प्रवचन-5
शुद्धाात्मा के अनुभव में जिनशासन
अहो! एक तो समयसार ही पंद्रहवीं गाथा और दूसरी यह भावप्राभृत की 83वीं गाथा; इसमें आचार्यदेव ने समस्त जैनशासन का सत्त्व भर दिया है। इन दोनों गाथाओं का रहस्य गुरुगम से समझ लें तो सभी प्रश्नों का निकराकरण हो जाए।
भगवान की वाणी, जीवों की भलाई के लिए ही है। जिज्ञासु आत्मार्थी तो ऐसा विचार करता है कि ‘अहो! पुण्य, वह धर्म नहीं है’-ऐसा कहकर भगवान मुझे राग से भी पार मेरा चैतन्यस्वभाव बतलाकर, उसका अनुभव कराना चाहते हैं। इस प्रकार स्वभावोन्मुख होकर वह अपना हित साधता है।
यह भाव प्राभृत वचनिका हो रही है। 82वीं गाथा में जैनधर्म की श्रेष्ठता बतलाकर आचार्यदेव ने कहा कि हे जीवों! तु जिनशासन में कहे हुए वीतरागभावरूप धर्म को जानकर चतुर्गति के भव के अभाव के लिए उसी की भावना करो.... ऐसे जिनधर्म को ही उत्तम और हितकारी जानकर, उसका सेवन करो और राग की रुचि छोड़ो.... पुण्य की रुचि छोड़ो... जिससे तुम्हारे भव का अंत आए और मोक्ष प्राप्त हो।
जैनधर्म को ही श्रेष्ठ कहा तो वह जैनधर्म कैसा है? - कि भावी भव का नाश करके देने वाला है। आत्मा के ऐसे परिणाम कि जिसे संसार का नाश हो, उसका नाम जैनधर्म है और वह श्रेष्ठ-उत्तम है। इसलिए हे जीव! भावी भव का मंथन करने के लिए तू ऐसे जैनधर्म की रुचि कर... आत्मस्वभाव के आश्रय से शुद्धभाव प्रगट कर।
जिनशासन में धर्म का स्वरूप
अब, जिज्ञासु शिष्य पूछता है कि प्रभो! आपने जैनधर्म को उत्तम कहा और उसकी भावना करने को कहा तो उस धर्म का स्वरूप क्या है? आपने जैनधर्म की श्रेष्ठता कही तो मुझे उसका स्वरूप जानने की जिज्ञासा जागृत हुई है। जिसे धर्म की आकांक्षा है, अभिलाषा है - ऐसा जीव विनयपूर्वक पूछता है कि हे नाथ! जैनधर्म का सच्च स्वरूप क्या है? वह कृपा करके समझाओ!
ऐसे जिज्ञासु जीव को समझाने के लिए आचार्यदेव 83वीं गाथा में जैनधर्म का स्वरूप कहते हैं -
जिन शासन में जिनेन्द्रदेव ने ऐसा कहा है कि पूजादिक, व्रतसहित हों, वह तो पुण्य है और आत्मा के मोह-क्षोभरहित परिणाम, वह धर्म है।
देखो, यह गाथा अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुण्य और धर्म - दोनों का पृथक्-पृथक् स्वरूप बतलाकर आचार्यदेव ने स्पष्ट किया है कि शुभराग से जैनधर्म नहीं है; शुभराग, जैनधर्म नहीं है; शुभराग द्वारा जैनधर्म की महिमा नहीं है। जिनशासन में व्रत-पूजादि के शुभराग को भगवान ने धर्म नहीं कहा, किंतु उसे पुण्य कहा है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धपरिणाम को ही जिनशासन में भगवान ने धर्म कहा है, उसी से जिनशासन की महिमा है।
लौकिकजन कौन ?
जैनधर्म के नाम से भी अनेक लोग पुण्य को धर्म मानते हैं, शुभराग करते-करते धर्म होगा - ऐसा मानते हैं अर्थात् राग द्वारा जिनशासन की महिमा मानते हैं। उसका यहां आचार्यदेव स्पष्टीकरण करते हैं कि अरे भाई! जिनेश्वरदेव ने तो जिनशासन में उस राग को धर्म नहीं कहा है। लोकोत्तर ऐसा जो जैनमार्ग, उसमें तो व्रत-पूजादि के शुभराग को पुण्य कहा है; उसे धर्म नहीं कहा, किंतु लौकिकजन उसे धर्म माननेवालों को स्पष्टरूप से लौकिकजन तथा अन्यमती कहा है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव ही धर्म है, वही भव के नाश का कारण है तथा उसी से जिनशासन की श्रेष्ठता है।
शुद्धात्मा के अनुभव में जिनशासन
अज्ञानी पुकार करते हैं कि क्या पुण्य, जैनधर्म नहीं है? तो यहां निःशंकरूप से कहते हैं कि नहीं; राग-द्वेष-मोहरहित शुद्ध परिणाम ही जैनधर्म है। आचार्यदेव ने समयसार की 15वीं गाथा में भी स्पष्ट कहा है कि जो शुद्धात्मा की अनुभूति है, वह समस्त जिनशासन की अनुभूति है। अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष तथा असंयुक्त - ऐसे स्वभावरूप शुद्धात्मा को जो देखता है, वह समस्त जिनशासन को देखता है। बस! शुद्धात्मा के अनुभव में समस्त जिनशासन आ गया है? हां, उसी में जिनशासन आ गया और उसी में जिनशासन का समावेश हो गया।
अहो, एक तो समयगार की 15वीं गाथा और दूसरी यह भावप्राभृत की 83वीं गाथा - इसमें तो आचार्यदेव ने समस्त जैनशासन का सार भर दिया है। इन दो गाथाओं का रहस्य समझ लें तो सभी प्रश्नों का निराकरण हो जाए; इनमें अलौकिकभाव भरे हैं।
अरे, आजकल तो ‘जैन-कुल’ में जन्म लेने वालों को भी जैनधर्म के स्वरूप की खबर नहीं है। वे भी बाह्य क्रिया में या पूजा-व्रतादि के शुभराग में ही धर्ममान बैठे हैं, परंतु वह कहीं जैन धर्म का स्वरूप नहीं है; इसलिए आचार्यदेव ने यह गाथा रखकर स्पष्टीकरण किया है कि पूजा-व्रतादि का शुभराग, वह जैनधर्म नहीं है; जैनधर्म तो मोह-क्षोभरहित वीतरागभाव है। इसे समझे बिना ‘हमारा जैनधर्म ही ऊँचा है’ - ऐसा भले कहें, किंतु भाई! पहले तू स्वयं तो जैनधर्म का स्वरूप समझ! जैनधर्म की श्रेष्ठता किस प्रकार है? उसे जानकर ग्रहण करने से तेरा हित होगा।
जिनशासन में जिनवरों का उपदेश
आचार्यदेव, तीर्थंकर भगवंतों की साक्षी देकर कहते हैं कि ‘जिनैः शासने भणितं’ अनन्त तीर्थंकर जिनशासन में हुए हैं, वर्तमान में भी पंच विदेहक्षेत्र में सीमन्धरभगवान आदि बीस तीर्थंकर विराजमान हैं, उन तीर्थंकरभगवंतों ने जिनशासन में ऐसा कहा है -
क्या कहा है? - कि ‘पूजादिषू व्रतसहितं पुण्यं हि’ अर्थात् पूजादिक व्रतसहित जो हो, वह पुण्य है। तब फिर भगवान ने धर्म किसे कहा है? कि ‘मोह क्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः’ अर्थात् मोह-क्षोभरहित आत्मा के परिणाम, वह धर्म है - ऐसा जिनेन्द्र भगवन्तों ने जिनशासन में कहा है। इससे दूसरे प्रकार माने अर्थात् राग को, पुण्य को धर्म माने तो वह भगवान के जिनशासन का स्वरूपनहीं समझा है।
धर्मी के व्रत, पुण्य है या धर्म?
यहां व्रतसहित को भी पुण्य कहा है, उसमें व्रत कहने से श्रावक के अणुव्रत और मुनियों के महाव्रत दोनों आ जाते हैं। सच्च व्रत तो सम्यग्दर्शन के पश्चात् पांचवें-छठवें गुणस्थान में ही होते हैं। अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि को सच्चे व्रत नहीं होते। अज्ञानी को तो धर्म का भान नहीं है किंतु सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को भी व्रतादि की जो शुभवृत्ति उत्पन्न होती है, वह पुण्यबंध का कारण है; धर्म नहीं है। जिनता अरागभाव (सम्यग्दर्शनादि) वर्तता है, उतना धर्म है, वह जिनशासन है और जो व्रतादिक का राग रहा है, वह धर्म नहीं है किंतु पुण्य है। पुण्य को जिनशासन में धर्म नहीं कहा है; मोह क्षोभरहित जो शुद्ध चैतन्यपरिणाम, उसी को धर्म कहा है।
छठवें गुणस्थान में भावलिंगी संत मुनि को पंच महाव्रत की जो शुभवृत्ति उत्पन्न होती है, वह भी धर्म नहीं है - यह बात सुनकर अज्ञानी भड़क उठता है। उसे राग की रुचि है, इसलिए वह भड़क उठता है किंतु भाई! तू धीरज रख....। हृदय को स्वस्थ रखकर शांतिपूर्वक यह बात सुन! राग से पार चैतन्यतत्व क्या वस्तु है? उसकी तुझे खबर नहीं है और तूने राग को ही धर्म माना है किंतु भाई! राग तो तेरे वीतरागी चैतन्यस्वभाव से विरुद्धभाव है, उसमें तेरा धर्म कैसे हो सकता है? पंच महाव्रत की वृत्ति के समय भी मुनियों के अंतर में उस वृत्ति से पार ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा की श्रद्धा-ज्ञानलीनता से जितना मोह का तथा राग का अभाव हुआ है, उतना ही धर्म है, वह मोक्ष का कारण है और जो राग रहा है, वह धर्म नहीं है, मोक्ष का कारण नहीं है।
अज्ञानी की महान भूल
अज्ञानी को तो धर्म का अंश भी नहीं है, वह शुभराग से व्रतादि का पालन करे तो वह पुण्य का कारण है। समयसार में तो उस पुण्य को विषकुम्भ अर्थात् विष का घड़ा कहा है। यद्यपि सम्यक्त्वी को अंशतः वीतरागभावरूप सम्यग्दर्शनादि धर्म प्रगट हुआ है, तथापि उसे भी व्रत-पूजादि का जो शुभभाव है, वह तो पुण्य का ही कारण है और समयसार में तो उसे भी निश्चय से विषकुम्भ कहा है; शुद्धात्मा के अनुभव को ही अमृतकुम्भ कहा है।