चलते हुए रथ का चक्र (पहिया) जिस तरह गतिशील रहता है, जो भाग उसका कभी ऊपर होता हहै, वही भाग कुछ देर पीछे नीचे हो जाता है, एक ही रूप में नहीं बना रहता, इसी तरह काल-चक्र भी सदा पलटता रहता हैं। भरत ऐरावत क्षेत्र में वह कभी उत्थान (उत्सर्पिणी) रूप से चलता है, उस समय मनुष्य का बल वीर्य, पराक्रम, आयु, साधु साधन उत्तरोत्तर उन्नत होते जाते हैं और उसके समाप्त हो जाने पर अवनति (अवसर्पिणी) की ओर कामल की प्रगति होती है उस समय मनुष्य की आयु, काय, बल, बुद्धि, तेज, पराक्रम, सुख सामग्री (घटती हुई) होती है।
यह अवसर्पिणी काल चल रहा है, इसी कारण इस युग में प्राचीन युग की महत्वपूर्ण बातें दिनोंदिन कम होती जा रही हैं। बहुत प्राचीन समय की बातों को छोड़कर हम यदि १॰-१२ शताब्दी पहले के मनुष्यों के बल-विक्रम का विचार करें तो वैसा बल-विक्रम आज मनुष्यों में नहीं पाया जाता। यह काल विशुद्ध अवसर्पिणी नहीं है अतः इसमें नियमानुसार कालचक्र अवनति की ओर नहीं जा रहा है। बीच-बीच में कुछ उन्नति के चिन्ह भी दिखाई दे जाते हैं, परंतु फिर भी काल की प्रगति अवनति की ओर ही है। इस कारण इस काल का नाम ‘हुण्डावसर्पिणी‘ है।
इस समय आध्यात्मिक विज्ञान की ओर जनता की ओर विद्वानों की रुचि नगण्य-सी हैं, अतः आत्मा के विषय में कोई भी खोज नहीं होती, भौतिक चमत्कार की ओर लोग आकर्षित है, अतः भौतिक विज्ञान में आधुनिक विद्वान् बढ़ते जा रहे हैं। अनेक प्रकार के आविष्कार तथा यंत्रों का निर्माण करके अनेक दुर्लभ कार्यों को सुलभ बना रहे हैं, परंतु प्राचीन लोगों की प्रतिभा आज कल नहीं पाई जाती। केवल ज्ञान, मनः पर्याय तथा अवधिज्ञान तो आज यहाँ किसी के पास पाया ही नहीं जाता, इसेक साथ विशिष्ट मनिज्ञान, श्रुतज्ञान भी आज मनुष्यों में नहीं रहा। जरा-जरा सी बातों को स्मरण रखने के लिये मनुष्य लोग कागज पेंसिल का सहारा लेते हैं, जबकि आज से दो-ढाई हजार वर्ष पहले द्वादशांग का पठन-पाठन मौखिक चला करता था।
जिस सूक्ष्म बातों को आज बड़े भारी अध्ययन और प्रयोगों के बाद स्थिर किया जाता है और वह भी पलटता रहता है उन सूक्ष्म बातों को हमारे पूर्वज अपनी विशिष्ट प्रतिभा के आधार पर अकाट्य तथ्य के रूप में हजारों वर्ष पहले प्रकट कर चुके थे। परमाणुओं को बँधने, बिछुडने, परमाणु की तीव्र तथा मंद प्रगति के विषय में, शब्द की मौद्गलता, वनस्पतियों में जीव की सत्ता आदि के विषय में हमारे प्राचीन ग्रन्थों में जो उल्लेख मिलता है आज का विज्ञान भी इन बातों का समर्थन करके दुहरा रहा है।
जैसे आज प्राचीन युग नहीं रहा, पहले जैसा-बुद्धि-बल का विकास मनुष्य मे नहीं पाया जाता, वैसे ही आज-जैसा समय भविष्य में नहीं रहेगा। साढ़े अठारह हजार वर्ष प्रमाण इस पँचम काल (दुःषमा) के समाप्त हो जाने पर छठा काल(दुःषमा)(दुःषमा) आवेगा उस समय आज से भी बहुत गिरी हुई स्थिति स्त्री पुरुषों के आयु, शरीर, बल, बुद्धि, पराक्रम की होती चली जावेगी।
छठे काल मे मनुष्यों का आचार विचार बहुत गिर जायेगा। राजा का अन्याय बढ़ेगा। खान-पान की गिरावट, विपत्तियों की वृद्धि होती जायेगी। प्राकृतिक साधन भी बिगडते जायेंगे, अतः आज के सुख साधन उस समय इस रूप में न रहेंगे।
छठे काल की समाप्ति के समय भरतक्षेत्र के आर्य खंड प्रदेश में सात-दिन तक संवर्तक प्रचंड वायु (आंधी तूफान), बर्फ, क्षार, (खारा जल) विषैला जल बरसेगा। तदनन्तर सात-सात दिन तक भारी धुंए के गुबार उठेंगे और अंत में सात दिन तक वज्रपात (बिजली गिरना) होता रहेगा। इस तरह ४७ दिनों के इन प्रलयकारी प्राकृतिक उपद्रवों से आर्यखंड की सचमुच प्रलय हो जायेगी। तदनन्तर ४७ दिनों तक जल, क्षीरजल, मृतजल, रसजल आदि की वर्षा जिसके कारण वातावरण एकदम बदल जायेगा, उत्सर्पिणी युग का प्रारंभ होगा। आर्यखंड में प्रलय कालीन दृश्य बदल कर सृष्टि का दृश्य प्रगट होगा। अन्य दार्शनिक इस खंड प्रलय सृष्टि को समस्त विश्व की प्रलय और सृष्टि बतलाते हैं जो कि असंभव है। अस्तु।
खंड-प्रलय का प्रारंभ जेठ शुदी १२ को होता है और ४७ दिन पीछे समाप्त होकर सृष्टि की भूमिका बनना प्रारंभ होती है तदनुसार ४७ दिन पीछे भाद्रपद सुदी ५ से आर्यखंड में फिर मनुष्यों की हलचल प्रारंभ हो जाती है। उस समय उनको सुखी शांत जीवन बिताने के लिये क्षमा मार्दव, आर्जव आदि धर्म-उपदेश आवश्यक होता है। प्रतीत होता है कि इसी कारण दश लक्षण पर्व का प्रारंभ भाद्रपद सुदी ५ से होता है।
धार्मिक स्त्री पुरुषों ने इस दशलक्षण के दस दिनों में अन्य वर्षों की तरह क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मों का यथासंभव आचरण किया है। पूजन पाठ, स्वाध्याय, तप, दान, संयम किया है, जितना धर्म आचरण वर्ष के अन्य मासों में नहीं किया जितना कि इन १॰ दिनों में किया हैं, यदि ऐसे ही धर्माचरण का समय बारहों मास व्यतीत होता रहे तो आत्मा महान् शुद्ध बुद्ध बन जावे, किन्तु ऐसा सौभाग्य गृहस्थाश्रम की कीचड़ में फँसे हुए गृहस्थों को नहीं मिल पाता।
आज सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का दिन है। इसका प्रसिद्ध नाम क्षमावाणी है। यह दिवस भी जैन समाज का बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे तो मुनिजन प्रतिदिन ही नहीं बल्कि प्रति संध्या समय प्रतिक्रमण किया करते हैं, ‘मिच्छा में दुक्कडं‘ यानी-मेरा प्रमाद जनिद दुष्कृत (पाप) अपराध मिथ्या हो जावे‘ के रूप में प्रतिक्रमण करते हुए षट्कायिक जीवों को क्षमा करते हैं, उनसे क्षमा याचना करते हैं। पाक्षिक, मासिक आदि प्रतिक्रमण भी करते रहते हैं, किन्तु श्रावकों के लिये भी सामायिक के साथ प्रतिदिन स्वदोष आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमण करने की प्रक्रिया बताई गई है अतः गृहस्थों को भी प्रतिदिन स्वयं अन्य जीवों को क्षमा करना तथा अन्य समस्त जीवों से क्षमा याचना करनी चाहिये। परंतु पिछली ७-८ शताब्दियों का ऐसा खराब समय व्यतीत हुआ है जबकि मुसलमानी शासन में बहुत सी धर्मक्रियाएं लुप्त हो गई, तदनुसार अधिकांश गृहस्थ जनता इस कार्य को भूल ही गई।
जिस तरह व्यापारी दीपावली के दिन अपने वर्ष भर के जमा खर्च केा समाप्त करके नया लेन-देन प्रारंभ करता है, वैसा ही महत्वपूर्ण आध्यात्मिक दिन आज का है। आज के दिन भी आत्मा का अपराधी लेन-देन समाप्त हुआ करता है, अग्रिम वर्ष के लिये नया लेन-देन प्रारंभ होता है। प्रमाद वश वर्ष भर में अन्य जीवों के प्रति मन से, वचन से अथवा शरीर द्वारा जो कुछ अपराध होता है उसेक लिये आज के दिन शुद्ध मन से क्षमा-याचना की जाती है तथा अन्य के अपराध क्षमा किये जाते हैं। इस तरह समस्त प्राणियों के साथ द्वेष, घृणा भाव का लेन-देन समाप्त कर दिया जाता है। इसी कारण आज का दिन सांवत्सरिक (वार्षिक) प्रतिक्रमण का शुभ दिवस है। इस दिन आध्यात्मिक शुद्धि का बहुत कुछ महत्वपूर्ण कार्य हो जाता है।
ऐसा पवित्र दिवस या त्यौहार अन्य किसी सम्प्रदाय में नहीं है।
स्ंसारी जीव अज्ञान भाव से बहुत सी त्रुटियाँ (गलतियाँ) कर बैठता है, उसे पहले से पता नहीं लगता कि इस कार्य का परिणाम क्या होगा, यह अपनी समझ से ठीक काम करना चाहता है। परंतु अज्ञान के कारण गलत काम कर बैठता है। इस गलती में दूसरे प्राणियों को मानसिक, वाचनिक, शारीरिक कष्ट पहुँचा देता है, उनकी आर्थिक हानि, पारिवारिक हानि कर डालता हैं, अपने लिये दुखदायक कार्यकर लेता है। इस तरह संसारी प्राणी से त्रुटियाँ एक तो अज्ञान भाव से हुआ करती हैं।
दूसरे-कषाय भाव से निमित्त से भी स्व-अहितकारी तथा परहानिकारी कार्य बनते रहते हैं। क्रोध वंश जीव दूसरे को मार पीट डालता है, जला देता है, घायल कर देता है, गालियाँ देता हैं, मन में अनेक तरह की बुरी भावना भाता रहता है, कभी क्रोध में अपना शरीर नष्ट भ्रष्ट कर डालता है। अभिमान में आकर अन्य निर्बल, दीन दुखी जीव का अपमान कर डालता है, अपनी नाक ऊँची रखने के लिये दूसरे व्यक्तियों को नीचा दिखाने की चेष्टा करता है। मायाचार, मिथ्याचार से दूसरों का विश्वासघान करता है, धोखा देता है, अपनी स्वार्थीसिद्धि के लिये दूसरों का सत्यानाश करते हुए भी नहीं चूकता। लोभ के कारण तो जीव दुनियाँ भर के पाप करता ही रहता है। शारीरिक मोह, पारिवारिक मोह, आर्थिक मोह, लोकेषणा आदि के कारण संसार में किसी को अपना प्रिय समझ बैठता है उसके साथ रागजनित चेष्टायें करता है, और किसी को अहित कारक मान कर उसे अपना शत्रु समझ लेता है, तब उसके साथ द्वेष भावना बनाकर उससे बदला लेने का यत्न करता है।
अपनी कामवासना तृप्त करने के लिये अनेक तरह कुत्सित कार्य कर डालता है, उस समय उसका विवेक जाता रहता है, कार्य अकार्य का उसे ध्यान नहीं रहता। कामातुर मनुष्य कभी तो पशु से भी पतित हो जाता है।
इस तरह कषायों के आवेश में भी मनुष्य विविध प्रकार के अपराध किया करता है। गृहस्थाश्रम में तो पद-पद पर कषाय भाव जाग्रत होते रहते हैं। मुनि अवस्था में यद्यपि कषायें बहुत शांत होती है, परंतु हेाती तो हैं ही। इस प्रकार अज्ञान और कषाय समस्त अपराधी के मूल कारण हैं।