कामसेवन का मन से, वचन से तथा शरीर से परित्याग करके अपने आत्मा में रमना ब्रह्मचर्य है।
संसार में समस्त वासनाओं में तीव्र और दुद्र्वर्ष कामवासना है। इसी कारण अन्य इन्द्रियों का दमन करना तो बहुत सरल है किन्तु कामवासना की साधन भूत काम इन्द्रिय का वश में करना बहुत कठिन है। छोटे-छोटे जीव जन्तुओं से लेकर बड़े से बड़े जीव तक में विषयवासना स्वाभाविक (वैभाविक) रूप से पाई गई है। सिद्धांत ग्रन्थों ने भी मैथुन स्ंज्ञा एकेन्द्रिय जीवों में भी प्रतिपादन की है।
कामातुर जीव का मन अपने वश में नहीं रहता। उसकी विवेकशक्ति नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। पशु तो कामवासना के शिकार होकर माता, बहिन, पुत्री, स्त्री आदि का भेदभाव करते ही नहीं। सभी को समान समझ कर सबसे अपनी कामवासना तृप्त करते रहते हैं। इसी कारण उन्हें पशु (समान पश्यति इति पशु) कहते हैं। परंतु कामातुर मनुष्य भी कभी कभी पशु सा बन जाता है। कवि ने कहा है-
अर्थात्- दिन में उल्लू को दिखाई नहीं देता और मनुष्य को रात में नहीं दिखाई देता। परंतु कामान्ध पुरुष न रात में कुछ देखता है न दिन में। उसके नेत्र कामवासना के कर्तव्य अकर्तव्य को कुछ नहीं देख पाते।
कभी-कभी संसार सम्पर्क से दूर रहने वाले इन्द्रिय विजेता ऋषि लोग भी कामवासना के शिकार होकर अपनी तपस्या नष्ट कर डालते हैं। इस कारण कामदेव पर विजय प्राप्त करके ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना बहुत कठिन है। अतः कामवासना को जीतने वाला व्यक्ति संसार में सबसे अधिक पूज्य और बलवान् माना जाता है।
यह ब्रह्मचर्य का ही प्रताप है कि श्री नेमिनाथ तीर्थंकर अपना विवाह करने राजा उग्रसेन के घर बड़ी भारी बारात के साथ पधारे, किन्तु अहिंसा व्रत के कारण अपनी बारात में आये हुए माँस भक्षी लोगों के भोजन के लिये एकत्र किये गये पशु-पक्षियों पर करुणा करके उनको छोड़ दिया और अति रूपवती, नवतरुणी राजकुमारी के साथ विवाह करना त्याग कर साधु बन गये। देवागना समान सुंदरी राजमती ने नेमिनाथ से अपने साथ विवाह करने की अनेक प्रार्थनायें की, किन्तु ब्रह्मचारी नेमिकुमार पर कामदेव का रंचमात्र भी प्रभाव न हुआ।
अतिशय रूपवान सुदर्शन सेठ स्वदारसन्तोष (अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य सब स्त्रियों से मैथुन का त्याग) व्रत के धारक थे। उनके सुंदर रूप पर आसक्त होकर रानी ने छल से अपनी धूर्त दासी के द्वारा उनको अपने महल में बुलवा लिया, और अपनी कामाग्नि शांत कर देने के लिये सुदर्शन सेठ से बड़ी विनय प्रार्थना की, परंतु अटल ब्रह्मचारी सुदर्शन सेठ विषय-वासना के शिकार न हो सके। तदनन्तर कामविह्ल-कामपीडि़त रानी ने सुदर्शन सेठ द्वारा अपनी कामवसना तृप्त कराने के लिये उनके साथ बलात्कार करना चाहा। सुदर्शन सेठ को अपनी कोमल पुष्प शैया पर लिटाकर अपने वस्त्र उतार कर उसके साथ आलिंगन किया तथा अन्य सभी काम चेष्टाएं की परंतु सुदर्शन सेठ आत्मनिमग्न रहे आये, रानी के आलिंग से न तो उनके शरीर में जरा भी रोमांच हुआ और न उनकी काम इन्द्रिय (लिंग) पर लेशमात्र काम विकार आया। तब निराश होकर रानी ने सुदर्शन सेठ पर असत्य दोष आरोपण करके राजा को भड़काया और सुदर्शन सेठ को प्राणदंड दिलवाया। किन्तु ब्रह्मचर्य की महिमा से शूली भी सुदर्शन सेठ के लिये सिंहासन हो गई।
बहुत से कामी पुरुष अपनी कामवासना शांत करने के लिये स्त्रियों पर बलात्कार (स्त्रियों की इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक मैथुन करना) किया करते हैं। स्त्रियों द्वारा पुरुषों के साथ बलात्कार की बात किसी ने न सुनी होगी वैसा विपरीत बलात्कार रानी ने सुदर्शन सेठ के साथ करना चाहा जिसमें कि उनको सफलता न मिल सकी।
सुदर्शन सेठ के समान ब्रह्मचर्य व्रत का पालन प्रत्येक पुरुष को करना चाहिए। तथा सीता कितने ही दिनों तक रावण के कब्जे में रही आई, रावण ने सब तरह के प्रलोभन सीता के सामने रक्खे, अपनी बड़ी भारी विभूति और विद्याधरों के प्रभाव से उसे प्रभावित करना चाहा तथा बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करके रावण ने सीता केा अपने साथ विवाह करने के लिए अनेक भयानक दृश्य दिखलाये परंतु सीता के अटल ब्रह्मचर्य को वह जरा भी न डिगा सका।
यौवन में पर्दापण करने वाली, राज सुखों में पली हुई तरुणी राजुलमती को उसके माता पिता ने नेमिनाथ के विरागी हो जाने पर अन्य राजकुमारों के साथ विवाह करने के लिए झुकना चाहा किन्तु राजजुल अपने व्रत से चलायमान न हुई और उसने विषय-कामना को दबा कर अपना यौवन तपश्चर्या में लगा दिया।
सब स्त्रियों को भी सीता राजुल सरीखा दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रत पालन करना चाहिये।
जिस कामवासना से मनुष्य का वीर्य नष्ट होता है वह वीर्य मनुष्य के शरीर में सबसे उत्तम धातु है। जो कुछ भोजन मनुष्य करता है। उनका पाचन होकर शरीर के भीतर पहले रस बनता है, रस से खून बनता है, खून से माँस बनता है, मांस से मेदा बनती है, मेदा से अस्थि (हड्डी) तैयार होती है, अस्थि का सार अंश मज्जा (चर्बी) बनती है और मज्जा से वीर्य उत्पन्न होता है। जो भोजन आज किया जावे, २८ वे दिन जाकर उससे वीर्य बन पाता है। अतः वीर्य सबसे श्रेष्ठ धातु है। मनुष्य यदि दो मन दूध पीवे तो उससे सिर्फ दो तोले वीर्य बनता है।
शरीर में और दिमाग में जो मूल शक्ति है वह वीर्य के कारण ही प्राप्त होती है। जो मनुष्य मैथुन द्वारा वीर्य पतन करते हैं उनके शरीर और दिमाग की शक्ति क्षीण हो जाती है। और वे बलहीन होकर अनेक रोगों के शिकार बन जाते हैं, ऐसे बलहीन मनुष्य ही राजयक्ष्माक्षयरोग (तपेदीक टी0वी0) के भी पँजे में फँस जाते हैं और अकाल में मृत्यु के ग्रस्त बन जाते हैं।
इस कारण बलवान स्वस्थ दीर्घजीवन प्राप्त करने के लिये मनुष्य को अपने वीर्य की रक्षा करनी चाहिये। उसको व्यर्थ नष्ट न करना चाहिए। क्योंकि वीर्य शरीर का राजा हैं। जैसे कि राजा के बलवान रहते हुए प्रजा को कोई भी व्यक्ति दुःख नहीं पहुँचा सकता, इसी तरह वीर्य के बलवान रहने पर शरीर को कोई भी रोग कष्ट नहीं पहुँचा सकता।
जो व्यक्ति पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं कर सकता, उसको यथा सम्भव ब्रह्मचर्य व्रत पालन कराने के उद्देश्य से विवाह संस्कार द्वारा स्वदार संतोष या परस्त्री त्याग व्रत ग्रहण कराया जाता है। विवाहित पुरुष को अपनी पत्नी के सिवाय संसार की शेभ सभी स्त्रियों में से अपनी आयु से छोटी स्त्रियों को अपनी पुत्री समान, समान आयुवाली स्त्री को अपनी बहिन के समान एवं अपने से बड़ी आयु वाली महिलाओं को अपनी माता के समान समझ कर मन से, वचन से तथा काय से उनके साथ कामवासना का त्याग करना चाहिये, शरीर द्वारा मैथुन का त्याग तो अवश्य करना चाहिये।
इसी प्रकार विवाहित स्त्रियों को भी अपने पति के सिवाय शेष सभी पुरुषों को अपने से छोटों को पुत्र समान, अपनी बराबर वालों को भाई के समान और अपनी आयु से बड़े पुरुषों को पिता के समान समझना चाहिये।
विवाहित स्त्री पुरुषों (पति-पत्नी) को भी अच्छी गुणवान, रूपवान, विद्वान्, सुशील, धर्मात्मा संतान उत्पन्न करने के लिये ही ऋतु समय में मैथुन करना चाहिये, जिससे अपना शरीर स्वस्थ रहे और सुयोग्य संतान उत्पन्न हो। गर्भाधान हो जाने पर पति पत्नी को ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये जिससे गर्भस्थ शिशु को हानि न पहुँचे और वह कुशील स्वभाव का न हो। क्योंकि गर्भाधान के बाद माता पिता के प्रत्येक आचरण का प्रभाव गर्भ को संतान पर पड़ता रहता है। उस समय भी जो स्त्री पुरुष सदाचार से नहीं रहते उनकी संतान भी सदाचारी नहीं होती, दुराचारी व्यभिचारी होती है।
इसके सिवाय बीमारी तथा निर्बलता की अवस्था में भी ब्रह्मचर्य को भंग नहीं करना चाहिये अन्यथा रोगी शरीर में और भी अधिक निर्बलता आ जाती है। स्त्री रोगग्रस्त हो तो उसके साथ मैथुन करने से उसको क्षयरोग हो सकता है। यदि पुरुष रोगी हालत में ब्रह्मचर्य से न रहे तो वह तपेदिक (क्षय) का शिकार हो सकता है। इस कारण शारीरिक निर्बलता के समय ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है।
मनुष्य का वीर्य १८ वर्ष की आयु में पक जाता है और स्त्री का १४-१५ वर्ष की आयु में पक जाता है। इस आयु से पहले न तो पुरुष, स्त्री का विवाह होना चाहिये और न मैथुन होना चाहिये। २५ वर्ष का वर और १६ वर्ष की कन्या विवाह के लिये श्रेष्ठ है।