अब सिद्धांत कहते हैं - इसी प्रकार अनेक प्रकार के ज्ञेयों के आकारों के साथ मिश्ररूपता से उत्पन्न सामान्य के तिरोभाव और विशेष के आविर्भाव के अनुभव में आता हुआ जो (विशेषभाव रूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान है, वह अज्ञानी ज्ञेयलुब्ध जीवों को स्वाद आता है किंतु अन्य ज्ञेयाकार के संयोगरहितपने से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आता हुआ एकाकार अभेदरूप ज्ञान स्वाद में नहीं आता। स्त्री, पुत्र, पुत्री, भगवान, भगवान की वाणी, पुण्य-पाप, राग इत्यादि अनेक प्रकार के ज्ञेय हैं; इन ज्ञेयों के आकार के साथ मिश्ररूपपने से उत्पन्न सामान्य का तिरोभाव अर्थात् अकेले ज्ञान का अनुभव ढक जाना तथा विशेष का आविर्भाव अर्थात् ज्ञेयता के संबंध से ज्ञान का प्रगट होना - इससे रागादि द्वारा जो ज्ञेयमिश्रित ज्ञान का अनुभव होता है, वह अज्ञान है; उसमें आत्मा का स्वाद नहीं आता।
राग द्वारा ज्ञान का ज्ञेयाकार विशेष, वास्तव में तो सामान्यज्ञान की अवस्था है परंतु भ्रम से ऐसा मानता है कि राग की अवस्था के कारण ज्ञान हुआ। यह मान्यता मिथ्यात्व है और दुःख का वेदन है। पुण्य और पाप के विकल्प जो ज्ञेय है, उन पर जिसकी दृष्टि है, उनमें जिनको आसक्ति है, यह जो ज्ञेयों द्वारा ज्ञान का स्वाद आता है, वह दुःख का स्वाद है, आकुलता का स्वाद है। जैसे, अज्ञानी शाक के लोलुपी को शाक द्वारा नमक का स्वाद आता है, वह मिथ्या है; उसी प्रकार इन ज्ञेयलुब्ध जीवों को दया, दान आदि पुण्य तथा क्रोध, मान आदि पाप के विकल्प जो कि ‘परज्ञेय’ हैं, आत्मा से भिन्न हैं, इनके द्वारा राग की पर्याय और ज्ञान की पर्याय का मिश्रित अनुभव होने पर जो स्वाद आता है, वह दुःख का स्वाद है, विपरीत है, जहर का स्वाद है क्योंकि इनमें आत्मा के सामान्यज्ञान का अनुभव ढक गया है।
राग और ज्ञान का वेदन धर्म नहीं है। ज्ञान द्वारा ज्ञान का अकेला वेदन, धर्म है। यह धर्म और अधर्म की व्याख्या है। ज्ञेयाकार ज्ञानका अनुभव करे, मिथ्यात्वसहित दुःख का वेदन है। शास्त्र-स्वाध्याय भी विकल्प है, इस विकल्प द्वारा ज्ञान का अनुभव होना भी अधर्म है। अहा हा....! आत्मा तो वीतरागस्वभाव का पिटारा है, वीतरागस्वरूप ही है। इस ओर के झुकाव से अकेले ज्ञान का जो अनुभव आता है, वह आत्मा का-अतीन्द्रियज्ञान औरअ आनन्द का स्वाद है, वह धर्म है।
परमार्थ से विचार करें तो विशेष के आविर्भाव से जो ज्ञान अनुभव में आता है, वही ज्ञानसामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आता है। ज्ञायक पर जिसकी दृष्टि है, वह तो जानता है कि ज्ञान का विशेष, ज्ञानसामान्य में से आता है। ज्ञायक पर दृष्टि पड़ते ही ज्ञान की पर्याय का वेदन आता है; राग का नहीं, राग से नहीं। राग द्वारा ज्ञान का अनुभव वास्तव में तो सामान्य का विशेष है, तथापि अज्ञानी मानता है कि यह राग का विशेष है, यह दृष्टि का फेर है।
समयसार गाथा 17, 18 में आता है कि आबालगोपाल सब को राग, शरीर, वाणी जिस काल दिखती है, उस समय वास्तव में तो ज्ञान की पर्याय ज्ञात होती है, किंतु ऐसा न मानकर मुझे यह जानने में आया, राग जानने में आया, यह मान्यता विपरीत है। इस प्रकार ज्ञानपर्याय है तो सामान्य का विशेष, किंतु ज्ञेय द्वारा ज्ञान होने पर अर्थात् ज्ञेयाकार ज्ञान होने पर अज्ञानी को भ्रम हो जाता है कि यह ज्ञेय का विशेष है, ज्ञेय का ज्ञान है। वास्तव में जो ज्ञानपर्याय है, वह सामान्यज्ञान का ही ज्ञान-विशेष है; परज्ञेय का ज्ञान नहीं है, परज्ञेय से भी नहीं है।
अलुब्ध ज्ञानियों को तो जैसे नमक से अन्य शाकादि द्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल नमक का ही अनुभव करने पर सर्व और से एक क्षाररस को लेकर क्षाररसपने से नमक ही स्वाद में आता है; उसी प्रकार आत्मा भी परद्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल आत्मा का ही अनुभव करने में आता हुआ सर्व और से एक विज्ञानघनपने से मात्र ज्ञानरूप से स्वाद में आता है तथा जैसे नमक की डली का अनुभव करने में आवे तो सर्वत्र क्षारपने से ही स्वाद आता है। नमक की डली सीधी नमक के द्वारा स्वाद में आती है, यह यथार्थ है। उसी प्रकार अलुब्धज्ञानियों को अर्थात् जिनको इंद्रियों के समस्त विषयों की, परज्ञेयों की आसक्ति-रुचि छूट गयी है, उन ज्ञानियों को अपने सिवाय अन्य समस्त परद्रव्य व परभावों का लक्ष्य छोड़कर एक ज्ञायकमात्र चिद्घनस्वरूप का अनुभव करने पर सब ओर से एक विज्ञानघनपने को लेकर, मात्र ज्ञान ही स्वाद में आता है। अकेला ज्ञान, सीधा ज्ञान के स्वाद में आता है - यह आनन्द का वेदन है, यह जैनशासन है। इसका नाम सम्यग्दर्शन और ज्ञान की अनुभूति है।
एक ओर स्वद्रव्य है और दूसरी ओर समस्त परद्रव्य हैं। ‘एक ओर राम और दूसरी ओर ग्राम’। ग्राम अर्थात (परद्रव्यों का) समूह। अपने सिवाय जितने परद्रव्य हैं, वे ग्राम में शामिल होते हैं। परज्ञेय - पंचेन्द्रियों के विषय अर्थात् साक्षात भगवान व भगवान की वाणी, देव, गुरु, शास्त्र और शुभाशुभराग - ये सब ग्राम में अर्थात् परद्रव्य के समूह में आ जाते हैं। इनकी ओर लक्ष्य जाने पर राग ही उत्पन्न होता है। समवसरण में साक्षात् अरिहंत विराजमान हों, उनका लक्ष्य करने पर भी राग ही उत्पन्न होता है, यह अधर्म है; यह कोई चैतन्य की गति नहीं है, यह तो विपरीत गति है।
मोक्षपाहुड में कहा है कि ‘परद्रव्वाओं दुग्गई’। अतः परद्रव्य से उदासीन होकर एक त्रिकाली ज्ञायकभाव, जो सर्वतः ज्ञानघन है, उस एक का ही अनुभव करने पर अकेले (निर्मल) ज्ञान का स्वाद आता है - यह जैनदर्शन है। इंद्रियों के विषयों में राग द्वारा जो ज्ञान का अनुभव अर्थात् ज्ञेयाकार ज्ञान, वह आत्मा का स्वाद - अनुभव नहीं है, यह जैनशासन नहीं है। आत्मा में भेद के लक्ष्य से जो राग उत्पन्न हो, वह राग का ज्ञान है - ऐसा मानना अज्ञान है, मिथ्यादर्शन है। एक ज्ञान द्वारा ज्ञान का वेदन ही सम्यक् है, यथार्थ है। अहो! समयसार विश्व का एक अजोड़ चक्षु है। यह वाणी तो देखो! सीधी आत्मा की ओर ले जाती है।
समयसार शास्त्र - वाणी, वाचक है और अपने में रागादिरहित जो समयसार है, वह वाच्य है। आजकल तो लोग बाहर में पड़े हैं, क्रियाकांण्ड में उलझे हैं। कोई कहता है - मैं पुस्तक बनाता हूं, परंतु पुस्तक बनाने का विकल्प, राग है और मैं पुस्तक बना सकता हूं - ऐसा भाव, मिथ्यात्वभाव है। जड़पदार्थ को कौन बना सकता है ‘क’ यह एक अक्षर अनन्त परमाणुओं से बना हुआ है, आत्मा इसे तीन काल में भी बना या लिख नहीं सकता। अनन्त द्रव्य अनन्तपने रहकर एक-एक परमाणु और द्रव्य अपनी अवस्था स्वकाल में पृथक्पने करते हैं।
‘णमो अरिहंताणं’ यह तो शब्द है। अंदर नमन करने का जो विकल्प उत्पन्न होता है, वह राग है, उस राग द्वारा ज्ञान का अनुभव - यह आत्मा का स्वाद नहीं है।
परमात्म प्रकाश में आया है कि यह जीव अनन्त बार महाविदेहक्षेत्र में जन्मा है। वहां तीर्थंकर नित्य विराजते हैं, तीर्थंकर का विरह नहीं है, वहां समवसरण में भी अनन्त बार गया है। सम्यग्ज्ञानदीपिका में लिखा है कि जीव ने पूर्व में अनन्त बार प्रत्यक्ष समवसरण में केवली भगवान की हीरों के थाल, मणिरत्न के दीपक और कल्पवृक्ष के पुष्पादि से पूजा की है तथा दिव्यध्वनि सुनी है किंतु यह तो सब शुभराग है। इसमें धर्म मानकर अनन्त काल से संसार में रुला हे।
देखो, जगत का यह बात बैठना (जांचना) कठिन है परंतु भाई! आत्म के भान बिना हजारों स्त्रियों और राजद्वार छोड़कर नग्न दिगम्बर साधु हुआ हो तो भी दुःखी है। पंच महाव्रत के परिणाम भी सुख नहीं है; दुःख ही हैं। समयसार नाटक मोक्षाधिकार के 40 वें छन्द में तो यहां तक कहा है कि भावलिंगी मुनिराज के छट्ठे गुणस्थान में जो पंच महाव्रतादि के विकल्प उत्पन्न होते हैं, वह ‘जगपन्थ’ है। मिथयादृष्टि की तो बात ही क्या करें? वहां तो यहां तक लिया है कि सच्चे मुनिराज को भी जो बारम्बार विकल्प उत्पन्न होते हैं, यह अंतर अनुभव में शिथिलता है, ढीलापना है। यहां कहते हैं कि राग से भिन्न भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्मा में झुकाव होने पर जो सीधा ज्ञान, ज्ञान द्वारा अनुभव में आता है, वह आत्मा का स्वाद है, वह जिनशासन है, आत्मानुभूति है।
यहां आत्मा की अनुभूति को ही ज्ञान की अनुभूति कहा है। अज्ञानी जीव, स्वज्ञेय को छोड़कर अनन्त परज्ञेयों में ही लुब्ध हो रहे हैं अर्थात् आत्मा के अतीन्द्रियज्ञान को छोड़कर इंद्रियज्ञान में ही लुब्ध हो रहे हैं। जिन्हें निज चैतन्यघन आत्मा का अनुभव नहीं है, ऐसे अज्ञानी, परवस्तु में, परज्ञेयों में लुब्ध हैं; उनकी दृष्टि और रुचि रागादि पर है; वे इंद्रियज्ञान के विषयों से और रागादि से अनेकाकार हुए ज्ञान का ही स्वपने आस्वाद लेते हैं - यह मिथ्यात्व है। देव-गुरु-शास्त्र परद्रव्य हैं, उनकी श्रद्धा का राग विकल्प है। यह राग मिथ्यात्व नहीं है, परंतु इसे धर्म मानना मिथ्यात्व है। अज्ञानी, दया, दान, व्रत, भक्ति आदि राग के ज्ञान को ही ज्ञेयमात्र से आस्वादते हैं, जिन्हें ज्ञेयाकार ज्ञान की रुचि है, उनको ज्ञेयों से भिन्न ज्ञानमात्र का स्वाद नहीं आता। उन्हें अंर्तुख दृष्टि के अभाव में राग का, आकुलता का ही स्वाद आता है।
जो ज्ञानी हैं, जिन्हें महाव्रतादि के राग के परिणाम मे लीनता और रुचि नहीं है, वे ज्ञेयों से भिन्न एकाकार ज्ञान का स्वाद (आनन्द) लेते हैं। वह निराकुल अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद है। ज्ञानी, ज्ञेयों में आसक्त नहीं है, राग या निमित्त किसी में एकाकार नहीं है। साक्षात् भगवान विराजमान हों, तो उनमें भी धर्मी को आसक्ति या एकता बुद्धि नहीं है। धर्मी को व्यवहाररत्नत्रय का राग, महाव्रतादि पालन करने का राग होता है परंतु वह इसमें भिन्न निज चैतन्यस्वरूप आत्मा को ज्ञेय बनाकर ज्ञानमात्र एकाकार ज्ञान का आस्वादन करता है - यह अनाकुल आनन्द का स्वाद है, यही धर्म है। जैसे, शाकों से अलग नमक की डली का मात्र खारा स्वाद आता है; उसी प्रकार ज्ञानी को परज्ञेयों और शुभाशुभभावों से भिन्न एक निज ज्ञायक मात्र ज्ञान का स्वाद आता है, इसे निश्चय सम्यग्दर्षन और सम्यग्ज्ञान कहते हैं। आत्मा, ज्ञानस्वरूप है; इसलिए ज्ञान का स्वाद है, वह आत्मा का ही स्वाद है।
‘ज्ञान, आत्मा है और आत्मा, ज्ञान है’ - इस प्रकार ज्ञान, गुण और आत्म, गुणी - दो की अभेददृष्टि होने पर सर्व परद्रव्यों से रहित अबद्धस्पृष्ट, अपनी पर्याय में एकरूप निश्चल अर्थात् हानि वृद्धि से रहित, अपने गुणों में एकरूप, अभेद तथा परनिमित के लक्ष्य से उत्पन्न हुए पुण्य-पाप, सुख-दुःख की कल्पना से रहित निजस्वरूप का अनुभव ही ज्ञान का अनुभव है और यही सम्यग्ज्ञान है, जैनधर्म है। जैनशास्त्र पढ़ना, सुनना और उनको याद रखना सम्यग्ज्ञान नहीं है। जिनवाणी तो एक तरफ रही, जिनवाणी सुनने पर जो ज्ञान (विकल्प) अंदर में होता है, वह भी सम्यग्ज्ञान नहीं है। द्रव्यश्रुत का ज्ञान तो विकल्प है, परंतु अंदर भगवान चिदानन्द रसकन्द है, उसे दृष्टि से लेकर एकमात्र उस ज्ञान का अनुभव करना भावश्रुतज्ञान है, समयग्ज्ञान है, जैनशासन है। जिनस्वरूप का अनुभव आत्मज्ञान है। शुद्धज्ञानरूप स्वसम्वेदन ज्ञान का (त्रिकाली का) स्वसंवेदन - अनुभवन, भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासन का अनुभव है। शुद्धनय से इसमें कोई भेद नहीं है।
यहां तीन बातें आयीं -
1. परद्रव्य और पर्याय से भी भिन्न अखंड, एक शुद्ध, त्रिकाली ज्ञानस्वभाव का अनुभवनरूप भावश्रुतज्ञान ही शुद्धनय है।
2. शुद्धनय के विषयभूत द्रव्यसामान्य का अनुभव ही शुद्धनय है और यही जैनशासन है।
3. त्रिकाली शुद्ध ज्ञायकमात्र का वर्तमान में भावश्रुतज्ञानरूप अनुभव जैनशासन है, क्योंकि भावश्रुतज्ञान वीतरागीज्ञान है, वीतरागी पर्याय है।
आत्मा के अनुभव बिना जीव, अनन्तकाल से जन्म-मरण करके नरक-निगोद के अनन्तानन्त दुःखों को प्राप्त हुआ है। देव-गुरु -शास्त्र की भेदरूप श्रद्धा या नव तत्वों की भेदरूप श्रद्धा, सम्यक्त्व नहीं है। कलशटीका के छठवें कलश में आया है कि संसार दशा में जीवद्रव्य नव तत्वरूप से परिणमा है, वह तो विभाव -परिणति है; इसलिए नव तत्त्वरूप वस्तु का अनुभव मिथ्यात्व है। इन भेदों में से एकरूप ज्ञायकभाव को - अबद्धस्पृष्ट आत्मा को ग्रहण करके अनुभव करना सम्यग्दर्शन है। - यही मूलवस्तु है। जैसे, आंवले के वृक्ष के ऊपर-ऊपर पत्ते तोड़ लें और मूल साबूत रखें तो वह झाड़ थोड़े ही दिनों में फिर पनप जाता है; उसी तरह ऊपर-ऊपर से राग मंद करे, किंतु मूल मिथ्यात्व-पर्यायबुद्धि साबूत रहे तो फिर से राग बढ़ेगा ही; इसीलिए तो प्रवचनसार गाथा 94 में कहा है कि जिसे पर से भिन्न एकरूप ज्ञायकभाव की दृष्टि नहीं है और एक समय की पर्याय में राग को ही ‘स्व’ मानकर रुक गया है, वह पर्यायमूढ़ है।