|| उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म ||
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किन्तु विवाह हो जाने पर कामवासना में तन्मय न होना चाहिये। उन्हें सुयोग्य संतान उत्पन्न करने का ध्येय रखकर अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। पति-पत्नी में से किसी के भी अस्वस्थ होने पर तो ब्रह्मचर्य से अवश्य रहना चाहिये। पत्नी की इच्छा न होने पर भी ब्रह्मचर्य भंग करना अनुचित है। पत्नी की अनिच्छा होने पर अयोग्यता (रजस्वला), गर्भाधान की दशा में विशेष करके गर्भाधान के छठे मास के पश्चात् थकावट आदि के समय होने पर मैथुन करना बलात्कार के समान है।

यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जिस व्यक्ति में आत्मबल की कमी होती हैं, उसी में विषयवासना अधिक होती है। सिंह केवल एक बार विषय सेवन करता है, सिंहनी को उसी से गर्भाधान हो जाता है। तदनन्तर साथ-साथ रहते, सोते उठते बैठते भी फिर सिंह सिंहनी पर नहीं चढ़ता। हजारों गायों के झुंड में रहते हुए साँड रजस्वला गाय को ही छेड़ता है, गर्भाधान हो जाने के बाद फिर उस गाय के साथ भी ब्रह्मचर्य से रहता है। कुत्ते, बिल्ली, बकरी आदि निम्न जाति के जानवर भी वर्ष में कुछ दिन ही कामातुर होते हैं, बाद में लगभग ११ मास तक ब्रह्मचर्य से रहते हैं।

देव-देवियों का शारीरिक मैथुन पहले दूसरे स्वर्ग में ही है। तदनन्तर क्रमशः स्पर्श, दर्शन (देखना), वार्तालाप तथा मानसिक मैथुन होता है। सोलहवें स्वर्ग से ऊपर समस्त देव आजन्म ब्रह्मचारी होत हैं।

इस प्राकृतिक व्यवस्था में दो सिद्धांत निश्चित होते हैं। (१) निम्न श्रेणी के जीवों में विषय-वासना तीव्र होती है, उच्च श्रेणी के जीवों में कामवासना कम होती जाती है। (२) ब्रह्मचर्य आत्मा को अधिक आनंददायक है, काम सेवन में ब्रह्मचर्य की अपेक्षा आनंद बहुत कम है। क्योंकि संसार में सबसे अधिक सुख सर्वार्थसिद्धि के देवों को होता है जो कि ब्रह्मचारी होते हैं।

अब उन मनुष्यों का विचार कीजिये जो कामवासना के कीड़े बन जाते हैं। कामवासना शांत करने के लिए प्रतिदिन मैथुन सेवन करते हैं, एक ही बार नहीं किंतु अनेक बार। काम-पिपासा शांत करने के लिए जो अपनी पत्नी का स्वास्थ्य भी नहीं देखते, उनकी अनिच्छा की परवा नहीं करते। घर में सुन्दरी स्वस्थ पत्नी के होते हुए भी पर स्त्रियों को बुरी दृष्टि से देखते हैं। परस्त्रियों को भ्रष्ट करते हैं, वेश्याओं से काम क्रीडा करते हैं, और भी अनेक अनर्थ करते हैं, क्या ऐसे मनुष्य कुत्ते, बिल्ली आदि पशुओं से भी निम्न श्रेणी के नहीं है ? क्यांेकि जानवर भी वर्ष में (१॰-११) मास तक ब्रह्मचर्य से रहते हैं।

इस कारण विवाह हो जाने पर भी स्त्री पुरुषों को स्वस्थ सुखी प्रसन्न जीवन बिताने के लिए कम से कम काम सेवन करना चाहिये।

यदि अपने घर में कोई स्त्री विधवा हो जाय तो उसको पवित्र दृष्टि से देखना चाहिये, उसके साथ पवित्र सात्विक व्यवहार करना चाहिये, जिससे वह ब्रह्मचर्य पूर्वक अपना जीवन बिता सके।

यदि हमको अपनी विधवा बहिन या पुत्री आदि का सदाचार सुरक्षित रखना हो तो हमको अपना चारित्र पवित्र बनाना होगा।

एक बंगाली ब्राह्मण की १६ वर्ष की लड़की विधवा हो गई। वह ब्राह्मण अच्छा अनुभवी बुद्धिमान था। वह उस लड़की को अपने घर लिवा लाया। उसने उसी दिन से ब्रह्मचर्य ले लिया। वह, उसकी पत्नी और पुत्री तीनों ब्रह्मचर्य से रहने लगे, जमीन पर सोने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि उस लड़की का यौवनकाल पवित्रता के साथ समाप्त हो गया।

बच्चों को सच्चरित्र बनाने के लिये दूध मुँहे बच्चे के सामने भी मैथुन सेवन न करना चाहिये। छोटे बच्चे कुछ कह नहीं सकते, किन्तु अपनी माता तथा पिता की प्रत्येक बात उनके कोमल हृदय पर अंकित होती जाती है। वे ही संस्कार बड़े होने पर बच्चों को सदाचारी या दुराचारी बना देते हैं।

अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्रिका, दशालाक्षणी, आदि धार्मिक दिनों में स्त्री पुरुषों को पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये।

ब्रह्मचर्य व्रत लेकर उसको नौ बाढ़ों से सुरक्षित रख कर यथोचित रूप से पालन करना चाहिये, तदनुसार ब्रह्मचारी को न तो स्त्रियों के आसन पर बैठना चाहिये, न उनकी शय्या पर सोना चाहिये, न स्त्रियों के साथ एकांत मंे मिलना चाहिये, न उनके साथ मीठा रागजनक वार्तालाप करना चाहिये, न उनके अंग उपांगों को देखना चाहिये, कामोत्तेजक पदार्थ न खाने चाहिये, अपना रहन-सहन, खान-पान, पहनना ओढ़ना, सात्विक सादा रखना चाहिये। स्त्रियों के चित्र जहाँ लगे हुए हों वहाँ न रहना चाहिये।

ब्रह्मचारी सदा शुचि:-आत्मा में पवित्रता ब्रह्मचर्य गुर्ण के कारण आती है। दुराचारी, व्यभिचारी सदा अशुद्ध अपवित्र रहता है।

जो मनुष्य ब्रह्मचर्य अणुव्रत का ठीक आचरण नहीं करते यानी अन्य स्त्रियों, वेश्याओं कुमारी कन्याओं आदि के साथ व्यभिचार सेवन करते हैं उनके घर में दुराचार प्रवेश हो जाता है। फिर उनके घर में उनकी स्त्री, पुत्र आदि सभी दुराचारी बन जाते हैं। क्योंकि दुराचार की छाया में सदाचार कभी नहीं पनप सकता। इस कारण जो मनुष्य अपनी स्त्री, पुत्री, बहिन, पुत्र आदि को सदाचारी बनाना चाहता है उसे पहले स्वयं सदाचारी बनाना चाहिये।

जिस समय अपने पुत्र या पुत्री का विवाह कर दें उसी समय स्वयं मनुष्य को ब्रह्मचर्य ले लेना चाहिये।

ब्रह्मचारी का आत्मा में महान् बल का विकास होता है, उसके मुख पर तेज चमकता है, उसकी वाणी में प्रभाव होता है, उसका शरीर बलिष्ठ और निरोग होता है, उसकी बुद्धि विकसित हो जाती है। अनेक आध्यात्मिक गुण प्रकट होने लगते हैं।

इस कारण अनैतिक कामसेवन को रोककर, नैतिक मैथुन को भी बहुत कम कर देना चाहिए और ब्रह्मचर्य का अधिक से अधिक पालन करना चाहिये।

ये क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य आत्मा के स्वभाव रूप हैं अतः ये आत्मा के धर्म हैं।

इन धर्मों का पूर्णरूप से निर्दोष आचरण महाव्रती मुनि ही कर सकते हैं, क्यांेकि उनके कषाय बहुत शांत होते हैं, वे आक्रोश, वध, सत्कार, पुरस्कार आदि परिषहों को शांत भाव से सहन करते हैं, अतः उनका क्षमाधर्म पूर्ण यथार्थ होता है। उन्हें अपने ज्ञान, चारित्र, तप आदि का अभिमान नहीं होता अतः मार्दव गुण उनमें निर्मल रहता है। कूट कपट करने का उन्हें कोई कारण नहीं, अतः वे निर्दोष आर्जव गुण का आचरण करते हैं। उन्हें धन आदि के अर्जन, संचय की आवश्यकता नहीं, अतः निर्लोभ वृत्ति के कारण उनमें शौच धर्म स्वच्छता के साथ विद्यमान रहता है। असत्य भाषण की उनकी कुछ आवश्यकता नहीं, अतः वे पूर्ण सत्यवादी होते हैं। गृह, आरंभ आदि न होने से उनमें असंयम होता ही नहीं, तपस्वी तो वे होते ही हैं। त्यागी तो उनसे बढ़कर और कोई होता ही नहीं। अंतरंग बहिरंग परिग्रह न होने से मुनि अकिंचन व्रताचरणी होते ही हैं और मनसा, वाचा, कर्मणा ब्रह्मचारी होते ही हैं जिसकी साक्षी उनकी अविकार नग्न मुद्रा देती है। इस कारण मुनियों के आचरित धर्म उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव,उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन और उत्तम ब्रह्मचर्य कहलाते हैं।

गृहस्थ उतने निर्दोष रूप में इन १॰ धर्मों का आचरण नहीं कर पाते या गृहस्थाश्रम की परिस्थिति के कारण रूप से पालन नहीं कर पाते अतः उनके क्षमा, मार्दव, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य आदि १॰ धर्मों के साथ ‘उत्तम‘ विशेषण नहीं लगता।

गृहस्था स्त्री पुरुषों को इन सभी धर्मों का यथासम्भव यथाशक्ति आचरण अवश्य करना चाहिये।

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