।। वीतरागी संतों की अमृतवाणी ।।
jain temple113

प्रवचन-4

वीतरागी संतों की अमृतवाणी

लौकिकजन, पुण्य को धर्म मानते हैं किंतु वह धर्म नहीं है। अरे जीव! क्या तूने पुण्य अनादिकाल में नहीं किए? अनन्त बार पुण्य करके स्वर्ग का महान देव हुआ, तथापि तेरा यह भवभ्रमण तो ज्यों का त्यों ही बना रहा! इसलिए समझ कि धर्म कोई भिन्न वस्तु है, जिसका तूने कभी एक क्षण भी सेवन नहीं किया। जब तक शुद्ध आत्मा को श्रद्धा-ज्ञान में न ले, तब तक इस शर्मजनक जन्म-मरण से छुटकारा नहीं होता।

देखो, यह चैतन्यानन्द की मस्ती में झूलने और वन में वास करनेवाले वीतरागी संतों की वाणी है। जैनधर्म में तो भगवान ने ऐसा कहा है कि जो पुण्य को धर्म मानता है, वह मात्र भोगों की ही इच्छा रखता है। अहो! जिन्हें धर्म की भावना हो... मोक्ष की भावना हो, वे जीव, आत्मा के स्वभाव का निरीक्षण करो... आत्मा में अंतर-अवलोकन बिना भव का अंत नहीं आता। अरे! मनुष्य भव पाकर भी यदि आत्मा में भव के अंत की भनक नहीं उठी तो जीवन किस काम का?

(श्रीभावप्राभृत, गाथा 83 पर प्रवचन)

आगे शिष्य पूछता है कि जिनधर्म को उत्तम कहा तो धर्म का क्या स्वरूप है? उसका स्वरूप कहते हैं कि ‘धर्म’ इस प्रकार है -

पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो।। 83।।
पूजादिषु व्रतसहित पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम्
मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः ।। 83 ।।
व्रत सहित पूजा आदि सब जिनधर्म में सत्कर्म हैं।
दृगमोह - क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म है।। 83 ।।

अर्थात् जिनशासन में जिनेन्द्रदेव ने इस प्रकार कहा है कि - पूजा आदिक में और व्रत सहित होना है, वह तो ‘पुण्य’ ही है तथा मोह के क्षोभ से रहित जो आत्म का परिणाम है वह ‘धर्म’ है।

भावार्थ लौकिकजन तथा अन्यमती कई कहते हैं कि पूजा आदिक शुभक्रियाओं में और व्रतक्रियासहित है, वह जिनधर्म है परंतु ऐसा नहीं है। जिनमत में जिनभगवान ने इस प्रकार कहा है कि पूजादिक में और व्रत सहित होना है, वह तो ‘पुण्य’ है, इसमें पूजा और आदि शब्द से भक्ति, वंदना, वैयावृत्य आदिक समझाना, यह तो देव-गुरु-शास्त्र के लिए होता है और उपवास आदिक व्रत है, वह शुभक्रिया है, इनमें आत्मा का रागसहित शुभ परिणाम है उससे पुण्यकर्म होता है; इसलिए इनको पुण्य कहते हैं। इसका फल स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति है।

मोह के क्षोभ से रहित आत्मका के परिणाम को धर्म समझिए। मिथ्यात्व को अतत्त्वार्थश्रद्धान है, क्रोध-मान-अरति-शोक-भय- बार आयी और छूट गयी, उसमें कहीं आत्मा का धर्म नहीं है तथा राग-द्वेष-मोहादिभाव हो, वह भी धर्म नहीं है। पुण्य का शुभभाव हो, उसे सामान्य लोग (जिन्हें इस गाथा के भावार्थ में ‘लौकिकजन’ कहा है, वे) धर्म कहते हैं किंतु वह कहीं धर्म नहीं है, वह तो राग है; उस राग से कहीं भव का अंत नहीं आता। जैनधर्म तो वीतरागभाव रूप है और भव के नाश का कारण है।

jain temple114

अहो! अनन्द शरीर संयोगरूप से आये और चले गये; अनेक प्रकार के रागादि आये और छूट गये, तथापि यह आत्मा तो वही का वही है तो फिर देह तथा राग से पार उसका क्या स्वरूप है? - उसे पहिचानना चाहिए। जब तक ज्ञानस्वभावी तत्त्व को अनुभव में न लें, तब तक इस शर्मजनक जन्म-मरण से छुटकारा नहीं होता। इसलिए हे भाई! अपने शुद्ध आत्मा के श्रद्धा-ज्ञान-एकाग्रतारूप जिनधर्म को अंगीकार कर, जिससे तेरे इस जन्म-मरण का अंत आये।

यह शरीर-वाणी पैसादि जो जड़ है वे तो अचेतनभाव से भरपूर हैं तथा चैतन्यस्वरूपी जीव से अत्यंत भिन्न हैं; इसलिए उनकी तो यहां बात नहीं है। यहां तो जीव के भाव की बात है। जीव के किस भाव से धर्म होता है? - वह वहां बतलाते हैं।

जीव के भाव तीन प्रकार के हैं - 1. शुद्धभाव, 2. शुभभाव और 3. अशुभभाव। उनमें शुभ तथा अशुभ इन दोनों से रहित जो निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव है, वही धर्म है और उसी के द्वारा जैनशासन की शोभा है, क्योंकि इस सम्यग्दर्शन-ज्ञन-चारित्ररूप शुद्धभाव की प्राप्ति जैनशासन में ही होती है और उसी से भव का नाश होता है। ऐसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी जिनधर्म की आराधना के बिना शुभ-अशुभभाव करके जीव अनन्त काल से चार गतियों में भटका है, पुण्य करके स्वर्ग के भव भी अनन्त बाद किये, तथापि अभी भव का अन्त नहीं आया, इसलिए हे जीव! तू समझ कि पूण्य है, वह धर्म नहीं है तथा वह करते-करते भव का अंत नहीं आता।

लौकिकजन पुण्य को धर्म मानते हैं किंतु वह धर्म नहीं है। लौकिकजन अर्थात् मिथ्यादृष्टि। पुण्य से धर्म होता है - ऐसा माननेवाला वास्तव में जैनमती है ही नहीं, किंतु अन्यमती जैसा लौकिकजन है। मोह-राग-द्वेष तो भावी भव का कारण है, राग की भावना तो भव का कारण है; इसलिए हे भव्य! तू उसकी भावना छोड़कर, रागरहित ऐसे चैतन्यस्वभाव की भावना भा।

पाप भिन्न वस्तु है, पुण्य भिन्न वस्तु है और धर्म, वह तीसरी वस्तु है। देहादि जड़ की क्रिया तो जीव से अत्यंत भिन्न है; इसलिए उसकी तो यहां बात नहीं है। हिंसादि पापभावों को लोग सामान्यरूप से अधर्म मानते ही हैं, किंतु लोगों का अधिकांश भाग पुण्य पको धर्म मानकर मिथ्यात्व में अटक गया है; इसलिए यहां यह बात स्पष्ट समझाते हैं कि अरे जीव! क्या तूने अनादि काल में पुण्य नहीं किया है? भाई! पुण्य भी तू अनन्त बार कर चुका है और उसके फल में स्वर्ग का महान देव भी हो चुका है, तथापि तेरा यह भव-भ्रमण तो ज्यों का त्यों बना ही रहा; इसलिए समझ कि धर्म कोई भिन्न ही वस्तु है कि जिसका तूने कभी एक क्ष़्ण भी सेवन नहीं किया।

तेरा ज्ञानानन्द स्वभाव, पुण्य-पाप दोनों से पार है, उस स्वभाव की ओर ढलकर उसकी रुचि कर, उसकी दृष्टि कर, उसकी महिमा कर और उसी की भावना कर। पुण्य-पाप - ये दोनों भाव तेरे आत्मा से भिन्न हैं, इसलिए उनकी रुचि छोड़। जिस प्रकार पाप है, वह धर्म नहीं है; उसी प्रकार पुण्यभाव भी धर्म नहीं है; धर्म तो पुण्य-पाप से रहित ज्ञानानन्दस्वरूप का श्रद्धान-ज्ञान-रमणतारूप वीतरागभाव है, उसी में भव का नाश करने की शक्ति है। एक क्षण भी ऐसे धर्म का सेवन, अनन्त भव का नाश कर डालता है किंतु ऐसे यथार्थ धर्म की पहिचान या रुचि तूने पूर्व अनन्तकाल में कभी नहीं की है; इसलिए हे भाई! जिनशासन में तो धर्म का ऐसा ही स्वरूप कहा है और ऐसे धर्म की भावना से तेरे भवभ्रमण का अंत होगा।

अभी तो जो पाप में ही डूबे हुए हैं, कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र को मानते हैं, उनकी तो बात ही क्या करें? किंतु चैतन्य के यथार्थ भान बिना जो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को मानते हैं, व्यवहाररूप व्रत-पूजादि पुण्यभाव करते हैं, वे भी धर्मी नहीं हैं। मिथ्यात्वादि मोहभाव तथा राग-द्वेष-क्षोभ से रहित शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप को रुचि, ज्ञान तथा एकाग्रतारूप वीतरागभाव, वह धर्म है। धर्म का ऐसा स्वरूप पहिचानकर पहले उसकी रुचि करो और उससे विपरीत मार्ग की रुचि छोड़ो! ऐसी अंतर्दृष्टि होने के पश्चात् साधक को अमुक अंश तक राग तो होता है, किंतु उस राग को वे धर्म नहीं मानते; राग को तो बंध का ही कारण समझते हैं और शुद्ध चिदानन्दतत्त्व के आश्रय से शुद्धभाव को ही मोक्ष का कारण जानकर उसकी आराधना करते हैं। इस प्रकार उनकी दृष्टि की संपूर्ण दिशा ही बदल गयी है।

जिसे संसार की आवश्यकता है, संसार की रुचि है, पुण्य की तथा स्वर्ग की बात मीठी लगती है, वह जीव तो धर्म की रुचिवाला ही नहीं है, वह धर्म का पात्र ही नहीं है। भाई! तुझे भावना किसकी है? धम की भावना है न ? तो हम कहते हैं कि धर्म तो वीतरागभाव में ही है। अपने आत्मस्वभाव के अंतर-अवलोकन से जो शुद्ध वीतरागभाव हो, वही धर्म है और राग है, वह धर्म नहीं है।

मैं तो शुद्ध ज्ञानानन्द का भंडार हूं, कोई भी परद्रव्य और कोई भी राग मुझे किंचित्मात्र हितकर या सहायक नहीं है - ऐसी रुचि तो कर ! रुचि की दिशा सच्ची होगी तो आगे चलकर भव का अंत आ जाएगा, किंतु जिसकी रुचि ही मिथ्या होगी, जो संसार के कारण को ही मोक्ष का कारण मानकर उसका सेवन करता होगा - उसका उद्धार कहां से होगा?

2
1