।। शुद्धभाव से ही जिनशासन की शोभा ।।
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(12) बहुश्रुतभक्ति

श्रुतकेवली अथवा उपाध्याय अथवा विशेष श्रुतधारी संतों के प्रति धर्मी को जो भक्ति होती है, उसका नाम बहुतश्रुतभक्ति है। अंतर में अपने भावश्रुतज्ञान को चिदानन्दस्वभाव में एकाकार किया है, उतनी तो भावश्रुत की निश्चयभक्ति की है और वहां विशेष श्रुतज्ञानधारी संत के प्रति बहुमान का भक्तिभाव आता है, उसके निमित्त से किसी को तीर्थंकरप्रकृति का बंध भी होता है। श्रुतज्ञान क्या है? उसी की जिसे खबर नहीं है, ऐसे अज्ञानी को सच्ची श्रुतभक्ति नहीं होती और न उसे तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है।

भावश्रुत तो ज्ञानपरिणति है, उस ज्ञानपरिणतिम की अंतर के परमात्मा के साथ एक होने पर ‘आनन्द पुत्र’ का जन्म होता है। अभव्य को ऐसी ज्ञानपरिणति नहीं होती; इसलिए उसके आनन्द का जन्म नहीं होता, किंतु आकुलता का ही जन्म होता है, क्योंकि वह अपने ज्ञान को बाह्य में और राग में ही एकाग्र करता है; इसलिए आकुलता की ही उत्पत्ति होती है। ज्ञानी को चिदानन्दस्वभाव में ज्ञानपरिणति की एकता होने से अतीन्द्रिय आनन्द का जन्म होता है।

(13) प्रवचनभक्ति

भगवान के कहे हुए और संतों के गूंथे हुए जो महान् शास्त्र हैं, उनके प्रति धर्मी को भक्ति का भाव आता है, उसमें भी उपरोक्तानुसार ही समझ लेना चाहिए।

(14) आवश्यकों का अपरिहार

सम्यग्दर्शन के पश्चात् चारित्रदशा में सामायिक, प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रियाएं होती हैं; इसलिए उस-उस काल में उस प्रकार का विकल्प आता है। वहां जब जिस आवश्यक का काल हो अर्थात् सामायिकादि का जो समय हो, उस काल में वह बराबर करना और उनमें भंग नहीं पड़ने देना, उसका नाम आवश्यक का अपरिहार है। निर्विकल्पदशा न हो, वहां सम्यक्त्वी को ऐसा भाव आता है- यह उसकी बात है। सम्यग्दर्शन के बिना तो सामायिकादि होते ही नहीं। सामायिकादि सम्यग्दृष्टि के ही होते हैं और जो रागरहित सामायिक है, वह कहीं बंध का कारण नहीं है किंतु इसके साथ का उस प्रकार का विकल्प, वह तीर्थंकरप्रकृति आदि के आस्रव का कारण है।

(15) मार्ग प्रभावना

रत्नत्रयरूप जो मार्ग है, उसकी प्रभावना का भाव, धर्मी को आता है। अज्ञानी को तो मार्ग का पता ही नहीं है; अतः जिसने मार्ग जाना हो, वही उसकी प्रभावना करेगा न! प्रभावना में सबसे उत्तम प्रभावना तो ‘आत्म प्रभावना’ अर्थात् ‘आत्मा की विशेष भावना’ है। उस आत्म प्रभावना का रत्नत्रयरूपी तेज द्वारा उद्यापन होने से वह केवल ज्ञानरूपी उत्कृष्ट फल प्रदान करती है। स्वभाव की भावना द्वारा जितनी वीतरागी शुद्धता अपने आत्मा में प्रगट की, उतनी तो धर्मी को निश्चयप्रभावना है और उसके साथ-साथ अस्थिरता की भूमिका में जिनधर्म की प्रभावना का शुभभाव भी उसे आता है। उस धर्मात्मा की दृष्टि तो शुद्धभाव के लाभ पर ही है किंतु बीच में राग आता है, उतना खर्च है। इस प्रकार साधकदशा में अंशतः शुद्धता और अंशतः राग, दोनों होते हैं। केवल ज्ञानी भगवान को राग का एकदम अभाव होकर पूर्ण आनन्द का लाभ हो गया है; इसलिए उन्हें तो अकेला लाभ ही है और खर्च बिल्कुल नहीं है।

जिस प्रकार चक्रवर्ती के पद-पद पर निधान पकते हैं, उनमें उन्हें अकेला लाभ ही है; उसी प्रकार धर्म के चक्रवर्ती - ऐसे सर्वज्ञ भगवान को अकेला धर्म का पूरा लाभ ही है। यद्यपि साधक को भी शुद्धस्वभाव की दृष्टि में पर्याय-पर्याय में लाभ ही होता रहता है, तथापि अभी अल्प राग है, उतना खर्च भी है; फिर भी उसे शुद्धदृष्टि के बल से लाभ की ही मुख्यता है। शुद्धदृष्टिसहित बीच में रत्नत्रयरूपी सन्मार्ग की प्रभावना का तथा देव-गुरू-शास्त्र की प्रभावना का शुभभाव है और वह तीर्थंकरप्रकृति आदि उच्च पुण्यबंध का कारण है। रत्नत्रय का शुद्धभाव है, वह धर्म है और वही मोक्ष का कारण है।

(16) प्रवचनवात्सल्य

प्रवचनवात्सल्य अर्थात् संघ तथा साधर्मी के प्रति अतिशय प्रमोद-वात्सल्य का भाव, धर्मी को आता है। अंतर में स्वयं को रत्नत्रयधर्म की अतिशय प्रीति है, इसलिए रत्नत्रय की साधना करनेवाले अन्य धर्मात्माओं के प्रति भी उन्हें अतिशय प्रीति का भाव आता है। देखाो! यह सम्यग्दर्शन सहित वात्सल्य की बात है। सम्यग्दर्शन से पूर्व की भूमिका में भी जिज्ञासु को धर्मात्मा के प्रति अत्यंत वात्सल्य एवं भक्तिभाव होता है, किंतु तीर्थंकरप्रकृति के कारण रूप हो - ऐसा वात्सल्यभाव तो सम्यग्दर्शनसहित जीव को होता है; इसलिए यहां उसकी बात है।

इस प्रकार तीर्थंकरप्रकृति के कारण रूप जो सोलह भावनाएं कही गयी हईं, वे सम्यग्दर्शनसहित जीव के ही होती हैं; मिथ्यादृष्टि के नहीं होती और इन सोलह भावनाओं में भी पहली दर्शनविशुद्धि मुख्य है, अर्थात् पहली दर्शनविशुद्धि तो होना ही चाहिए। दर्शनविशुद्धि के बिना अन्य पन्द्रह भावनाओं का व्यवहार हो, तथापि वह कार्यकारी नहीं होता और वे पंद्रह भावनाएं कदाचित् न हों तो भी अकेली दर्शनविशुद्धि भावना ही उन पंद्रह का कार्य कर लेती है। इस प्रकार दर्शनविशुद्धि अर्थात् सम्यग्दर्शन स्वयं कहीं बंध का कारण नहीं है, किंतु दर्शनविशुद्धि में सम्यग्दर्शन के साथ विशुद्धता सम्बंधी जो विकल्प हो, वह बंध का कारण है - ऐसा समझना चाहिए।

इस प्रकार जिन शासन में सम्यम्दर्शनादि शुद्धभाव ही उपादेय हैं और उन शुद्धभावों के द्वारा ही जिन शासन की शोभा है, उन्हीं से जिनशासन की महिमा है।

मुनिदशा में परिग्रह का फल निगोद

देखा! महावीतरागी संत कुन्दकुन्दाचार्यदेव अष्टपाहुड़ में कहते हैं कि वस्त्र का एक धागा भी परिग्रह के रूप में रखकर अपने को मुनिदशा मनवानेवाला जीव निगोद में जाता है, क्योंकि उसने मुनिदशारूप मार्ग को ही विपरीत माना है। यह कहने में आचार्य भगवान की ऐसी भावना नहीं है कि हमारा विरोध करता है; इसलिए निगोद भेजना परंतु वस्तुस्थिति ही ऐसी है कि मिथ्यात्व का सेवन करने वाला जीव, अपने विपरीत परिणाम के कारण निगोद में जाता है। यह बताकर आचार्यदेव, करुणाबुद्धि से जीवों को मिथ्यात्व से छुड़ाना चाहते हैं .... अरे जीव! मुनिदशा का वास्तविक स्वरूप पहचान और जिन मार्ग की सच्ची श्रद्धा कर कि जिससे तेरे आत्मा का इन संसार के दुःखों से अंत आए और मोक्ष सुख प्रगट हो!

(-आत्मभावना, पृष्ट 46)

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