संसार में प्रत्येक मानव प्राणी के लिए क्षमा रूपी शास्त्र इतना आवश्यक है कि जिनके पास यह क्षमा नहीं होती वह मनुष्य संसार में अपने इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता है।
क्षमा यह आत्मा का धर्म है, इसलिए जो मानव अपना कल्याण चाहते हैं, उन्हें हमेशा इस भावना की रक्षा करनी चाहिए। क्षमावान् मनुष्य का इस लोक और परलोक में कोई शत्रु नहीं होता है। क्षमा ही सर्व धर्म का सार है। क्षमा ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप आत्मा का मुख्य सच्चा भंडार है। जैसे कि-
उत्तम क्षमा गुणों के समूह के साथ रहने वाली है अर्थात् उत्तम क्षमा के होने से अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं। यह उत्तम क्षमा मुनियों को बड़ी प्यारी है। श्रेष्ठ मुनिजन इसका पालन करते हैं। यह उत्तम क्षमा विद्वानों के लिए चिन्तामणि है अर्थात् चिन्तामणि रत्न के समान है। इच्छित पदार्थों के देने वाली है। इसी तरह विद्वानों को उत्तम क्षमा से इच्छित ज्ञानादिक प्राप्त होते हंैं। ऐसी यह उत्तम क्षमा चित्त की एकाग्रता होने से उत्पन्न हो जाती है।
क्षमा वीरस्य भूषणन:- अर्थात् क्षमा धर्म वीर पुरुष का भूषण है। जिनके पास क्षमारूपी शास्त्र है, उनका शत्रु क्या कर सकता है ? वैरी को जीतने में देर नहीं लगती है। क्षमावान् हमेशा सुखी रहता है। क्षमा वाले पुरुष का संसार में कोई भी शत्रु नहीं है।
क्षमावान् पुरुष हमेशा गंभीर रहता है, क्रोधी मनुष्य हमेशा दुबला-पतला रहता है। क्रोधी मनुष्य को कोई भी विश्वास नहीं करता अपने और पर का भी घात कर डालता है। क्रोधी मनुष्य की आँख हमेशा लाल रहती है, जिस समय उनको क्रोध आता है तब उनका सारा शरीर काँप उठता है और उसको सुध-बुध नहीं रहती है। अनेक अनर्थों को कर बैठता है और धर्म-कर्म आदि सभी बातों को भूल जाता है।
धृति समन्वित:- सात्विक प्रवत्ति का मनुष्य धृतियुक्त होता है। अनेक विघ्न आने पर भी भीतर की अंतःकरण प्रवृत्ति में तिलमात्र भी अंतर नहीं पड़ता है, और खेद खिन्न नहीं होता है, शांति पूर्वक सह लेता है। इस प्रकार शांति पाने के लिए संयम का अभ्यास करना पड़ता है। इसका अभ्यास तभी हो सकता है जब अपनी इन्द्रियों के काबू में लाने के लिए बाहरी विषय लोलुपता को घटाना और अपने संयम में लोलुपता को बढ़ाना, इन्द्रिय वासना कम होते भी पर द्रव्य के प्रति लालसा घटती जाती है, तब क्रोध मात्रा कम होती जाती है। अपनी आत्मा में उत्सुकता और शारीरादि परद्रव्य में निरुत्सुकता होती है, तब संपूर्ण प्राणी मात्र को आप समान मानता है, और पर को पर वस्तु। अपने आत्मा को आप मानता है। जब मन में शत्रु मित्र के प्रति समानता है। तब दूसरे जीवों के प्रति क्रोध या द्वेष अहंकार भावना नहीं करता है। क्रोध ही महान शत्रु है। यह क्रोध चारों गतियों में भ्रमण कराने वाले कौन-कौन से अनर्थ नहीं करता है ? सब कुछ कर डालता है। इसलिए सज्जन पुरुष क्रोध से दूर रहता है। ज्ञानी सज्जन पुरुष को कदाचित् कोई शत्रु दुष्टता से मार दे या अनेक उपद्रव खड़े कर दे तो भी क्षमावृत्ति को कभी त्याग नहीं करता है। जैसे कहा भी है कि-
बार-बार जलाये और तपाये जाने पर भी सोना अपने सौन्दर्य को नहीं छोड़ता बल्कि जितना तपाया जाता है उतना ही चमकता है। बार बार घिसने पर भी चंदन अपना स्वभाव न छोड़कर सुगंध को ही फैला देता है। ईख (गन्ना) टुकडे़टुकडे़ करने पर भी अपने मीठे पने को नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार उत्तम पुरुषों की प्रकृति किसी भी अवस्था में विकारमय नहीं होती है।
अर्थात् कैसी भी आपत्ति आने पर भी क्षमावान् मनुष्य अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता और शांतिपूर्वक अपने ऊपर आई हुई आपत्ति को सहन कर धैर्यशाली या बलशाली बन जाता है। उसी को लोग शूरवीर कहते हैं। पूर्व जन्म में किये हुए कर्म का बदला यह मनुष्य मुझ से ले रहा है सो कोई बात नहीं। क्योंकि मैंने पूर्व जन्म में इसके साथ क्रोध किया होगा इसलिए मुझसे बदला ले रहा है। यदि कोई मुझे पापी, चांडाल, अन्यायी, अत्याचारी, असभ्य कुवचन बोलता है तो कोई हर्ज नहीं है। इससे मेरे कर्म की निर्जरा होती है।
यदि सज्जन क्षमावान् मनुष्य को कोई दुर्वचन कहे या अकुलीन कहे तो अपने मन में ऐसा विचार करता है कि ये तो मेरा नाम ही नहीं है, और जाति नहीं हैं, मैं तो परम पवित्र स्वरूप आत्म-ज्योति रूप परमानंद अविनाशी परब्रह्मस्वरूप परमात्मा वही मैं हूँ, वही मेरी आत्मा है। आत्मा का नाम तो नहीं है। फिर मुझे गाली से, निंदा से, दुर्वचनों से उन पर क्रोध करना उचति नहीं है। फिर अपने आत्मा को समझाता हहै कि हे आत्मन्! तुम अनेक जन्म में चोर, जार, जुगार तथा कूकर, सूकरादि योनियों में तिर्यंच पापी व अधर्मी आदि नीच पर्याय को, धारण करके आये हो, तो कूकर सूकर व चांडालादि कहने से दुःखी क्यों होते हो ? क्योंकि जीव इस प्रकार के कुवचन कहने से संक्लेशित होता है उसे पुनः चर्तुगति में पड़कर नाना प्रकार के दुःख उठाने पड़ते है। जब हम सब उपरोक्त नीच-ऊँच योनि में जन्म ले चुके हैं तब हम शोक क्यों करे ? निन्दक लोगों को हमारे प्रति ऐसा समझना चाहिये कि वे हमारे भीतर के मैल को बिना रुपया पैसा व साबुन के ही साफ कर रहे हैं। ऐसे उपकारियों के साथ यदि हम ईष्र्या द्वेष करें तो हमारे जैसा अधर्मी कौन।
इस प्रकार क्षमावान् पुरुष अपनी आत्मा को समझाकर अपने क्षमा-भाव से च्युत नहीं होता है। आज के युग में भारतवर्ष में महात्मा गाँधी ने केवल निःशास्त्र अर्थात् क्षमारूपी शस्त्र से भारत भूमि को हस्तगत कर भारतवासियों को स्वतंत्र करा दिया है और जिन जिन महान् ऋषि मुनियों ने आत्म-सिद्ध कर लिया उन्होंने केवल क्षमारूपी शस्त्र से कर्म बैरी को जीतकर अखंड मोक्षरूपी साम्राज्य को हस्तगत कर लिया है। अगर मानव प्राणी संपूर्ण विश्व को हस्तगत करना चाहता है तो उसके वश करने के लिये क्षमा मंत्र ही एक महामंत्र है अन्य कोई साधन नहीं। इससे दुर्जन भी सज्जन बन जाता है। इसलिये मानव प्राणी को अपने और पर-हित के लिये क्षमा भाव को साधन भी करते रहना चाहिये।
नीतिकार ने कहा कि-
जो धीर वीर पुरुष है वह क्षमा से नहीं डिगता है-
धीर वीर मनुष्य की प्रकृति या बुद्धि उत्पीडि़त होने पर भी किसी प्रकार से विकृत हो सकती है इस प्रकार की आशंका करना व्यर्थ है। अग्नि को कितना ही नीचे की ओर क्यों न दवाये उसकी लपट सदा ऊपर को ही जायेंगी।
ऐसे ही महापुरुषों की वृत्ति (भीतर का क्षमारूपी तेज) हमेशा शत्रु से न डरकर, शत्रु, से दबाये जाने पर भी उनकी शांतवृत्ति दूसरो के उपकार के प्रति ही दौड़ती है।
क्रोधी क्या-क्या नहीं करता ? सब कुछ कर डालता है। क्रोधी सम्पूर्ण धर्म को लोप कर देता है, और माता, पिता, स्त्री, पुत्र, बालक, स्वामी, सेवक तथा अन्य मित्र, कुटुम्ब इत्यादि किसी को भी नहीं छोड़ता, सभी को मार डालता है। तीव्र, क्रोधी स्वतः ही विष खाकर या चाकू इत्यादि से अपनी आत्म हत्या कर लेने में पीछे नहीं हटता है, पर्वतादि से नीचे गिरकर प्राण भी दे देता है, अगर कोई अन्य मनुष्य उसको समझाने भी जाये तो उनका भी घात करता है। जिनकी क्रोध प्रकृति है वे मनुष्य किसी का उपकार, दया या अन्य सेवा सुश्रुषा भर नहीं करते हैं। क्रोध ऐसा है कि ये अग्नि के समान मनुष्य के भीतर से उत्पन्न होकर शरीर तक को पूरा जला देता है। बड़े-बड़े महान् तप से युक्त तपस्वियों को भी इस क्रोध ने नहीं छोड़ा है। जिन्होंने क्रोध को जीता वह अपने कर्म शत्रुओं को जीतकर निर्वाण पद प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं।
क्षमवान् पुरुष को पृथ्वी की उपमा दी गई है, जैसे पृथ्वी संपूर्ण महान्-महान् पहाड, पत्थर, वृक्ष, नदी, सरोवर, नीचे ऊँचे मनुष्य, पशु-पक्षी इत्यादि का सम्पूर्ण भार अपने आप सह लेती है। उसी प्रकार क्षमावाक मनुष्य पृथ्वी के समान ऊँच-नीच लोगों के द्वारा होने वाले असह्म उपसर्ग, निंदा, गाली, तिरस्कार इत्यादि को सहन करते हुए अपने क्षमा भाव को नहीं छोड़ता है। शायद क्षमावान् पुरुष यह विचारता है कि मैंने पूर्व से इसका कुछ अपकार किया है। यह उसका बदला चुक रहा है। इसे शांतिपूर्वक सह लेने से मेरे अशुभ कर्मों की निर्जरा होगी। फिर मैं क्रोध क्यों करूँ।