|| उत्तम संयम धर्म ||
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प्राणी-रक्षण और इन्द्रिय दमन करना संयम है।

स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण और मन पर नियंत्रण (दमन, कन्ट्रोल) करना इन्द्रिय-संयम है। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है इन दोनों संयमों में इन्द्रिय संयम मुख्य है क्योंकि इन्द्रिय संयम प्राणी संयम का कारण है, इन्द्रिय संयम होने पर भी प्राणी संयम होता हैं, बिना इन्द्रिय संयम के प्राणी संयम नहीं हो सकता।

इन्द्रियाँ बाह्म पदार्थों का ज्ञान कराने में कारण है, इस कारण तो वे आत्मा के लिये लाभदायक हैं क्योंकि संसारी आत्मा इन्द्रियों के बिना पदार्थों को जान नहीं सकता। पँचेन्द्रिय जीव की यदि नेत्र-इन्द्रिय बिगड़ जावे तो देखने की शक्ति रखने वाला भी आत्मा किसी वस्तु को देख नहीं सकता।

परंतु इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर आत्मा तो आकृष्ट (खींच) करके पथभ्रष्ट कर देती हैं, आत्मविमुख करके आत्मा को अन्य सांसारिक भोगों में तन्मय कर देती हैं, मोहित करके विवेक शून्य कर डालती हैं, जिससे कि साँसारिक आत्मा बाह्म-दृष्टि बन कर अपने फँसने के लिये स्वयं कर्मजाल बनाया करता है। इन्द्रियों का यह कार्य आत्मा के लिये दुख दायक है।

सारा सँसार इन्द्रियों का दास बना हुआ है। बड़े-बड़े बलवान योद्धा और विचारशील विद्वान भी इन्द्रियों के गुलाम बने हुए हैं, अपना अधिकतर समय इन्द्रियों को तृप्त करने में लगाया करते हैं।

हाथी कितना बलवान प्राणी है किंतु कामातुर होकर स्पर्शन इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये मनुष्य के जाल में फँस जाता है।

हाथी पकड़ने वाले मनुष्य हाथियों के जाल में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदते हैं। उसको बहुत पतली लकडि़यों से पाटकर उस पर हरी घास फैला देता हैं और उसके ऊपर कागज की एक सुंदर हथिनी बनाकर खड़ी कर देते हैं। हाथी उस हाथिनी को सच्ची हथिनी समझकर कामातुर होकर उससे मैथुन करने के लिए उस गड्ढे की ओर झपटता है जिससे पतली लकडि़याँ टूट जाती हैं और हाथी उस गड्ढे में गिर जाता है, वहाँ से निकल नहीं सकता तथा मनुष्यों द्वारा पकड़ लिया जाता है।

इस तरह स्पर्शन इन्द्रियों के वश में होकर कामातुर मनुष्य भी आत्म गौरव, धन, कीर्ति बल पराक्रम नष्ट भ्रष्ट करके सर्वस्व गँवा देते हैं, प्राण तक अर्पण कर देते हैं।

रसना इन्द्रिय की लोलुपता में फँस कर अगाध जल में विचरण करने वाली मछली अपने प्राण दे बैठती है।

मछलियाँ पकड़ने वाले लोहे के काँटे की नोक पर आटा या कोई खाने का अन्य पदार्थ लगाकर पानी में डाल देते हैं। मछली जैसे ही उसे खाने के लिए अपना मुख फाड़ती है कि तत्काल वह लोहे का काँटा उसके गले में फँस जाता है और मछली पकड़ में आ जाती है।

इसी प्रकार रसना इन्द्रिय के वश में होकर मनुष्य भी अनेक तरह के स्वादिष्ट भोजन लोलुपी बन जाते हैं। उस समय उनका भक्ष्य अभक्ष्य पदार्थों का विवेक शिथिल हो जाता है, भोजन भट्ट बनकर अपनी धनहानि तथा शारीरिक हानि कर बैठते हैं। मद्य, माँस, मधु आदि पदार्थ रसना इन्द्रिय को प्रसन्न करने के लिए ही खाये पिये जाते हैं। बहुत से लोलुपी मनुष्य ऐसे ही खान-पान में अपना सर्वस्व स्वाहा कर देते हैं।

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संयमी व्रत-त्यागी पुरुष यदि रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त न करे तो अपने समय को सुरक्षित नहीं रख सकता, वह अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसख्यान, रस परित्याग आदि तपों का ठीक समुचित आचरण नहीं कर सकता। इस कारण रसना इन्द्रिय का विषय भी स्पर्शन इन्द्रिय के समान महान् प्रबल है।

घ्राण इन्द्रिय के विषय में अचेत होकर भौंरा अपने प्राण खो बैठता है।

भौंरा अपने डँक में बाँस मैं छेद कर देता है, किंतु कमल की सुगंधी का लोभी भ्रमर कमल में बंद होकर उसमें से बाहर निकलने के लिये कमल में डँक नहीं मारता।

एक भौंरा दिन के समय खिले हुए कमल के फूल में जा बैठा और दिन भर उसकी सुगन्धों में मस्त रहकर वहीं पर बैठा रहा। सूर्यास्त होते समय जब कमल की खिली हुई पँखुडि़यों मुंदने लगीं तब भी भौंरा वहाँ से न उड़ा, यहाँ तक कि कमल मुकुलित हो गया और उसी कमल में कैद हो गया। फिर भी उसने कमल की गंध में मस्त रहकर उससे बाहर निकलने की कोशिश नहीं की, और कमल के भीतर बैठा हुआ विचारने लगा कि-

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं,
भस्वानुदेष्यति हसिष्यति पकंजश्रीः।
इत्थं विचियन्तयति कोशगते द्विरेफे,
का हंत हंत नलिर्नी गज उज्जहार।।

अर्थात्-कुछ समय पीछे रात बीत जायेगी, प्रभात हो जायेगा, तब पूर्व दिशा से सूर्य का उदय होगा, सूर्य उदय होते ही यह कमल भी खिलेगा। कमल के खिलते ही मैं यहाँ से उड़ जाऊँगा।

भौंरा ऐसा सोच ही रहा था कि जस तालाब में वह कमल का फूल था वहाँ पर एक हाथी पानी पीने के लिये आया। पानी पीकर हाथी ने उस कमल को अपनी सूँड द्वारा तोड़कर अपने मुख मंे रख लिया। इस तरह कमल की गंध का लोलुपी भौंरा जान से मारा गया।

सगर चक्रवर्ती को भी ऐसा ही कमल देखकर, जिसमें कि भौंरा मरा हुआ था, वैराग्य हो गया था।

मनुष्य भी नाक की इच्छा पूर्ण करने के लिये सुगंधित फूल, कपूर, तेल, इत्र आदि का प्रयोग किया करते थे। लखनऊ के नवाब इत्र का छिड़काव करके महफिल लगाया करते थे।

नेत्र इन्द्रिय सदा सुंदर वस्तुएँ, अच्छे प्रकाश और खेल तमाशे देखना चाहती है।

वर्षा ऋतु में असंख्य पतंगे उत्पन्न होते हैं, और वे दीपक, लालटेन, बिजली का प्रकाश देखने के लिये दीपक, लालटेन या बिजली के लट्टू पर झपटते हैं और उसी की लौ में अथवा बल्ब के तपे हुए शीशे पर जल कर मर जाते हैं।

खेल तमाशों तथा नृत्यों आदि देखने के शौकीन मनुष्य इस चक्षु इन्द्रिय को प्रसन्न करने के लिये बर्बाद हो जाते हैं।

कानों को तृप्त करने के लिये हिरन सुरीले बाजों तथा गायन को सुनने के लिये शिकारी के हाथ पड़ जाता है।

लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिदअलीशाह को यह बता दिया गया कि तुमको गिरफ्तार करने के लिये अंग्रजों की सेना आ रही हैं, परंतु नवाब गाने सुनने में ऐसा मस्त था कि गिरफ्तारी से बचने के लिये उसने कुछ यत्न नहीं किया। अंग्रेज जब उसको पकड़कर ले जाने लगे तब भी वाजिदअली ने कहा कि एक गाना और सुन लेने दो।

यशोधरा राजा की रानी हाथी के हस्तिपाल (महावत) के गाने पर मुग्ध होकर उस बदसूरत कुबड़े पर आसक्त होकर प्रेम करने लगी थी।

इस तरह कर्णरस के लोलुपी मनुष्य भी अपना सर्वस्व खो देते हैं। जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण नहीं रखते इन्द्रियों के दास बने रहते हैं। वे अपना कोई भी कार्य ठीक नियमानुसार नहीं कर पाते। उनकी आत्म-शक्ति कुण्ठित हो जाती है, उनसे पराक्रमी कार्य नहीं हो पाते, कारण वे बलवान होकर भी बलहीन दीन बने रहते हैं।

जो मनुष्य इन्द्रिय-विजयी होते हैं, वे इन्द्रियों से आत्महित का कार्य-ध्यान, अध्ययन, स्वाध्याय दर्शन, तीर्थयात्रा, परिश्रम आदि यथेष्ट काम लेते हैं। वे जिस तरह रईस लोग घोड़े पर सवारी करके घोड़े से मनमाना काम लेते हैं, जबकि इन्द्रिय लोलुपी मनुष्य इन्द्रियों की सेवा में लगे रहते हैं, जिस तरह सईस घोड़े की सेवा तो किया करता है किन्तु उसके ऊपर कभी सवारी नहीं कर पाता।

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