साधुओं के पास क्षण नश्वर भौतिक धन (रुपया पैसा) नहीं होता, उसके पास तो अविनाशी आत्मनिधि होती है उसी सद्श्रद्धान, सद्ज्ञान, सच्चारित्र रूप रत्नत्रय का सदा दान करते रहते हैं और दान भी इतना करते हैं जितना कि कोई ले सके। इस दान को पाकर बहुत से व्यक्ति सदा के लिये दुःखों से छूटकर अजर अमर कृतकृत्य हो जाते हैं। इस कारण मुनियों का दान अनुपम है।
गृहस्थ का दान:- संसार में धन उपार्जन करने में बहुत परिश्रम करना पड़ता है। पर्वत, नदी, समुद्र लांघना, आकाश में उड़ना, गर्मी, सर्दी, वर्षा में कष्ट सहना, अनेक तरह के दुर्वचन सुनना, मार खाना, अपमान सहन करना, अन्याय अनीति करना, कूट कपट, असत्य, चोरी, धोखेबाजी आदि कार्य कर लेने के बाद धन का संचय होता है। श्रीगुणभद्राचार्य ने आत्मानुशासन में कहा है -
अर्थात्- जैसे समुद्र निर्मल शुद्ध जल से नहीं भरा करता है उसमें नदी नालों का गंदा पानी पहुँचता रहता है उसी तरह सज्जन लोगों के पास भी न्याय नीति से सम्पत्ति नहीं जुटती है उसके लिये उन्हें भी अनीति, अन्याय, अधर्म कुछ न कुछ न करना ही पड़ता है।
इतने परिश्रम के बाद भी यदि भाग्य साथ देता है तो धन मिलता है अन्यथा भील, लकड़हारे, घसियारे, मजदूर रात दिन परिश्रम करके भी भूखे ही रहते हैं।
धन पाकर उसकी रक्षा करना और भी कठिन है। चोर, डाकू, भाई, बहिन, पुत्र, स्त्री, साझीदार आदि सब कोई किसी न किसी तरह धन झपटना चाहते हैं, आग जला देती हैं, पानी बहा देता हैं, भूकम्प नष्ट भ्रष्ट कर देता हैं, राजा छीन लेता हैं।
इस सबसे बचकर रहे तो उस धन के खर्च करने में और भी अधिक सावधानी आवश्यक है। किसी की स्त्री, किसी का पुत्र, किसी का मित्र और किसी का साझीदार, बुरी तरह खर्च कर डालता है, ऐश आराम व शौकीनी में धन खो देते हैं, बहुत से मनुष्य वेश्यागमन परस्त्रीमरण, जुआ, माँस, शराबखोरी, मुकदमेबाजी आदि में नष्ट कर देते हैं। लोगों को धन पाकर बहुत भारी अभिमान हो जाता है, उसके कारण मनुष्य दूसरों से घृणा करने लगता है, इस कारण समस्त लोग उसके शत्रु बन जाते हैं। उनसे भयभीत होकर धनिक को सदा अपनी रक्षा का प्रबंध करना पड़ता है।
बहुत से कंजूस न तो खुद अपने खाने-पीने, पहनने ओढ़ने में खर्च करते हैं, न किसी को कुछ देते हैं, वे सर्प के अनुसार केवल उस धन की रक्षा किया करते हैं। ऐसे कंजूसों का धन या तो चोर डाकुओं के काम आता है अथवा मरका सम्बन्धियों की छीना झपटी में नष्ट होता है।
इस तरह धन के संचय करने में दुख, उसकी रक्षा करने में कष्ट और उसके खर्च करने में बड़ी पीड़ा होती हैं इन सब बातों में मनुष्य बहुत सा अशुभ (पाप) कर्म-बंध किया करता है।
इस पाप से छूटने का केवल एक ही उपाय है कि धर्म साधन, धर्म प्रचार, दीन दुखियों की सेवा, लोकहित तथा परोपकार में उस धन को खुले हाथों से दान किया जावे। पात्रदान में, करुणादान में, समाज उन्नति में आवश्यकतानुसार खर्च किया जावे।
एक कवि ने बादल के बहाने किसी धनी से कहा है कि-
अर्थात्- हे बादल! बेचारा चातक पक्षी अपनी प्यास बुझाने के लिए बड़ी लालसा से तेरी और देख रहा है-इसके मुख मंे कुछ पानी की बूँदें डालकर इसकी प्यास बुझा दे। अन्यथा यदि प्रबल वायु का वेग आया तो पता नहीं तू कहाँ पहुँचेगा, तेरा पानी कहाँ गिरेगा और बेचारा यह चातक कहाँ चला जाएगा।
कवि ने धनिक से प्रेरणा की है कि अपने क्षणिक, अस्थिर धन से दीन दुखी अनाथों की रक्षा करले, अन्यथा पापकर्म उदय आते क्या देर लगती है, उस दशा में न तेरा धन रहेगा और न तेरे ऐसे ठाठ बाठ रहेंगे।
धन की दशा बतलाते हुए कवि कहता है -
अर्थात्- धन की तीन अवस्थायें होती है- (१) दान, (२) भोग (३) नाश। जो मनुष्य धन का न तो दान करता हैं, न उसका उपभोग करता है, उसका धन किसी न किसी तरह नष्ट हो जाता है।
बुद्धिमान् पुरुष अपनी आयु तथा अपने धन को अस्थिर समझदार दाने में लगाते हैं जिससे कि पुण्य कर्म से उनको इस लोक में तथा परलोक में लक्ष्मी प्राप्त होती रहती है। मूर्ख पुरुष अपने हाथ से दान नहीं करते हैं, दूसरे लोग उनसे दूसरी तरह से छीन लेेते हंै। इसी बात को एक कवि ने बहुत अच्छी तरह कहा है-
दान देने वाला कभी गरीब दरिद्र नहीं होता। उसका भंडार सदा भरपूर रहता है। इस कारण अपनी शक्ति के अनुसार प्रत्येक स्त्री पुरुष को कुछ न कुछ दान अवश्य करते रहना चाहिये, पता नहीं कब आयु छूट जावे। यदि एक एक पैसार भी प्रतिदिन दान के लिये निकाला जावे तो वर्ष में ६ रुपये हो जाते हैं।
अपने दीन दुःखी, अनाथ, विधवा, साधर्मी भाई बहिन की गुप्त सहायता करते रहना गृहस्थ के लिये बड़ा धर्म है। गुप्त दानका पुण्य बहुत भारी है इससे न तो सफेदपोश लेने वाले को संकोच होता है और न देने वाले दानी के हृदय में अभिमान होता है।