।। जिनशासन का रहस्य ।।
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प्रवचन-7

जिनशासन का रहस्य

तीर्थंकर भगवन्तों ने दिव्यध्वनि द्वारा जो जिनशासन कहा है, वही यहां कुन्दकुन्दाचार्य देव ने घोषित किया है।

धर्म तो आत्मा का अन्तर्मुखीभाव है.... अहो! अन्तर्मुख होकर चैतन्यस्वभाव का निरीक्षण करो!

हे भाई! तू धैर्य रखकर सुन... यह तेरे हित की बात है। तेरा श्रेय किसमें है? वह जानकर तू उसका आचरण कर।

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय, तीन भुवन में साररूप है, वही श्रेयरूप है, उसकी प्राप्ति जिनशासन में ही होती है; इसलिए जिनशासन की श्रेष्ठता है। उसी की उपासना करने का जिनशासन में उपदेश है।

जो राग को धर्म मानता है, वह वीतरागी जैनधर्म का भक्त नहीं है; वह तो जैनधर्म का विरोधी है।

(श्रीअष्टप्राभृत, गाथा 83 का मुख्य प्रवचन)

सारभूतभाव

यह ‘भावप्राभृत’ की वचनिका हो रही है।

भावप्राभृत अर्थात् भावों में सार; जीव के भावों में सारभूतभाव कौन-सा है? अर्थात् मोक्ष के कारणरूप भाव कौन-सा है, वह यहां बतलाते हैं।

इस भावप्राभृत की कुल 165 गाथाएँ हैं, उनमें से यह 83वीं गाथा बिलकुल बीच की है। 82 गाथाएँ इसके आगे रहीं और 82 पीछे। इस बीच की गाथा में आचार्यदेव ने अलौकिक रीति से जिनशासन का रहस्य समझाया है।

जीव के भाव तीन प्रकार के हैं - 1. अशुभ, 2. शुभ और 3. शुद्ध। मिथ्यात्व तथा हिंसादिकभाव को अशुभ है, वे तो पापबन्ध का कारण हैं तथा दया-पूजा-व्रतादि के भाव, वे शुभ हैं, वे पुण्यबंध का कारण हैं; वे कहीं मोक्ष का कारण नहीं हैं और मिथ्यात्व तथा राग-द्वेष रहित - ऐसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो शुद्धभाव हैं, वह धर्म है, वह मोक्ष का कारण है और जिनशासन में भगवान ने ऐसे शुद्धभाव को ही सारभूत कहा है।

वीतरागी संत की वीतरागी वाणी

अनन्त तीर्थंकर भगवंतों ने दिवध्वनि द्वारा जो जिनशासन कहा है, वही यहां कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने घोषित किया है। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व, वे इसी भरतक्षेत्र में हो गए हैं .... वे यहां से महाविदेहक्षेत्र में साक्षात् तीर्थंकर श्रीसीमन्धर भगवान के पास गए थे। सीमंधर भगवान वर्तमान में भी वहां विराज रहे हैं और लाखों-करोड़ों वर्ष तक रहेंगे, क्योंकि उन भगवान की आयु एक करोड़ पूर्व की है। ऐसे जिनेश्वर भगवान की दिव्यध्वनि, महाविदेहक्षेत्र में साक्षात् सुनकर आचार्यदेव यहां आए और उन्होंने इन समयसारादि महान शास्त्रों की रचना की। उन शास्त्रों में जिनेश्वर भगवन्तों ने क्या कहा है, वह उन्होंने घोषित किया है।

इस गाथा में कहते हैं कि जिनशासन में जिनेन्द्र भगवन्तों ने व्रत-पूजादिक शुभराग को पुण्य कहा है और आत्मा के मोह-क्षोभरहित शुद्धपरिणाम को धर्म कहा है। देखो, यह वीतरागी संत की वीतरागी वाणी! वीतरागीभाव ही जैनधर्म है; राग, वह जैनधर्म नहीं है।

पुण्य और धर्म, दोनों वस्तुओं को भगवान ने जिनशासन में भिन्न-भिन्न कहा है। पुण्य तो आस्रव-बंधरूप है अर्थात् संसार का कारण है और धर्म, संवर-निर्जरारूप है, वह मोक्ष का कारण है। इस प्रकार पुण्य, दूसरी वस्तु है और धर्म तो आत्मा का अंतर्मुखी भाव है। अहो! अंतर्मुख होकर चैतन्यस्वभाव का निरीक्षण करो...। चैतन्यस्वभाव का निरीक्षण करने से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धपरिणाम होते हैं, उसी को भगवान ने धर्म कहा है। यही बात समयसार में कही है कि जो शुद्धात्मा का अनुभव करता है, वह समस्त जिनशासन का अनुभव करता है।

लोकोत्तर जिनधर्म.... और लौकिकजनों का भ्रम

देखो, यह लोकोत्तर निजधर्म का स्वरूप! पुण्य को धर्म कहना तो लौकिकजनों की उक्ति है। बस, यह ‘लौकिकजन’ शब्द कुछ पंडितों को खटकता है। लोकोतर जिनमार्ग के प्रति लौकिकजनों की कैसी मान्यता है? - यह बात स्वर्गीय पंडित जयचंदजी छाबड़ा ने भावार्थ में स्पष्ट की है। लोकोत्तर जिनेन्द्र भगवान तो कहते हैं कि पुण्य, वह धर्म नहीं है; सम्यग्दृष्टि आदि भी लोकोत्तर दृष्टिवाले हैं, और वे ऐसा ही मानते हैं।

लौकिकजन अर्थात् जो मात्र व्यवहार को ही धर्म माननेवाले मिथ्यादृष्टि जीव, व्रत-पूजादि के शुभराग को धर्म मानते हैं किंतु वह वास्तव में धर्म नहीं है। धर्म तो वह है कि जिसे जन्म-मरण का नाश हो। ऐसा धर्म तो मोह-क्षोभरहित जीव का शुद्धपरिणाम है। ऐसे शुद्ध आत्मपरिणाम को धर्म मानना ही यथार्थ है तथा वही निश्चय है और पुण्य को धर्म कहना तो मात्र लौकिकजनों का कथन है। उस लोकोक्ति को व्यवहार कहा है। जो उस लौकिक कथन को ही यथार्थ मान लेते हैं अर्थात् रागरहित निश्चयधर्म का स्वरूप तो समझते नहीं हैं और शुभराग को उपचार से धर्म कहा, उसी को सचमुच धर्म मान लेते हैं, वे लौकिकजन हैं; वे वास्वत में जैनमती नहीं, किंतु अन्यमती हैं।

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लौकिकजन तथा अन्यमती, व्रज-पूजादि शुभराग को जिनधर्म मानते हैं। प्रतिमा कितनी? व्रत कितने? इस प्रकार मात्र शुभराग से अज्ञानी जिनधर्म का माप निकालते हैं। व्रत, प्रतिमा आदि का शुभराग ही जिनधर्म है - ऐसा लौकिकजन तथा अन्यमती मानते हैं, किंतु लोकोत्तर जैनमत में ऐसा नहीं है। जिनशासन में तो भगवान ने वीतरागभाव को ही धर्म कहा है। चिदानन्द आत्मस्वभाव को अंतर्मुख श्रद्धा-ज्ञान में लेकर उसमें लीनतारूप शुद्धभाव ही जैनधर्म है, उसी से जन्म-मरण का अंत आकर मोक्ष की प्राप्ति होती है, वही ज्ञेयरूप है।

‘यः श्रेयान् तं समाचार’

‘पुण्य से धर्म नहीं होता’ - यह बात कुछ लोगों को नयी मालूम होती है और यह सुनते ही वे भड़क उठते हैं कि ‘अरे! क्या पुण्य, धर्म नहीं है! और पुण्य को धर्म माननेवाला लौकिकजन!!’ हां भाई- ऐसा ही है। तू धैर्यपूर्वक सुन तो सही! यह तेरे हित की बात है। जैनधर्म क्या वस्तु है, उसकी बात तूने अभी सुनी ही नहीं है, इसलिए तुझे नयी मालूम होती है लेकिन तीर्थंकर भगवंत, अनादि काल से यही कहते आ रहे हैं और उसी प्रकार साधना कर-करके अनन्त जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया है। हजारों वर्ष से संत यह बात कहते ही आए हैं, दो सौ वर्ष पहले जयपुर के पंडित जयचंद जी छाबड़ा ने भी यही बात स्पष्ट की है और आज भी ढिंढोरा पीटकर यही बात कही जा रही है। भविष्य में भी संत यही कहेंगे। त्रिकाल एक ही प्रकार का जैनधर्म है।

अहो! यह परमसत्य बात है परंतु यह बात स्वीकार करने से आज तक की पंडिताई पर पानी फिर जाता है; इसलिए कई लोगों के मन में उथल-पुथल मच जाती है, किंतु यदि आत्मा का हित करना हो, श्रेय करना हो तो इसे समझना अनिवार्य ही है।

भाई! अपने आत्महित के लिए तू इसे समझ! बाहर की सेठियाई और शास्त्रों की पंडिताई तो अनन्त बार मिली, उसमें तेरा कोई हित नहीं है। यह चैतन्यस्वभाव और उसका वीतरागधर्म क्या है? - उसे समझ, उसी में सच्चा पाण्डित्य है। इसलिए हे वत्स! तेरा श्रेय किसमें है? - उसे जानकर तदनुसार आचरण कर।

जैनधर्म कोई कुलधर्म नहीं, वह तो शुद्धभाव है।

कोई कहे कि ‘जैनकुल में जन्म लिया, उसे भेदज्ञान तो हो ही गया’ - तो यह बात मिथ्या है। भेदज्ञान कैसी अपूर्व वस्तु है? इसका उसे पता नहीं है और कुलधर्म को ही जैनधर्म मानता है। जैनकुल में जन्म लिया; इसलिए भले ही जैन, पंडित या त्यागी नाम धारण कर लें किंतु मोहादि रहित यथार्थ जैनधर्म क्या वस्तु है? उसे जो नहीं समझते और राग को ही धर्म मान रहे हैं, वे वास्तव में लौकिकजन ही हैं। लौकिकजनों की ओर से उनकी मान्यता में कोई अंतर नहीं है।

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