।। भावप्राभृत ।।
jain temple308

जगत् में भिन्न-भिन्न अनन्त आत्माएँ हैं, अनन्तानन्त परमाणु हैं; उसमें प्रत्येक आत्मा स्वयं से परिपूर्ण एवं पर से भिन्न है। आत्मा की क्षणि पर्याय में राग होता है, वह भी आत्मा का परमार्थ स्वभाव नहीं है। आत्मा का शुद्ध चिदानन्दस्वभाव तो राग से भी पार है - ऐसे शुद्ध आत्मस्वभाव की समीपता होने पर, स्वभाव की निःशंकदृढ़ता होने से राग और पर के प्रति अहंकार-ममकारबुद्धि छूट जाए, उसका नाम निरभिमानता है और ऐसा निरभिमानी जीव, रत्नत्रय बोधि को प्राप्त होता है। देखो! यह साधारण लौकिक निभ्रभिमानता की बात नहीं है; असाधारण निरभिमानता की बात है।

ज्ञानस्वभाव के भान बिना सभा में सबसे पीछे बैठे या किसी के पैरों के निकट बैठ जाए अथवा सबकी विनय करके माने कि अब इस विनय से मेरा कल्याण हो जाएगा, तो यह कही निरभिमानता नहीं है; यह तो अविवेक और मूढ़ता है। यहाँ तो कहते हैं कि ज्ञानस्वरूप आत्मा में ‘अहं’ होने से पर में से ‘अहं मम’ छूट जाए, उसी को मिथ्यात्वसहित मानादि कषाएँ गल गयी हैं, वही निरभिमानी है और उसी को बोधि की प्राप्ति होती है।

अपने स्वरूप को भूलकर पर में अपनत्व की मान्यता ही मिथ्यात्व है - ऐसे मिथ्यात्व के कारण जीव, अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। अनादि से स्वरूप की असावधानी और पर में सावधानी, वह मिथ्यात्व था; वह भी जीव में एक अवस्था थी। अब, जैनशासन का उपदेश प्राप्त करके स्वभाव की सावधानी द्वारा उस विपरीतश्रद्धा का नाश करके, सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान-रमणता प्रगट की - ऐसा सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान-रमणतारूप मोक्ष मार्ग, जैनशासन में ही होता है - ऐसा जैनशासन का माहात्म्य है।

अहो! जिनशासन की परम महिमा और कुन्दकुन्ददेव की वाणी

अहो! यह जैनशासन की परम महिमा है कि वह प्रत्येक आत्मा का ज्ञाता-दृष्टा परिपूर्ण स्वभाव बतलाता है और परद्रव्यों तथा परभावों में से अहंबुद्धि छुड़ाता है। आत्मा का ज्ञानानन्द स्वभाव है; परद्रव्य में इष्ट-अनिष्टपना करने का उसका स्वभाव नहीं है -ऐसे स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करने से ही सच्ची समता होती है। परद्रव्यों/ज्ञेयों में भी यह इष्ट और अनिष्टपने की कल्पना तो यह जीव व्यर्थ ही कर लेता है। ‘मैं तो ज्ञानस्वभाव ही हूं’ - यह बात यदि सचमुच समझ ले तो ज्ञाता-दृष्टा होकर समचित-वीतरागचित हो जाए। अहो! यह तो कुन्दकुन्दाचार्य भगवान की अलौकिक वाणी है। यह बात समझ ले तो अवश्य ही बोधि की प्राप्ति हो जाए। इसे समझते ही अंतर में ज्ञानस्वभाव की सावधानी से समचित अर्थात् वीतरागभाव हो जाता है - यही जैनशासन है।

कोई कहे कि ‘जल में रहे मगर सों बैर!’ - यह कैसे हो सकता है? उसी प्रकार इस जगत् में अनन्त जीव-अजीव द्रव्यों का समुद्र भरा है, उस समुद्र में रहना और परद्रव्यों से बैर रखन - यह कैसे हो सकता है? उससे कहते हैं कि हे भाई! परद्रव्य तो ज्ञेय हैं, उनके साथ ज्ञाता-ज्ञेयपने का ही संबंध है किंतु वे बैरी होकर इस जीव का अहित करें - ऐसा उनका स्वभाव नहीं है। जगत् में कोई द्रव्य किसी द्रव्य का बैरी है ही नहीं। परद्रव्य को इष्ट-अनिष्ट मानना, यह भ्रमबुद्धि है।

जैनशासन कहता है कि हो भाई! तू तो ज्ञान है, तेरे ज्ञान में परद्रव्य कुछ बिगाड़ता नहीं हैं और तेरे ज्ञान में शुभ-अशुभराग करने का भी स्वभाव नहीं है;, तेरा आत्मा तो चैतन्यप्रकाशी ज्ञानसूर्य है, उसका बहुमान कर और राग का बहुमान छोड़। शुभराग का बहुमान भी छोड़ और अपने शुद्धस्वभाव का बहुमान कर। तुझे सचमुच जैनशासन का सेवन करना हो तो उससे विरुद्ध ऐसे राग का सेवन छोड़। जैनशासन में राग को धर्म नहीं कहा गया है़; वीतरागभाव को ही धर्म कहा है। ऐसे जैनशासन के सेवन से ही मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है, यह उसकी महिमा है।

देखो..... यह जैनशासन का उपदेश!

भाई! तेरे अंतर में पूर्ण परमात्मा विराजमान है, तेरे अंतर में भगवान परमेश्वर विराज रहा है; उसे देख! अंतर्मुख होकर उसका अवलोकन कर! अंतर में अपने आत्मा को ऐसे शुद्धभाव से देखना-अनुभव करना ही जिनशासन में जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा है। समयसार की पंद्रहवीं गाथा में भी आचार्य भगवान ने यही कहा है कि जो इस भगवान आत्मा की अनुभूति है, वही जिनशासन की अनुभूति है।

अहो जीवों! स्वभाव की सावधानी करो.... स्वोन्मुख होओ.... अंतर में अपने शुद्ध आत्मा को देखो! शुद्ध आत्मा को देखते ही अनादिकालीन मिथ्यात्वरूप मोह का नाश हो जाएगा और अपूर्व आनन्द तथा बोध तरंगसहित सम्यग्दर्शन की प्राप्त होगी। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मोक्ष का उपाय नहीं है। इसलिए हे जीवों! अंतरोन्मुख होओ.... आत्मा के शुद्धस्वभाव का लक्ष्य एवं पक्ष करके, उसका अनुभव करो।

मोक्ष की प्राप्ति का ऐसा कथन जिनशासन में ही है। मिथ्यात्व तथा कषाय की व्याख्या भी अन्यमत में यथार्थ नहीं है; जैनमत में ही आत्मा के वीतरागी स्वभाव का यथार्थ स्वरूप बतलाया है तथा उससे विरुद्ध मिथ्यात्व क्या? कषाय क्या? - यह बतलाकर उनके नाश का यथार्थ उपाय भी जैन शासन में ही बतलाया है; अन्यमत में कहीं उस बात का कथन भी नहीं है और वैसा वीतरागभाव भी उनमें नहीं होता। इस प्रकार जैनशासन में ही यथार्थ बोधिरूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है।

जिससे आत्मा का हित हो - ऐसा जैनशासन का उपदेश है। पर द्रव्योन्मुखता से लाभ होता है - यह कथन जैनशासन का है ही नहीं। स्वद्रव्योन्मुखता से ही लाभ होता है और स्वद्रव्योन्मुखता ही जैनशासन है। धर्मी को साधकदशा में राग भी होता है किंतु वह जानता है कि यह राग, धर्म नहीं है; धर्म तो मेरे स्वभाव के अवलम्बन से ही वीतरागभावरूप है।

वीतराग सर्वज्ञ जिनदेव द्वारा कथित जैनशासन तो ऐसा बतलाता है कि हे जीव! परद्रव्य से, उस ओर की उन्मुखता से कभी किसी सम्यक्त्वी धर्मात्मा को अशुभभाव भी आ जाता है, तो क्य वह धर्म है? नहीं; बस! जिस प्रकार सम्यक्त्वी को अशुभभाव होने पर भी वह धर्म नहीं है; उसी प्रकार सम्यक्त्वी को शुभभाव भी होता है, तथापि वह धर्म नहीं है; धर्म तो उस अशुभ तथा शुभ दोनों से पार है अर्थात् रागरहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव ही धर्म है; वीतरागी शुद्धभाव ही जैनधर्म है।

ऐसी शंका नहीं करना चाहिए कि सम्यक्त्वी को शुभराग होता है; इसलिए वे उस शुभराग को धर्म मानते होंगे! सम्यक्त्वी की दृष्टि तो पलट गयीकृउसका परिणमन अंतस्र्वभावोन्मुख हो गया है। यद्यपि अस्थिरता के कारण राग होता है, तथापि उसकी दृष्टि का ध्येय बदल गया है; दृष्टि का ध्येय तो शुद्ध ज्ञानानन्दस्वभाव ही है। मैं तो शुद्ध ज्ञानानन्दस्वभाव ही हूँ - धर्मी की ऐसी दृष्टि, राग के समय भी नहीं छूटती। यद्यपि गृहस्थपने में सम्यक्त्वी को विषय-कषाय अभी सर्वथा छूट नहीं गए हैं, किंतु उनका ध्येय नहीं रहा है, ध्येय बदल गया है; शुद्ध आत्मा ही उसका ध्येय है। अनादि काल से पर को और राग को ही ध्येय माना था, वह बदलकर अब शुद्ध आत्मा को ही ध्येय बनाया है और ऐसा ध्येय जैनशासन ही बतलाता है; इसलिए जैनशासन के सेवन से ही यथार्थ बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति होती है।

अरे जीव! तेरे आत्मा में प्रभुता उछलती है.... और तेरी पामरता नष्ट हो जाए - ऐसी अद्भुत बात इस जैनशासन में संतों ने बतलायी है। इसलिए हे भाई! एक बार अपनी रागबुद्धि छोड़ और यह बात समझ! इसे समझने से ही तेरा हित होगा।

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