मोक्ष अर्थात् आत्मा की पूर्ण आनन्दमय शुद्ध वीतरागीदशा, उसका कारण भी वीतरागी शुद्धभाव ही है; रागादि शुद्धभाव मोक्ष का कारण नहीं है, किंतु संसार का कारण है। संसार अर्थात् आत्मा की विकारीदशा। मिथ्यात्व और राग-द्वेषरूप अशुद्धभाव ही संसार है। बाह्य परवस्तुओं में कहीं आत्मा का संसार नहीं है; इसलिए बाह्य में घर-बार, स्त्री-व्यापार आदि का संयोग छूटनेमात्र से कहीं आत्मा में से संसार नहीं छूट जाता, किंतु अंतरंग में शुद्ध सम्यग्दर्शनादिभाव द्वारा मिथ्यात्वादि अशुद्धभावों का अभाव करने से ही संसार का अभाव होकर मोक्षदशा होती है। इस प्रकार आत्मा का संसार, मोक्षमार्ग- वह सब आत्मा में ही है और उसका कारण भी आत्मा में ही है।

बाह्य में यह जो शरीर-घर-बार आदि दिखाई देते हैं, यदि वही संसार हो तो मृत्यु के समय आत्मा इन शरीरादि को छोड़कर अकेला चला जाता है, इन्हें साथ नहीं ले जाता; इसलिए शरीर छूटने पर उसका संसार भी छूट जाना चाहिए और मोक्ष हो जाना चाहिए, किंतु ऐसा तो नहीं होता। मृत्यु के समय जब जीव, शरीर को छोड़कर जाता है, उस समय भी अपना संसार तो साथ ही ले जाता है। कौन-सा संसार? तो कहते हैं कि अज्ञान और राग-द्वेषरूपी भाव, वह संसार है और उसे जीव साथ ही ले जाता है। यदि यह अज्ञान और राग-द्वेष के भाव छोड़े तो संसार छूट जाए। संसार क्या और मोक्ष क्या है? उसका भी जीव को भान नहीं है, सब बाह्य में ही मान लिया है।

यहां तो संत कहते हैं कि पुण्यभाव भी संसार है; वह धर्म नहीं है और अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि पुण्य, धर्म है और पुण्य करते-करते मोक्ष हो जाएगा। देखो, कितना महान् अंतर है? अहो! आत्मा के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी वीतरागधर्म ही संसार के नाश का कारण है, वही जैनधर्म है; उसे चूककर बेचारे मूढ़ जीव, राग और पुण्य में ही धर्ममानकर वहां रुक गये हैं, किंतु पुण्य की मिठास तो संसार की उत्पत्ति का कारण है।

‘पुण्य द्वारा जैनधर्म की श्रेष्ठता है अर्थात् राग द्वारा-विकार द्वारा जैनधर्म की श्रेष्ठता है’- ऐसा मूढ अज्ञानी जीव मानते हैं। उन्हें आचार्यदेव ने लौकिकजन कहा है। इस 83वीं गाथा में आचार्यदेव ने स्पष्टीकरण किया है कि जिनशासन में तो भगवान जिनेन्द्रदेव ने पूजा-व्रतादि के शुभभाव को पुण्य कहा है; उसे धर्म नहीं कहा है, धर्म तो आत्मा के मोह-क्षोभरहित परिणाम को अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध वीतरागभाव को ही कहा है। चैतन्यानन्द की मस्ती में झूलनेवाले और वन में रहनेवाले वीतरागी संत की यह वाणी है।

जैनधर्म की महिमा यह है कि मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव की प्राप्ति उसी में होती है। मोक्ष का मार्ग जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, वह जैनशासन में ही यथार्थ है...। जैनशासन में सर्वज्ञ भगवान द्वारा कथित चैतन्यस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र से ही मोक्ष के कारणरूप शुद्धभाव होता है और उसी से जैनधर्म की श्रेष्ठता है। इसलिए है जीव! ऐसे शुद्धभाव द्वारा ही जैनार्म की महिमा जानकर तू उसे अंगीकार कर और राग को, पुण्य को धर्म मत मान तथा उससे जैनधर्म की महत्ता मत मान।

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जैनधर्म में तो भगवान ने कहा है कि जो पुण्य को धर्म मानता है, वह मात्र भाग की ही इच्छा करता है, क्योंकि पुण्य के फल में तो स्वर्गादिक के भोगों की प्राप्ति होती है; इसलिए जिसे पुण्य की भावना है, उसे भोग की अर्थात् संसार की ही भावना है, किंतु मोक्ष की भावना नहीं है।

अहो! जिन्हे धर्म की भावना हो, मोक्ष की भावना हो, वे जीव, आत्मा के स्वभाव का निरीक्षण करें.... आत्मा में अंतर अवलोकन करे.... वही मोक्षदाता है। आत्मा के अंतर अवलोकन बिना भव का अंत नहीं आता। मोक्षदखा आत्मा में से आती है; इसलिए आत्मा की शरण लो! राग में से मोक्षदशा नहीं आती; इसलिए राग की शरण छोड़ा!! राग की शरण छोड़कर अंतर में वीतरागी चैतन्यतत्त्व की शरण लेना, उसकी श्रद्धा-ज्ञान-एकाग्रता करना, वह धर्म है - ऐसे धर्म से ही भव का अंत आता है; इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से भी भव का अंत नहीं आता।

अज्ञानी भले ही पुण्य करे किंतु उससे किंचित धर्म नहीं होता। यह मनुष्य-अवतार पाकर यदि आत्मा में भव के अंत की भनक जागृत नहीं हुई तो जीवन किस काम का? जिसने भव से छूैअने का उपाय नहीं किया, उसके और कौए के जीवन में क्या अंतर हैं? इसलिए भाई! अब इस भवभ्रमण से आत्मा का छुटकारा कैसे हो, उसका सत्समागम से उपाय कर। सत्समागम से चिदानन्दस्वभाव का अंतरंग उल्लासपूर्वक श्रवण करके, उसकी प्रतीति करते ही तेरे आत्मा में भव के अन्त की भनक आ जाएगी।

मिथ्यादृष्टि हो या सम्यग्दृष्टि हो; उसे जो शुभराग है, वह तो बंध का ही कारण है। हां, सम्यक्तवी को तो उस राग के समय भी राग से पार चिदानन्दस्वभाव की दृष्टि और अंशतः वीतरागता वर्तती है, वह धर्म है तथा जो राग शेष रहा है, उसे वे धर्म नहीं मानते। मिथ्यादृष्टि को तो राग से भिन्न चैतन्यतत्व का लक्ष्य ही नहीं है, वह तो शुभराग को ही धर्म मानता है; इसलिए उसे तो धर्म का अंश भी नहीं है। अज्ञानी या ज्ञानी को राग का अंश तो बंध का ही करण है और सम्यग्दर्शनादि वीतरागभाव, वह मोक्ष का ही कारण है।

जो भाव, बंध का कारण हो, उससे धर्म नहीं होता और जो धर्म हो, उससे बंधन नहीं होता। धर्म कहो या मोक्ष का कारण कहो - ऐसे धर्म की जिसे रुचि नहीं है और शुभराग को ही धर्म मानकर रुचिपूर्वक् उसका सेवन करता है, यह जीव कदाचित् पुण्य करके स्वर्ग में चला जाएगा तो वहां भी पुण्य की मिठास के कारण उस पुण्य के फलरूप भोग में लीन होकर एकेन्द्रियादि में चला जाएगा और अनन्त संसार में परिभ्रमण करेगा। धर्म का फल तो मोक्ष है, धर्मी को भी बीच में पुण्य तो उच्च प्रकार के आते हैं किंतु उन्हें उस पुण्य के फल की किंचित् रुचि नहीं है; इसलिए वह पुण्य की दीर्घ स्थिति को तोड़कर स्वभाव में लीनता द्वारा अल्पकाल में वीतराग होकर मोक्ष में चला जाएगा और पुण्य को धर्म मानने वाला जीव विपरीत मान्यता के बल से पुण्य की लंबी स्थिति को तोड़कर निगोद में चला जाएगा, क्योंकि विपरीत मान्यता का फल निगोद है; इसलिए ऐसा समझो कि पुण्य, वह धर्म नहीं है।

जो भवभ्रमण से भयभीत हों, वे राग से धर्म मानना छोड़ दें और रागरहित चिदानन्दस्वभाव की आराधना करें। ज्ञानियों को रागरहित चिदानन्दस्वभाव की भावना से संसार कटकर अल्प काल में मोक्ष हो जाता है और मिथयादृष्टि जीव, राग की रुचि तथा चैतन्यस्वभाव का अनादर करके नरक-निगोद में परिभ्रमण करते हैं।

देखो, अभी यह प्रारंभिक भूमिका की बात है। पहले धर्म की भूमिका तो स्पष्ट करना चाहिए न! - कि कौन-सा भाव धर्म है और कौन-सा अधर्म? अथवा कौन-सा भाव मोक्ष का कारण है और कौन-सा संसार का? इस बात के परिज्ञान बिना, संसार के कारण को धर्म माने, पुण्य को धर्म माने तो उसे धर्म की भूमिका ही स्पष्ट नहीं है। धर्म क्या है? - उसके भान बिना धर्म करेगा कहां से? वह तो पुण्यादि को धर्म मानकर, धर्म के नाम पर अधर्म का ही सेवन करके संसार में भटकेगा; इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि हे जीवों! तुम जिन शासन में कहे हुए -ऐसे वीतरागभावरूप धर्म को जानकर, भव के अभाव के लिए उसी की भावना करो। ऐसे जिनधर्म को ही उत्तम एवं हितकारी जानकर उसका सेवन करो तथा राग की रुचि छोड़ो, पुण्य की रुचि छोड़ो.... जिससे तुम्हारे भव का अंत आए और मोक्षदशा प्राप्त हो जाए।

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