‘‘ऋजोर्भावः इति आर्जवः‘‘ - अर्थात्-आत्मा का स्वभाव ही सरल स्वभाव है, इसलिये प्रत्येक प्राणी को सरल स्वभाव रखना चाहियें। यह आत्मा अपने सरल स्वभाव से च्युत होकर पर-स्वभाव में रमते हुए कुटिलता से युक्त ऐसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों में भ्रमण करते हुए टेढ़ेपन को प्राप्त हुआ हैं। इसके इस स्वभाव के निमित्ति से यह आत्मा दिखावट, बनावट, छल, कपट और पापाचार इत्यादि को प्राप्त होकर आप दूसरों के द्वारा ठगाने वाला हुआ है।
जब यह आत्मा मन, वचन, काय से सम्पूर्ण पर-वस्तु से विरक्त होकर अपने आप में रत होता है तब यह जीवात्मा अपने सरल स्वभाव को प्राप्त होकर पर-वस्तु से भिन्न माना जाता है तभी यह सुखी हो जाता है।
मायाचार से युक्त पुरुष प्रायः ऊपर से हितमित वचन बोलता है और सौम्य आकृति बनता है। अपने आचरणों से लोगों को विश्वास उत्पन्न करता है। अपने प्रयोजन साधने के लिये विपक्षी की हाँ में हाँ मिला देता है किंतु अवसर पाते ही वह मनमानी घात कर बैठता है। मायावी पुरुष का स्वभाव बगुले के समान बहुत कुछ मिलता जुलता है। अर्थात् जैसे बगुला पानी में एक पाँव से खड़े होकर नाशादृष्टि लगाता है और मछली उसे साधु समझ कर ज्यों ही उसके पास जाती है त्यों ही वह छद्मवेषी बगुला झट से उन मछलियों को खा जाता है। बिल्ली चुपचाप दबे पाँव मौन धारण किये हुये बैठी रहती है, परंतु जैसे ही कोई मूसा उसके निकट पहुँचता है वैसे ही चट से खा लेती है। इस पर एक बहुत सुंदर दृष्टान्त दिया जाता हैं। एक बार एक बिल्ली किसी के घर में घुसकर दूध की हाँडी में मुँह डाल कर दूध पी रही थी कि इतने में मालिक आ पहुँचा। उसके भय से बिल्ली अपना मुँह शीघ्रता से निकालने लगी कि हाँडी का घेरा टूटकर गले में एक अद्भुत हार बन गया। गले में हाँडी का घेरा टँगा रहने के कारण वह बिल्ली अधिक दौड़ कूद नहीं कर सकती थी और इसी कारण वह किसी मूसे को न पकड सकने के कारण भूखी मरने लगी। अंत मे उसने एक ऐसा षडयंत्र रचना प्रारंभ किया। कि वह मूसों के एक बिल के सामने जाकर बैठ गई। उस रास्ते में विशाल बिल में हजारों चूहे जाया करते थे। परंतु बिल के पास बैठी हुई बिल्ली को देखकर सभी चूहे डर गये और बिल में न जाकर वापिस लौटने लगे। पास में आते हुये शिकार को वापिस लौटता हुआ देखकर बिल्ली बोल उठी कि भाई तुम लोग क्यों वापिस लौट पड़े ? चूहों ने कहा कि हमारी शत्रुता अनादि काल से चली आ रही है और तुम हमारे वंशजों को खाते चली आ रही हो। इसलिये हम तुम्हारा विश्वास कैसे करें ? बिल्ली कहने लगी कि भाई! तुम्हारा कहना बिल्कुल सत्य है, परंतु एक बात तुम लोगों से कहना चाहती हूँ। उसे तुम ध्यान से सुना और उसके बाद तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। यद्यपि हम अभी तक तुम्हारे वंशजों को नाश करती हुई चली आ रही हैं, यद्यपि अभी २ हाल में हम बनारस तीर्थ यात्रा करने के लिये गई थी। वहाँ पर जाकर हमने हिंसा त्याग करने का व्रत लिया था यदि विश्वास न हो तो देख लो हमारे गले में माला लटक रही हैं। अभी तक तो हमने अनेक जीवों की हिंसा करके तमाम पाप कमाये हैं, अतः अब वृद्धावस्था में कुछ धर्म ध्यान करना चाहिये। उस बिल्ली का बातों में आकर सभी चूहे निर्भय होकर बिल में प्रवेश करने लगे। पहले तो उसने दश पांव चूहों को छोड़ दिया, किंतु बाद में वह अनेक चूहों को चट कर गई। जब सभी चूहे बिल में जा पहुँचे तब उनमें से जो सबसे प्रधान थ्ज्ञा वह मिला ही नहीं। उस प्रधान की पूँछ कटी हुई थी। अतः उसे न देखकर सभी चूहे परस्पर मे शंकर करने लगे कि इसमे कुछ कारण अवश्य है। अतः इसकी गणना करनी चाहिये। जब वे लोग गिनने लगे तब उनमें से काफी चूहे घट गये। यह परिणाम जानकर चूहों ने निश्चय किया कि हो न हो यह छद्म वेषधारी बिल्ली की करामात है। इसलिये वे चूहे बिल के दरवाजे तक जाकर अपने शरीर को बिल में ही छिपाकर यह श्लोक पढ़ने लगे कि -
कंठ में केदारि कंकड़ धारण करने वाले हे धूर्त ब्रह्मचारी, तुम्हारे लिये नमस्कार है। हमारे हजारों चूहों में से सैकड़ों तूने नष्ट कर दिये और उसके साथ-साथ कटे हुये पूंछ वाला हमारा नेता भी नहीं दिखाई दे रहा है। इस तरह बिल्ली का मायाचार जानकर चूहों ने उसका साथ सदा के लिये छोड़ दिया। विश्वास के ऊपर ही सारे संसार का कार्य चल रहा है। विश्वास समाप्त हो जाने पर आदमी चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हों, पर उसकी कदर नहीं करता। कपटी मनुष्य किसी न किसी को फँसाने की चेष्टा किया करता है जिससे वह सदैव दुःखी रहता है और तिर्यंचगति में जाकर अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है। इन दुःखों से उसका छुटकारा तभी हो सकता है जबकि वह अपनी कुटिलता को त्याग देता है। मन, वचन, काय पूर्वक कुटिलता का त्याग करना ही आर्जव धर्म है। इस आर्जव धर्म के धारण करने से कर्मों का क्षय हो जाता है। और इससे पारलौकिक सुख की प्राप्ति के साथ-२ इहलौकिक सुख की भी प्राप्ति होती है। कुछ लोगों का कहना है कि बिना कपट किये व्यापार नहीं चल सकता, किन्तु उनका यह कहना बिल्कुल झूँठ है। सच्चे व्यापारी की दुकान प्राम्भिक अवस्था में भले ही कुछ शिथिलता से चलती हैं किन्तु उसकी सत्यता प्रगट होते ही सभी लोग दूर-दूर से उसका नाम पूछते हुए बेरोक टोक उसकी दुकान पर पहुँच जाया करते हैं। परंतु जो व्यापारी इसके विपरीत बेईमानी करने लगता है। उसकाी पोल थोडे़ ही दिनों में खुल जाती हैं और उसके बाद कोई उसके पास नहीं जाता। इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी दुकान एकदम ठप्प हो जाती है, जबकि एक ईमानदार साधारण व्यापारी की दुकान दिन-रात बढ़ती रहती है और एक दिन वही छोट-सा व्यापारी बहुत बड़ा प्रतिष्ठित आदमी बन जाता है। सत्यवादी और मिथ्यावादी के ऊपर एक दृष्टान्त दिया जाता है। एक ग्वाला दूध का व्यापार करने लगा। उसके पास प्रारंभ काल में केवल डेढ़ रुपया ही था, किन्तु वह ग्वाला बेईमानी से दूध में आधा पानी मिला मिलाकर प्रतिदिन बेचने लगा। इस प्रकार करते-करते उस ग्वाले ने थोड़े ही दिनों में बहुत-सा धन प्राप्त कर लिया। उसकी दुकान के सामने ही एक सदाचारी सत्यवादी की दुकान थीं, किन्तु काफी दिनों तक सत्यता से दुकान करने पर भी जब उसकी दुकान न चल सकी तब वह सत्यवादी अपने मन में सोचने लगा कि देखो मायाचारी ग्वाला थोड़े ही दिनों में धनवान बन गया, पर मैं सत्यता करता २ निर्धन ही रहा। अंत में एक साधु के पास जाकर नमस्कार करके उसने प्रश्न किया कि महाराज! क्या कारण है कि हमारे मायाचारी पड़ोसी ने थोड़े ही दिनों में बहुत धन प्राप्त कर लिया और हम सत्य के पीछे-पीछे चलने पर दरिद्री ही बने रहे। क्या मायाचार करने से ही धन की वृद्धि होती है ? महात्माजी बड़े दूरदर्शी, तत्वज्ञानी, बुद्धिमान् व विद्वान थे। उन्होंने युक्ति से इस प्रकार उसको उत्तर दिया कि आदमी के डूबने तक एक गड्ढा खुदवाकर उस आदमी को उसमें खड़ा कर दिया और घुटने बराबर पानी डलवा कर साधु ने पूछा कि भाई ! तुम्हें कुछ कष्ट है ? उसने कहा कुछ नहीं। साधुजी ने पुनः कमर तक पानी डलवाकर पूछा कि कोई कष्ट है ? उसने उत्तर दिया कुछ नहीं पुनः गले पर्यन्त पानी डलवाकर पूछा कि कोई कष्ट है! क्हा कि यह तो गर्मी का मौसम है और गले पर्यन्त पानी भरे रहने से खूब अच्छा लगता है। परंतु जैसे कि साधु बाबा ने मुंह तक आने के लिए पानी डलवाया तैसे ही वह डूबते हुए शोर मचाने लगा कि शीघ्र बचाओ, साधु बाबा ने उसे शीघ्र निकाल लिया और पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा कि बेटा! इसी प्रकार मायावियों का धन क्षणिक समझना चाहिये। जब तक पापरूपी गड्ढ़ा खाली रहता है तब तक धनिकों का धन अच्छा प्रतीत होता है, परंतु उसके मरते ही तुम्हारे समान नष्ट हो जाता है। कहा भी है कि-
अर्थात्- अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन केवल दश वर्ष तक साथ रहता है, परंतु ग्यारहवां वर्ष लगते ही वह समूल नष्ट हो जाता है। मायाचारी का धन बिजली के समान क्षणिक है। सदाचारी की कमाई से उसकी तुलना किसी अंश में भी नहीं हो सकती। अतएव ऐसे कल्याणकारी आर्जव धर्म को सदा धारण करना चाहिए।