।। गाथा 15 की टीका पर प्रवचन ।।

गाथा 15 की टीका पर प्रवचन

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यह अबद्धस्पृष्टादि पांच भावरूप आत्मा की अनुभूति है, वही वास्तव में समस्त जिनशासन की अनुभूति है अर्थात् जो पांच भावरूप आत्मा को शुद्धोपयोग द्वारा देखते हैं, वे वास्तव में समस्त जिनशासन का अनुभव करते है। यही जैनमार्ग है, मोक्षमार्ग है। व्यवहार या राग जैनशासन नहीं है। जब तक पूर्ण वीतरागता न हो, तब तक साधक को राग आता आवश्य है परंतु वह जैनधर्म नहीं है। जैनशासन तो शुद्धोपयोग मय वीतराग-परिणति है। सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय-परिणति शुद्धोपयोगमय वीतरागपरिणति है, यह जैनधर्म है, जैनशासन है। श्री जयसेनाचार्य की टीका में आया है कि आत्मपदार्थ का वेदन, अनुभव, परिणति, वह जैनशासन-जैनमत है।

अब कहते हैं कि यह जैनशासन अर्थात् अनुभूति क्या है? श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा की है। भावश्रुतज्ञानरूप शुद्धोपयोग से जो आत्मा का अनुभव हुआ, वह आत्मा की है क्योंकि रागादि आत्मा नहींद्ध अनात्मा हैं। धर्मी को भी अनुभूति के पश्चात् जो राग आता है, वह अनात्मा है। द्रव्यश्रुत में यही कहा है और यही अनुभव में आया; इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है, क्योंकि भावश्रुत में जो त्रिकाली वस्तु ज्ञात हुई, वह वीतरागस्वरूप है और इसकी अनुभूति प्रगट हुई, यह भी वीतरागपरिणति है। भगवान आत्मा त्रिकाल मुक्तस्वरूप ही है। इस पर्याय मंे अनुभव हुआ, यह भावश्रुतज्ञान है, शुद्धोपयोग है, आत्मा की ही जाति होने से आत्मा ही है। अनुभूति में पूरा आत्मा का नमूना आया; इसलिए वह आत्मा ही है। इससे द्रव्य की अनुभूति कहो, या ज्ञान की अनुभूति कहो, एक ही चीज है। ‘ही’ शब्द लिया है - यह सम्यक्-एकांत है।

अहा हा....! भगवान की वाणी ! ‘चैतन्य-चमत्कार जागृत हो’- ऐसी चमत्कारिक है। सामान्यज्ञान के आविर्भाव और विशेषज्ञान के तिरोभाव से जब ज्ञानमात्र का अनुभव हो, तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है। देखो! रागमिश्रित ज्ञेयाकार ज्ञान जो पूर्व में था, उसकी रुचि छोड़कर और ज्ञायक की रुचि का परिणमन करके सामान्यज्ञान का पर्याय में अनुभव करने को सामान्यज्ञान का आविर्भाव व विशेषज्ञान का तिरोभाव कहते हैं - यह पर्याय की बात है।

ज्ञान की पर्याय में अकेला ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान का वेदन होने और शुभाशुभ ज्ञेयाकारज्ञान के ढंक जाने को सामान्यज्ञान का आविर्भाव और विशेष ज्ञेयाकारज्ञान का तिरोभाव कहते हैं और इस तरह ज्ञानमात्र का अनुभव करते हुए ज्ञान, आनन्दसहित पर्याय में अनुभव में आता है।

यहां ‘सामान्यज्ञान का आविर्भाव’ अर्थात् त्रिकालीभाव का आविर्भाव, यह बात नहीं है। सामान्यज्ञान अर्थात् शुभाशुभ ज्ञेयाकाररहित अकेला ज्ञान का पर्याय में प्रगटपना। अकेला ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान का अनुभव - यह सामान्यज्ञान का आविर्भाव है। ज्ञेयाकाररहित अकेला प्रगट ज्ञान सामान्यज्ञान है। इसका विषय त्रिकाली है।

भाई! यह तो अध्यात्म-कथनी है। एक-एक शब्द में गंभीरता भरी है। एक तो यह समयसार ग्रंथ और उसमें भी 15वीं गाथा! कुन्दकुन्दाचार्य की वाणी समझने के लिए भी बहुत पात्रता चाहिए।

जो अज्ञानी है, ज्ञेयों में आसक्त है, उन्हें यह आत्मा स्वाद में नहीं आता। चैतन्यस्वरूप निज परमात्मा की जिन्हें रुचि नहीं है, ऐसे अज्ञानी जीवों को या जो परज्ञेयों में आसक्त है अर्थात् व्रत, तप, दया, दान, पूजा, भक्ति आदि व्यवहार रत्नत्रय के परिणामों में आसक्त है, शुभाशुभविकल्पों के जानने में रुक गए हैं - ऐसे ज्ञेयलुब्ध जीवों को आत्मा के अतीन्द्रियज्ञान और आनन्द का स्वाद नहीं आता।

आत्मा का स्वाद कैसा होगा? दाल, भात, लड्डु? मौसम्बी इत्यादि का स्वाद तो होता है, ये तो सब जड़ वस्तुएं हैं। जड़ का स्वाद तो अज्ञानी को भी नहीं आता? क्योंकि अपने द्रव्य, गुण, पर्याय की सत्ता को छोड़कर, पदार्थ क्या दूसरे की सत्त में मिल सकते हैं? जड़ तो भिन्न वस्तु है। परवस्तु के प्रति जो राग है, अज्ञानी को उसका स्वाद आता है; वस्तु का नहीं। स्त्री-सेवन में वह स्त्री के शरीर को नहीं भोगता, किंतु उसके प्रति बहुत राग का वेदन/अनुभव करता है। पैसा या इज्जत में पैसा या इज्जत का अनुभव नहीं आता। चरपरी मिर्च मुह में डालने पर चरपराहट का स्वाद नहीं आता है परंतु चरपराहट के जानने पर, ‘यह ठीक है’ -ऐसी मान्यतापूर्णक जो राग उत्पन्न होता है, उस राग का अज्ञानी स्वाद लेता है। इसी प्रकार शरीर में बुखार आता है, इस बुखार का अनुभव आत्मा को नहीं होता; मात्र यह ठीक नहीं है - ऐसी अरुचि होने पर दुःख का अनुभव होता है। वस्तु के प्रति राग में आसक्त अज्ञानी जीव को रोग का स्वाद आता है और वह आकुलतामय है, अधर्म है।

आत्मा का स्वाद तो अनाकुल आनन्दमय है। पंडित बनारसीदास ने लिखा है-

वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावै विश्राम।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभौ ताको नाम।।

जो ज्ञायकस्वरूप वस्तु को ज्ञान में लेकर अंतर में ध्यान करता है, उसके मन के विकल्प-राग विश्राम को प्राप्त हो जाते हैं, हट जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं; मन शाांत हो जाता है, तब अतीन्द्रिय आनन्द के रस का स्वाद आता है। परिणाम अंतर्निमग्न होने पर अनाकुल सुख का स्वाद आता है, उसे अनुभव अर्थात् जैनशासन कहते हैं।

जो ज्ञेयों में आसक्त हैं, वे इंद्रियों के विषयों में आसक्त हैं। जो पदार्थ, इंद्रिदयों द्वारा ज्ञात होते हैं, वे इंद्रियों के विषय हैं। देव-गुरु शास्त्र, साक्षात् भगवान और भगवान की वाणी भी इंद्रियों के विषय हैं।

समयसार गाथा 31 में आया है -

‘जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं

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पांच द्रव्येन्द्रियां, भावेन्द्रियां और इंद्रियों के विषयभूत पदार्थ इन तीनों को इंद्रियां कहा जाता है। इन तीनों को जीतकर अर्थात् इनकी ओर के झुकाव-रुचि को छोड़कर इनसे अधिक अर्थात् भिन्न अपने ज्ञानस्वभाव को, अतीन्द्रिय भगवान को अनुभवना - यही जैनशासन है। अपने स्वज्ञेय में लीनतारूप यह अनुभूति अर्थात् शुद्धोपयोगरूप परिणति ही जैनशासन है। इससे विरुद्ध अज्ञानी को परिपूर्ण स्वज्ञेय की अरुचि है तथा इन्द्रियादि के खंड-खंड ज्ञेयाकार ज्ञान की रुचि और प्रीति है। वे अज्ञानी परज्ञेयों में आसक्त है - इस कारण उन्हें ज्ञान का स्वाद नहीं आने से राग का आकुलता का स्वाद आता है। राग का स्वाद, राग का वेदन अनुभव में आना - यह जैनशासन से विरुद्ध है; इसलिए अधर्म है। शुभक्रिया करना और यह करते-करते धर्म हो जाएगा - ऐसी मान्यता मिथ्याभाव है तथा शुभाशुभराग से भिन्न आनन्द के कन्द भगवान आत्म को ज्ञेय बनाकर ज्ञायक के ज्ञान का वेदन करना - यह जिनशासन है, धर्म है।

यह बात दृष्टान्त से समझाते हैं। जैसे, अनेक प्रकार के शाक आदि भोजनों के संबंध से उत्पन्न सामान्य नमक के तिरोभाव और विशेष नमग के आविर्भाव का स्वाद, अज्ञानी शाक के लोभी मनुष्यों को आता है किंतु अन्य के संबंधरहितपने से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आता हुआ एकाकार अभेदरूप नमक का स्वाद, अज्ञानी को नहीं आता। लौकी, तोरई, करेला आदि शाक में तथा खिचड़ी, रोटी आदि पदार्थों में नमक डाला जाता है, तो उन पदार्थों के संबंध से नमक का स्वाद लेने पर सामान्य नमक का स्वाद ढक जाता है और शाक खारा है - ऐसी अनुभूति होती है। वास्तव में तो खारा नमक है; शाक नहीं है तथा शाक आदि द्वारा भेदरूप नमक का स्वाद आना, यह विशेष का अविर्भाव है। शाक के लोलुपी मनुष्यों को नमक द्वारा नमक का स्वाद अर्थात् एकाकार अभेदरूप नमक का स्वाद, नमक खारा है - ऐसा स्वाद नहीं आता।

परमार्थ से देखा जाए तो विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आता हुआ नमक ही सामान्य के अविर्भाव से अनुभव में आता हुआ नमक है। परमार्थ से देखें तो शाक के लोलुपी जीवों को विशेष का अविर्भाव अर्थात् शाक द्वारा जो नमक का स्वाद आता है, वह वस्तुतः तो सामान्य नमक का ही विशेष है, उसका ही भाव है; शाक का खारापन (विशेष) नहीं है और यह विशेषपना, शाक द्वारा आया है - ऐसा भी नहीं है, सामान्य नमक का ही स्वाद है। अज्ञानी को शाक के संयोग से नमक का ख्याल आता है, यह विपरीत है क्योंकि उसे नमक के स्वभाव का ख्यान नहीं है- यह तो दृष्टांत हुआ।

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