मनुष्य अनेक कारणों से असत्य बोला करता है, उनमें से एक तो झूठ बोलने का प्रधान कारण लोभ है। लोभ में आकर मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये असत्य बोला करता है।
असत्य भाषण करने का दूसरा कारण भय है। मनुष्य को सत्य बोलने से जब अपने ऊपर कोई आपत्ति आती हुई दिखाई देती है। अथवा अपनी कोई हानि होती दिखती है। उस समय वह डरकर झूठ बोल देता है, झूठ बोलकर वह उस विपत्ति या हानि से बचने का प्रयत्न करता है।
असत्य बोलने को तीसरा कारण मनोरंजन भी है। बहुत से मनुष्य हंसी मजाक में कोतूहल के लिये भी झूठ बोल देते हैं। दूसरे व्यक्ति को भ्रम में डालकर या हैरान करके अथवा किसी को भय उत्पन्न कराने के लिये या दूसरे को व्याकुलता पैदा करने के लिये झूठ बोल देते हैं। इसी से उनका मनोरंजन होता है।
इसके सिवाय क्रोध में आकर मनुष्य ऐसे कुवचन, गाली गलौज मुख से निकाल बैठता है जिनको सुनकर जनता में क्षोभ फैल जाता है, निर्बल मनुष्य का हृदय तड़प उठता है, बलवान मनुष्य को वैसे दुर्वचन सुनकर क्रोध उत्पन्न हो जाता है जिससे कि बहुत भारी दंगाफसाद हो जाता है, मारपीट हो जाती है, यहाँ तक कि मरने मारने की भी तैयारी हो जाती है।
अभिमान में आकर भी मनुष्य दूसरों को अपमानजनक असह्म वचन कह डालता है जिससे सुनने वाला यदि शक्तिशाली मनुष्य होता है तो वह भी उत्तर में उनसे भी अधिक अपमानकारक वचन कह डालता है। यदि सुनने वाला व्यक्ति कमजोर दीन दुःखी होता है तो उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, उसको मार पीट से भी अधिक दुख होता है। तलवार का घाव तो मरहम पट्ठी से अच्छा हो जाता है किंतु वचन का घाव अच्छा नहीं होता।
द्रौपदी ने दुर्योधन को व्यंगरूप से इतना कह दिया था कि ‘अंधे (धृतराष्ट्र राजा दुर्योधन का पिता) का पुत्र भी अच्छा है।‘ यह बात दुर्योधन को लग गई और इसका बदला लेने के लिए उसने जुए में पांडवों से द्रौपदी को जीतकर अपनी सभा में अपमानित किया, उसकी साड़ी उतार कर सबके सामने उसने द्रौपदी को नंगा करना चाहा। इसी असह्म अपमान का बदला लेने के लिए कौरव पांडवों का महायुद्व हुआ जिसमें दोनांे ओर की बहुत हानि हुई, सभी कौरव योद्धा मारे गये।
इस तरह के अन्य व्यक्ति को दुखकारक, निंदाजनक, पापवचन भी असत्य में सम्मिलित है, इस कारण सत्यवादी मनुष्य को ऐसे वचन भी मुख से उच्चारण न करने चाहिए।
आचार्यों ने असत्य वचन छह प्रकार के बतलाये है-
(१) मौजूद चीज को गैर मौजूद कहना। जैसे घर में नेमीचंद बैठा है, फिर भी बाहर द्वार पर किसी ने पूछा कि ‘नेमीचंद है ? तो उत्तर में कह दिया कि ‘वह यहाँ नहीं है।‘
(२) गैर मौजूद वस्तु को मौजूद बतला देना। जैसे कि नेमीचंद घर में नहीं था फिर भी किसी ने पूछा कि नेमीचंद घर में है क्या ? तो उत्तर में कह दिया कि ‘हाँ घर में हैं।‘
(३) कुछ का कुछ कह देना। जैसे घर में विमलचंद था। किसी ने पूछा कि घर में कौन हैं तो उत्तर में कह दिया कि नेमिचंद है।
(४) गर्हित दूसरे को दुखदायक हंसी मजाक करना, चुगली करना, गाली गलौज देना, निन्दाकारक बात कहना। जैसे तेरे कुल में बुद्धिमान कोई हुआ ही नहीं फिर तू मूर्ख है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।
(५) सावद्य-पाप सूचक या पापजनक शब्द उच्चारण करना। जैसे-तेरा सिर धड़ से अलग कर दूँगा तुझे कच्चा खा जाऊँगा। तेरे घर बार को आग लगा कर तुझे जीवित जला दूँगा। इत्यादि।
(६) अप्रिय-दूसरे जीवों को डराने वाले, द्वेष उत्पन्न करने वाले, क्लेश बढ़ाने वाले, विवाद बढ़ाने वाले क्षोभजनक शब्द कहना। जैसे-निर्दय डाकुओं का दल इधर आ रहा है, वह सारे गाँव को लूट मार कर जला देगा।
ऐसे वचनों से कभी-कभी बड़ी अशांति और महान् अनर्थ फैल जाता है। झूँठ बोलने वाले मनुष्य के वचन पर किसी को विश्वास नहीं रहता, अतः वह कभी सत्य भी बोले तो भी सुनने वाले उसे असत्य ही समझते हैं।
एक गाँव में एक धनवान बुड्ढ़ा रहता था, उसके परिवार में उसके सिवाय और कोई न था। एक समय रात को वह झूठ मूठ चिल्लाया कि ‘मेरे घर में चोर आ गये हैं, जल्दी आकर मुझे बचालो।‘
पड़ौस के आदमी उसका चिल्लाना सुनकर उसके घर पर दौड़ आये, तो उनको देखकर बूढ़ा हंस का बोला कि मैं आप लोगांे की परीक्षा लेने के लिये झूठ मूठ चिल्लाया था, चोर मोर कोई नहीं आया।
कुछ दिन बाद फिर उसने ऐसा ही किया, दूसरी बार भी लोगों ने बूढ़े की बात सत्य समझी और इसी विचार से वे उसे बचाने के लिये उसके घर पर दौड़े आये, किंतु वहाँ आकर वही बात देखी कि बूढ़े ने अपना जी बहलाने के लिये उन सब का व्यर्थ हैरान किया है। ये देखकर लोगों को बहुत बुरा मालूम हुआ। सब चुपचाप अपने घर लौट गये।
संयोग से एक रात को सचमुच ४-५ चारे उस धनी बूढ़े के घर घुस आये। उनको देखकर बूढ़ा अपनी रक्षा के लिए बहुतेरा गला फाड़ कर चिल्लाता रहा परंतु सब पड़ोसियों ने उसकी बात झूठ ही समझी इस कारण एक भी पड़ौसी उसकी रक्षा करने के लिये उसके घर नहीं पहुँचा।
चोरों ने बुड्ढ़े को मार पीट कर उसका सारा धन उससे मालूम कर लिया और सब धन लेकर बूढ़े का गला घोंट कर वहाँ से चले गये।
एक झूठी बात को सत्य सिद्ध करने के लिए मनुष्य को और बीसों असत्य बात बनानी पड़ती हैं, जिससे एक असत्य पाप के साथ अन्य अनेक पाप स्वयँ हो जाते हैं और यदि असत्य का त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य से अन्य पाप भी स्वयंमेव छूट जाते हैं। इस कारण सत्य धर्म आत्म हित के लिए बहुत उपयोगी है।
एक बार नगर के बाहर एक साधु आये, नगर के सभी स्त्री पुरुष उनके दर्शन करने के लिये तथा उपदेश सुनने के लिये उनके निकट गये। उपदेश सुन कर प्रायः सभी ने मुनि महाराज से यथाशक्ति व्रत नियम ग्रहण किये।
जब सब स्त्री पुरुष वहाँ से चले गये तब वहाँ जो मनुष्य रह गया था बड़े संकोच के साथ वह मुनि महाराज के पास आया और नम्रता के साथ बोला कि महाराज मुझे भी कुछ व्रत दीजिये। मुनि महाराज ने उससेे पूछा कि तू क्या काम करता है।
उसने उत्तर दिया कि मैं-चोर हूँ, चोरी करना ही मेरा काम है।
साधु ने कहा कि फिर तू चोरी करना छोड़ दे।
चोर ने विनय के साथ कहा कि गुरुदेव! चोरी मुझ से नहीं छूट सकती क्योंकि चोरी के सिवाय मुझे और कोई काम करना नहीं आता।
मुनिराज ने कहा कि अच्छा भाई! तू चोरी नहीं छोड़ सकता तो झूठ बोलना तो छोड़ सकता है ?