।। शुद्धभाव से ही जिनशासन की शोभा ।।
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प्रवचन-2

शुद्धभाव से ही जिनशासन की शोभा

जैनशासन का उपदेश ऐसा कहता है कि अरे चैतन्य! तू स्वसन्मुख हो... स्वसन्मुख होना ही जागृति का उपाय है... स्वसन्मुखता में ही तेरा हित है, उसी में मोक्ष मार्ग है। भाई रे! आत्मा क्या है! उसके भाव बिना तेरी जागृति कहां से होगी?

- तुझे आत्मा की भावना है या कर्मबंध की?

- तुझे छुटकारे की भावना है या बंधन की?

- तुझे मोक्ष की भावना है या संसार की?

- तुझे शुद्धता की भावना है या विकार की?

हे भाई! यदि तुझे छुटकारे की भावना हो, मोक्ष की भावना हो, शुद्धता की भावना हो, तो जैनशासन में कहे हुए सम्यक्त्वादि शुद्धभावों का सेवन कर और रागादि का सेवन छोड़! धर्मी को राग की भावना नहीं होती; उसे तो शुद्ध आत्मा की ही भावना होती है।

ख्श्रीभावप्राभृत, गाथा 79 पर प्रवचन,

अब कहते हैं कि जिन शासन में ऐसी मुनि ही तीर्थांकर प्रकृति बाँधता है -

विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाइं भाऊण।
तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ।। 79 ।।
विषयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा।
तीर्थंकरनामकर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ।। 79 ।।
जो श्रमण विषयों से विरत वे सोलहकारणभावना।
भा तीर्थंकर नाम प्रकृति को बाँधते अतिशीघ्र ही ।।

अर्थात् जिसका चित्त इंद्रियों के विषयों से विरक्त है - ऐसा श्रमण, अर्थात् मुनि है, वह सोलहकारणभावना को भाकर ‘तीर्थंकर’ नामकर्म प्रकृति को थोड़े ही समय में बाँध लेता है।

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भावार्थ यह भाव का माहात्म्य है, (सर्वज्ञ-वीतराग कथित तत्वज्ञानसहित, स्वसन्मुखतासहित) विषयों से विरक्तभाव होकर सोलहकारण भावना भावे तो अचिन्त्य है महिमा जिसकी - ऐसी तीन लोक से पूज्य ‘तीर्थंकर’ नाम प्रकृति को बांधता है और उसको भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है। ये सोलहकारण भावना के नाम हैं - 1. दर्शनविशुद्धि, 2. विनयसम्पन्नता, 3. शीलव्रतेष्वनतिचार, 4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, 5. संवेग, 6. शक्तितस्त्याग, 7. शक्तितस्तप, 8. साधुसमाधि, 9. वैयावृत्त्यकरण, 10. अर्हद्भक्ति, 11. आचार्य-भक्ति, 12. वहुश्रुतभक्ति, 13. प्रवचन भक्ति, 14. आवश्यकापरिहाणि, 15. सन्मार्गप्रभावना, 16. प्रवचनवात्सल्य, इस प्रकार सोलह भावनाएँ हैं, इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानना चाहिए। इनमें सम्यग्दर्शन प्रधान है, यह न हो और पंद्रह भावना का व्यवहार हो तो कार्यकारी नहीं और यह हो तो पंद्रह भावना का कार्य यही कर ले, इस प्रकार जानना चाहिए।

सम्यक्त्वी को ही सोलहकारणभावना और तीर्थंकरप्रकृति

अब कहते हैं कि उत्कृष्ट पुण्यबंधनरूप तीर्थंकरप्रकृति भी जिनशासन में सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को ही बँधती है; मिथ्यादृष्टि को वैसे पुण्य भी नहीं होते। अहो! धर्म की बात तो क्या करें! किंतु जिससे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो - ऐसे शुभभाव भी सम्यग्दृष्टि को ही आते हैं़; मिथ्यादृष्टि को वैसे भाव ही नहीं होते।

अहो! तीर्थंकर के वैभव की क्या बात! उनके आत्मा का चैतन्यवैभव तो अचिन्त्य होता ही है, बाह्य पुण्यवैभव भी लोकोत्तर होता है। सौ इंद्र जिनके चरणों की पूजा करते हैं, उनके पुण्य की भी क्या बात! सौ इंद्रों के पुण्य की अपेक्षा भी जिनका पुण्य उत्तम है - ऐसे तीर्थंकरदेव और उनके दिव्य समवसरण को जो प्रत्यक्ष देखे, उसी को खबर पड़ सकती है! लेकिन यहां तो यह बतलाना है कि ऐसा भाव, सम्यग्दृष्टि को ही आता है। सम्यग्दर्शन सहित भूमिका में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है; अन्य भूमिका में नहीं। चैथे गुणस्थान में भी सम्यक्त्वी को, जिसके वैसी योग्यता हो उसे, तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है, किंतु यहां उत्कृष्ट बात बतलाने के लिए इस गाथा में मुनि की बात ली है।

तीर्थंकर नामकर्मप्रकृति के आस्रव के कारणभूत सोलहकारण-भावनाओं का वर्णन किया है, उनमें सबसे पहली भावना, दर्शनविशुद्धि है। वह दर्शनविशुद्धि मुख्य है और वह सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होती। सम्यग्दर्शन के बिना कोई जीव ऐसा माने कि मैं सोलहकारणभावना भाकर तीर्थंकरप्रकृति बाँधने की भावना है, उसे आस्रव की भावना है; इसलिए वह मिथ्यादृष्टि है और मिथ्यादृष्टि को भी तीर्थंकर नामकर्म का बंध नहीं होता।

यहाँ वास्वत में तीर्थंकर कर्मप्रकृति की महिमा नहीं बतलाना है किंतु सम्यग्दर्शन की महिमा बतलाना है। किसी सम्यग्दृष्टि जीव को सोलहकारणभावनाओं में से सम्यग्दर्शन की शुद्धि ही हो अर्थात् दर्शनविशुद्धि भावना ही हो और दूसरे पंद्रह कारण विशेषरूप से न हों, तथापि उसे तीर्थंकरप्रकृति का बंध हो सकता है, किंतु दर्शनाविशुद्धि ही न हो तो ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को तीर्थंकरप्रकृति का बंध नहीं हो सकता।

सम्यग्दृष्टियों में भी जिस द्रव्य में उस प्रकार की अर्थात् तीर्थंकर होने की योग्यता हो, उसी को उस प्रकृति का बंध होता है; सभी सम्यदृष्टि जीवों को तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता। अमुक जीवद्रव्य में ही उस प्रकार की विशिष्ट योग्यता होती है, उसी को उस प्रकृति का बंध होता है, किन्तु जिसे उस अचिन्त्य तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है, उसे सम्यग्दर्शनसहित की भूमिका में ही वह होता है; मिथ्यादृष्टि की भूमिका में तो उस प्रकृति का बंध होता ही नहीं - ऐसी सम्यग्दृष्टि के भाव की महिमा है।

तीन लोक में उत्तम और सारभूत ऐसी अपूर्व बोधिरूप मोक्षमार्ग, सम्यग्दृष्टि को ही होता है। उसी प्रकार तीन लोग में उत्तम पुण्यरूप ऐसी तीर्थंकरप्रकृति भी सम्यग्दृष्टि को ही होती है। इस प्रकार यहां सम्यग्यदर्शन की महिमा बतलाना है। सम्यक्त्वी को कहीं कर्म के आस्रव की अर्थात् तीर्थंकरप्रकृति की भी भावना नहीं है; भावना तो शुद्धता की ही है। सोलहकारणभावना है, उसमें भी कहीं उस प्रकार के राग की या आस्रव की भावना नहीं है; स्वभाव की पूर्णता की ही भावना है। उस भावना में बीच में उस प्रकार की विकल्पों से तीर्थंकरप्रकृति आदि पुण्य का बंध होता है।

तीर्थंकरप्रकृति बँधने का प्रारंभ सम्यक्त्वी को मनुष्यभव में ही होता है और वह भी केवली या श्रुतकेवली के सान्निध्य में ही होता है। महावीर भगवान के समय इस भरतक्षेत्र में श्रेणिकराजा ने सम्यग्दर्शन सहित भूमिका में तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया है और इस समय नरक में होने पर भी वहां उन्हें प्रतिक्षण तीर्थंकरप्रकृति के रजकणों का बंध हो रहा है। वहां से निकलकर वे इस भरतक्षेत्र में आगामी चैबीसी में प्रथम तीर्थंकर होंगे। उस भवन में राग तोड़कर केवलज्ञान होने के पश्चात् उसी तीर्थंकरप्रकृति का उदय आयेगा और उसके निमित्त से इंद्र, अद्भुत समवसरण की रचना करेंगे तथा दिव्यध्वनि खिरेगी; जिसके निमित्त से अनेक जीव धर्म प्राप्त करेंगे। सम्यग्दर्शनसहित शुद्धभाव की भूमिका में ही होता है; इसलिए यहां तो उन सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावों की महिमा बतलाना है। उस शुद्धभाव की प्राप्ति जैनशासन की महिमा है।

जैनशासन का उपदेश यह कहता है कि अरे चैतन्य! तू स्वोन्मुख हो.... स्वसन्मुख हो! स्वसन्मुखह होना ही जागृति का उपाय है, स्वसन्मुखता में ही तेरा हित है; उसी में मोक्ष मार्ग है। भाई रे! आत्मा क्या है? उसके भान बिना तेरी जागृति कहां से होगी? तुझे आत्मा की भावना है या कर्म बंधन की? तुझे छुटकारे की भावना है या बंधन की? तुझे मोक्ष की भावना है या संसार की? यदि तुझे छुटकारे की भावना हो तो जैनशासन में कहे हुए शुद्धभावों का सेवन कर और राग का सेवन छोड़।

धर्मी को बंधन की भावना नहीं होती, उसे तो शुद्धात्मा की ही भावना होती है। आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव की ही उसे भावना है। वीतरागभाव की जैनधर्म है; राग है, वह जैनधर्म नहीं है। जिसे राग की भावना है, उसे जैनधर्म का पता नहीं है। यह बात आचार्यदेव 83वीं गाथा में एकदम स्पष्ट करेंगे।

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