यह कह कर वह घर से बाहर निकल गया और मुनिराज का शिष्य बन गया।
संसार की ऐसी ही स्वार्थमयी लीला सर्वत्र दिखाई देती है। वास्तव में जीव का यहाँ कोई भी अपना पदार्थ नहीं है। जीव के जीते हुए यह सब कृत्रिम (बनावटी) प्रेमलीला चलती है। मरने के पीछे कोई भी उस प्रेम को नहीं रखता।
एक नगर में एक विद्वान कवि रहता था, वह बहुत निर्धन था। एक दिन जब वह बहुत तंग आ गया तब उसने चोरी करने का निश्चय किया। विद्वान तो वह था ही, अतः नीति विचार कर उसने अन्य किसी के घर चोरी करना उचित न समझा। उस नगर के राजा का राजभवन ही चोरी के लिये चुना।
रात हुई और किसी तरह लुक छिप कर वह राजभवन में, पहुँचा, वहाँ पर अनेक वस्तुएँ देखकर कुछ निश्चय न कर सका कि यहाँ से कौन सी वस्तु उठा कर ले जाऊँ। अंत में घूमते फिरते राजा के शय्या भवन में जा पहुँचा।
दीपक के प्रकाश में उसने देखा कि राजा गहरी नींद में सो रहा है, उसके पलंग के चारों पायों के नीचे सोने ही ईंट लगी हुई है। यह देखकर उस विद्वान चोर ने विचार किया कि इन ईंटों में से एक ईंट ले चलना चाहिये।
फिर उसके हृदय में विचार आया कि चारों में से किस को उठाऊँ ? पलंग हिलने पर राजा जग जायेगा तब कैसा होगा ? फिर उसने नीतिशास्त्र के श्लोक पढ़ डाले और सोचने लगा कि सुवर्ण चुराना अनुचित है। चोरी करने चला हूँ तब और ही कुछ चुराऊँ इस सोने को क्यों चुराऊँ ?
विचारों की ऐसी ही उधेड़बुन में उस विद्वान चोर की रात समाप्त हो गई किंतु वह कुछ भी न उठा सका।
प्रभात हुआ राजा नींद से उठा और पलंग पर बैठ गया। राजा संस्कृत भाषा का विद्वान था और प्रतिदिन उठते ही एक श्लोक बना कर फिर अन्य कार्य किया करता था। तदनुसार उस दिन भी एक श्लोक बनाने लगा उसने श्लोक के तीन चरण बना भी डाले-
अर्थात्- मेरे पास मनोहर स्त्रियाँ हैं, प्रिय मित्र है, हितैषी मेरे भाई हैं, बहुत से विनीत नौकर हैं, बहुत से हाथी मेरे द्वार पर गरजते रहते हैं और अनेक तेज चाल वाले मूल्यवान घोड़े मेरे पास विद्यमान है।
ये तीन चरण राजा ने अनेक बार बढ़े किन्तु चैथा चरण जब उससे न बन सका तब वह विद्वान चोर भाव के आवेश में चुप न रह सका और उस श्लोक का चैथा चरण बनाता हुआ बोल उठा कि-
अर्थात्- हे राजन्! तेरे नेत्र मिच जाने पर (मृत्यु हो जाने पर) तेरा कुछ भी नहीं है।
राजा ने अपने श्लोक की ऐसी सुंदर पूर्ति सुनकर आश्चर्य से चोर की ओर देखा और उससे पूछा कि तू यहाँ कैसे आया ? उस विद्वान कवि ने अपनी दरिद्रता मिटाने के लिये चोरी करने को राज भवन में आने की बात, और वहाँ से कुछ भी न उठा सकने की सब बात ज्यों की त्यों सुना दी।
राजा उस विद्वान से बहुत प्रसन्न हहुआ और उसको बहुत सा धन पारितोषित देकर उसने उसकी दरिद्रता मैट दी।
इस कथा से आकिंचन धर्म पर बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है। राजा अपनी विभूति का बड़े अभिमान के साथ अपने श्लोक के ३ पदों में वर्णन कर रहा था, मन में समझ रहा था कि मैं संसार में बड़ा भाग्यशाली हूँ यह सब ऐश्वर्य मेरा है। राजा की यह सब कल्पना ऐसी ही थी जैसे स्वप्न हुआ करते हैं। चोरी करने के लिये आये हुए उस कवि ने राजा को सचेत कर दिया कि राजन्! राजा गलत सोच रहें हो यह सब जागत की दशा का स्वप्न है, आँख मिच जाने पर इन वस्तुओं में से तुम्हारी एक भी न रह सकेगी।
मनुष्य जन्म समय मुट्ठी बाँधे हुए आता है, मानो संसार की वस्तुओं को अपनी मुंट्ठी में रख लेगा। परंतु ज्यों-ज्यों वह अपनी आयु के समय बिताता जाता है उसकी मुट्ठी खुलती जाती है। अंत में मृत्यु का समय आता है तब उसकी मुट्ठी बाँधने पर भी नहीं बँधती, अपने आप खुल जाती है।
सिकन्दर बादशाह ने अनेक देशों पर आक्रमण करके उनको अपने आधीन किया और उनकी अपार सम्पत्ति लूट कर अपने देश में ले गया जब वह मरने लगा तब उसको अपनी लूटी हुई सम्पत्ति देखकर बहुत दुःख हुआ कि इतना धन मैं यहीं छोड़कर जा रहा हूँ। उसने संसार को एक अच्छा पाठ पढ़ाने के लिये आज्ञा दी कि मेरे मर जाने पर मेरे दोनों हाथ अर्थी से बाहर रक्खे जावें और मेरी समस्त सम्पत्ति श्मशान भूमि तक मेरे साथ चले। उसके मरने के बाद ऐसा ही किया गया।
सिकंदर के जनाजे को देखकर एक कवि ने कहा कि -
इस प्रकार जीव न तो अपने साथ परभव से कुछ लाता है और पर परभव को यहाँ से ले जाता है, अपना शरीर भी यहीं पर पड़ा हुआ छोड़ जाता है। आत्मा का कमाया हुआ पुण्य पाप ही उसके साथ रहता है उसके सिवाय रत्ती भर भी अन्य वस्तु उसके साथ नहीं रहती।