।। भावप्राभृत ।।
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इस ‘भावप्राभृत’ में शुद्धभाव की प्रधानता है अर्थात् शुद्धभाव ही मोक्ष का कारण है - ऐसा बतलाया है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो वीतरागी शुद्धभाव है, वही मोक्ष का कारण होने से उपादेय है; इसलिए अतिरिक्त शुभ या अशुभराग, वह सचमुच उपादेय नहीं है।

मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप शुद्धभाव की प्राप्ति, जैनशासन में ही है और उसी से जैनशासन की महिमा है। मोह अथवा राग-द्वेष, वह जैनधर्म नहीं है, किन्तु मोह और राग-द्वेष से रहित - ऐसा वीतरागी शुद्धभाव ही जैनधर्म है।

यह भावप्राभृत है। कौन-सा भाव उपादेय अथवा मोक्ष का कारण है? यह यहां बतलाना है। भावों के तीन प्रकार होते हैं - शुभ, अशुभ और शुद्ध। उनमें शुभभाव तो पुण्यबंध का कारण है; अशुभभाव, पापबंधन का कारण है और शुद्धभाव तो शुद्धस्वभाव ही है; इसलिए वह मोक्ष का कारण है। इस प्रकार जिनेश्वरदेव ने तीन भाव कहे हैं, उन्हें जानकर हे जीव! जो श्रेयस्कर हो, उसका तू आचरण कर।

इस भावप्राभृत में शुद्धभाव की प्रधानता है। यह शुद्धभाव ही मोक्ष का कारण है; इसलिए यही उपादेय है अर्थात् शुद्धभाव ही सच्चाधर्म है। साधकदशा में शुद्धभाव के साथ शुभभाव भी होता है। किंतु वह शुभराग, धर्म नहीं है; उसे धर्म कहना उपचारमात्र है। यद्यपि अशुभभाव की अपेक्षा से शुभभाव को भी व्यवहार से उपादेय कहा जाता है किंतु परमार्थ से तो वह हेय ही है।

आत्मा, सम्यगानमय चैतन्यसूर्य है, उसके प्रकाश में शुभ-अशुभभाव ज्ञात होते हैं किन्तु वे चैतन्यसूर्य के साथ एकमेक नहीं हैं, वे भाव चेतन्यसूर्य से भिन्न है।

रागरहित शुद्धभाव अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव, वह आत्मा का स्वभाव है; उसकी चैतन्य के साथ एकता है। इस प्रकार शुद्ध तथा शुभ-अशुभभावों को जानकर, उनमें से कल्याणकारी भाव को अंगीकार करने का जिनदेव का उपदेश है।

प्रश्न - कौन-सा भाव, कल्याणकारी है?

उत्तर - शुद्धभाव अर्थात् सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप वीतरागभाव ही वास्तव में जीव को कल्याणकारी है; इसलिए वही उपादेय है। अतः हे जीव! तू उन सम्यग्दर्शनादिक शुद्धभावों को सम्यक् प्रकार से अंगीकार कर - ऐसा भगवान का उपदेश है।

1 हिंसादि अशुभभाव से तो पाप का बंधन होता है और उसका फल दुर्गति में भ्रमण होता है, तो उसे श्रेयकारी/कल्याणकारी कैसे कहा जा सकता है?

2 इसी प्रकार दया अथवा व्रतादि के शुभभाव से पुण्य का बंधन होता है और उसके फल में स्वर्गादिक के भव मिलते हैं, किन्तु उसके द्वारा भवभ्रमण का नाश नहीं होता; अतः उस शुभभाव को श्री श्रेयकारी कैसे कहा जाएगा?

3 शुभ और अशुभ, दोनों से पार चिदानन्द आत्मस्वभाव की सम्यक्श्रद्धा जीव ने पहले कभी एक क्षण भी नहीं की है। यदि एक बार भी सम्यक्श्रद्धा करे तो अल्पकाल में मुक्ति हो जाए। इस प्रकार सम्यक्श्रद्धा-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, वह शुद्धभाव है और उसका फल परमश्रेयरूप मोक्ष है; इसलिए वह शुद्धभाव ही जीव को सचमुच श्रेयकारी है।

-ऐसा जानवर हे जीव! तू अपने श्रेय के लिए सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावों को अंगीकार कर, ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है।

शुद्धरत्नत्रय से ही जिनशासन की महिमा

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जीव को श्रेय के लिए सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव अंगीकार करने को कहा। अब कहते हैं कि उस रत्नत्रयरूप बोधि की प्राप्ति जैनशासन में ही होती है। यह जिनशासन की महिमा है कि जीव को तीन भुवन में पूज्य ऐसी बोधि की प्राप्ति जिनशासन में ही होती है। बोधि अर्थात् रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग, वह तीन लोक में पूज्य है और उसकी प्राप्ति जिनशासन में ही होती है। उसकी प्राप्ति कैसे जीव को होती है? एक तो जिसका मिथ्यात्वरूप मोह नष्ट हो गया है तथा परद्रव्य अहंकार-ममकाररूप मान-कषाय जिसका गल गया है; इस प्रकार मिथ्यात्व तथा पर में इष्ट-अनिष्टपने की बुद्धि के नाश से जिसका समभावी चित्त हुआ है - ऐसा जीव जिनशासन में अपूर्व बोधि को प्राप्त होता है।

देखा, यह जिनशासन की महिमा! अन्य प्रकार से जिनशासन का माहात्म्य नहीं है किंतु बोधि अर्थात् शुद्ध रत्नत्रयरूप भाव की प्राप्ति जैन शासन में ही होती है; उस शुद्ध रत्नत्रय के भाव द्वारा ही जैनशासन की महिमा है अर्थात् वही वास्तव में जैनशासन है। राग, वह जैनशासन नहीं है। जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो, श्रेय हो, हित हो - ऐसे शुद्धभाव द्वारा ही जैनशासन की प्रधानता है; पुण्य द्वारा उसकी प्रधानता नहीं है।

अहो! तीन भुवन में सारभूत ऐसी जो रत्नत्रयरूप बोधि, उसे जीव, जैनशासन में ही प्राप्त करता है; उसके सिवा अन्यत्र तो बोधि/मोक्षमार्ग है ही नहीं। जैनशासन में ही यथार्थ श्रद्धा-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि का उपदेश है और उसकी प्राप्ति भी जैनशासन में ही है। ‘जैनशासन’ कहीं बाह्य में नहीं है किंतु आत्मा के शुद्धपरिणाम ही जैनशासन है।

देखो, एक और स्वद्रव्य, दूसरी ओर परद्रव्य; उसमें स्वद्रव्याश्रित परिणमन, मोक्ष का कारण है और परद्रव्याश्रित परिणमन, संसार का कारण है।

जगत में स्वद्रव्य तथा परद्रव्य एक साथ हैं, किंतु वे भिन्न-भिन्न हैं। चैतन्यस्वरूप आत्मा एक ही स्वद्रव्य है और उसके अतिरिक्त शरीरादि सब परद्रव्य हैं। पर से भिन्न चैतन्यस्वरूप स्वद्रव्य में ही अहंबुद्धि अर्थात् ‘यही मैं हूं’- ऐसी मान्यता, यह यथार्थ श्रद्धा है और चैतन्यस्वरूप से च्युत होकर शरीरादिक परद्रव्य में अहं - ममबुद्धि, वह मिथ्याश्रद्धा है अर्थात् परवस्तु को अपनी मानना, वह विपरीत श्रद्धा है।

देखो! जगत् में स्वद्रव्य है और परद्रव्य भी हैं, जीव भी है और अजीव भी है; स्वद्रव्य का भान करके, उसके आश्रय से मोक्षमार्ग की साधना करनेवाले जीव भी हैं तथा स्वद्रव्य को भूलकर परद्रव्य में अहं-मम बुद्धिरूप भ्रम से संसार में भटकने वाले जीव भी हैं। वह भ्रमण, क्षणिक पर्याय में हैं। चैतन्य की यथार्थ पहिचान द्वारा वह भ्रमण दूर करने से सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र तथा मोक्षदशा प्रगट होती है और आत्मा अखंडरूप से नित्य/स्थिर रहता है। इसमें सातों तत्त्व आ जाते हैं। ऐसी यथार्थ तत्त्वों की बात जैनशासन में ही है और उसी में बोधि की प्राप्ति हो सकती है; इसके अतिरिक्त कहीं बोधि का यथार्थ उपदेश या उसकी प्राप्ति नहीं है।

कोई या तो अकेले जीव को ही माने और अजीव का अस्तित्त्व जगत् में बिलकुल न माने; अथवा वस्तु को सर्वथा क्षणिक/परिणमनशील ही माने और उसकी ध्रुवता को स्वीकार न करे; अथवा वस्तु को सर्वथा धु्रव ही माने और उसकी पर्यायों का परिणमन स्वीकार न करें; अथवा राग या निमित्तों के आश्रय से जीव का हित होना माने-तो वे सब अन्यमत हैं, उनमें कहीं भी यथार्थ बोधि की, मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं होती। जैनशासन में ही यथार्थ बोधि की प्राप्ति होती है। तीन भुवन में सारभूत रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग तो जैनशासन के सेवन से ही प्राप्त होता है - ऐसा उसका माहात्म्य है।

कैसा जीव, बोधि प्राप्त करता है?

जैनशासन में बोधि प्राप्त करने वाला जीव कैसा होता है? जिसे शुद्ध चैतन्यमूर्ति स्वद्रव्य में ही अहंबुद्धि हुई है और परद्रव्य में से अहंबुद्धि छूट गयी है; राग में भी लाभ की मान्यता छूट गई है - ऐसा जीव, जैनशासन में बोधि प्राप्त करता है। जिसे राग की रुचि है, उसे परद्रव्य की ही प्रीति है, उसे जैनशासन की खबर नहीं है। जैनशासन तो यह कता है कि शुद्धभाव ही हितकर है और वही उपादेय है। राग, वह जैनशासन नहीं है, वह तो विकार है; इसलिए हेय है।

एक ओर शुद्धभाव और दूसरी ओर उसे विरुद्ध विकार; उनमें से जिसे शुद्धभाव की रुचि है, उसे राग की रुचि नहीं है और जिसे विकार की रुचि है, उसे स्वभाव की रुचि नहीं है। ऐसी बात जैनशासन में ही है; इसलिए जिसे जैनशासन की रुचि है, उसे राग की रुचि नहीं है और जिसे राग की रुचि है, उसे जैनशासन की रुचि नहीं है। जैनशासन, राग से धर्म नहीं मानता। मन्दराग से परमार्थ धर्म की प्राप्ति होती है - यह मिथ्यादृष्टि की मान्यता है। श्वेताम्बरमत भी मिथ्यादृष्टि को राग से (दान, दया से) धर्म होना मानता है, वह सचमुच जैनशासन नहीं है।

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