जिस तरह साबुन की रगड़ से वस्त्र का मैल बाहर आ जाता है और वस्त्र की स्वच्छता प्रगट हो जाती है इसी तरह शास्त्रों के स्वाध्याय से ज्ञान के परदे हटते चले जाते हैं और ज्ञान की किरणें फैलती चली जाती हैं। ज्ञान जब तक पूर्ण (केवल ज्ञान) न हो जाय जब तक ज्ञान को स्वाध्याय के द्वारा विकसित करते जाना चाहिए।
तीर्थंकर देव राग-द्वेष रहित होते हुए भी अपनी तीर्थंकर प्रकृति के उदय से समस्त जीवों को कल्याणकारी उपदेश देकर जगत् को सुमार्ग दिखलाते हैं। परम दयालु गणधर उस जिनवाणी को द्वादश अंगों के रूप में गूँथ देते हैं फिर आचार्य गुरु-परम्परा से उस ज्ञान की धारा बहाते हैं, अपने शिष्य प्रशिष्यों को ज्ञान प्रदान करते हैं। अनेक आचार्य भव्य जीवों के कल्याण के लिये अपने सामायिक स्वाध्याय आदि के अमूल्य समय को शास्त्र रचना में लगाते हैं। उनके ही उपकार का यह शुभ फल है कि आज भी जिनवाणी हमको शास्त्रों द्वारा प्राप्त है।
संसार की अन्य विद्याओं (गणित, भूगोल, ज्योतिष, साहित्य व्याकरण, न्याय आदि) को जान लेने पर भी जब तक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता तब तक आत्मा का कुछ भी हित नहीं होता, इस कारण आत्म उद्धार के लिये जो जिनवाणी जिन शास्त्रों में मौजूद है उन शास्त्रों का स्वाध्याय बहुत उपयोगी है।
आत्मा क्या है, कब से हैं, कहाँ से आया है, कहाँ जायेगा, संसार में सुख-दुःख भोग कर चक्कर क्यों लग रहा है, संसार चक्र कैसे बनता है, कर्मजाल कैसे कटता है, मुक्ति किस तरह होती है ? इत्यादि आत्म उपयोगी सिद्वांत का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक स्त्री पुरुष का मुख्य कर्तव्य है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये पूर्व आचार्यों द्वारा रचित शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिये जिससे आत्म-उपयोगी कार्य किया जा सके।
इस तरह हृदय के नेत्र खोलने के लिये स्वाध्याय तप बहुत लाभदायक है।
व्युत्सर्ग तप:-बहिरंग अंतरंग परिग्रह का त्याग व्युत्सर्ग है
पीछी, कमंडलु, धन आदि बाहरी पदार्थों से ममता मोह त्याग कर निर्ममत्व होना बहिरंग व्युत्सर्ग है। मिथ्यात्व, क्रोध आदि कषाय, हास्य आदि नौ कषायों का त्याग करना अन्तरंग व्युत्सर्ग है।
मुनिराज समस्त परिग्रह का त्याग करके साधु दीक्षा ग्रहण करते हैं इसी कारण अपने शरीर पर लेशमात्र वस्त्र तक नहीं रखते। संयम (जीव रक्षा) साधन के लिये मोर के पंखों की पीछी रखते हैं क्योंकि मोर के पंख बहुत कोमल होते हैं ऊन में कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं किन्तु मोर के पंखों में कीड़े पैदा नहीं होते, सदा प्रासुक रहते हैं। तथा मोर के नाचते समय उसकी पूँछ से बहत से पंख स्वयं जमीन पर गिर पड़ते है। अतः उनके लिय न तो मोर को कष्ट देना पड़ता है। और न द्रव्य ही खर्च करना पड़ता है। शौच के लिये प्रमुख पानी भरने के लिये लकड़ी या नारियल का एक कमंडल होता है जिसमें श्रावक प्रासुक जल दे देते हैं और ज्ञान वृद्धि के लिए शास्त्र होता है। इसके सिवाय मुनियों के पास कुछ भी नहीं होता। इन तीनों पदार्थांे के साथ भी वे ममता नहीं करते।
अन्तरंग में उनको अपने शरीर से भी मोह नहीं होता, इसी तरह ध्यान के समय शरीर की समस्त क्रियाओं को, भोजन पान आदि को नियत समय के लिये और समाधिमरण के समय जीवन पर्यन्त आहार छोड़ देते हैं। इसके सिवाय, केशलोंच, पृथ्वी पर शयन, नग्न रहना, एकासन करना, ध्यान आदि द्वारा तथा उपसर्ग के समय शांति तथा धैर्य से कष्ट सहन करके अपने अन्तरंग व्युत्सर्ग का आचरण करते है।
मोह ममना की कर्मबंध तथा संसार भ्रमण का कारण है। उस मोह ममता का परित्याग इस व्युत्सर्ग द्वारा विशेष रूप से हुआ करता है, इस दृष्टि से व्युत्सर्ग तप भी बहुत हितकारी और लाभदायक है।
ध्यान:-किसी भी विषय पर चित्तवृत्ति का एकाग्र होना ध्यान है
विचारों का मूल साधन मन है। मन के द्वारा ही अनेक तरह के शुभ-अशुभ शुद्ध विचार हुआ करते हैं। जिस समय शरीर और वचन की क्रिया बंद रहती है। उस समय भी मन में कुछ न कुछ अच्छे बुरे संकल्प विकल्पों की क्रिया होती ही रहती है। सोते समय शरीर और वचन निश्चेष्ट (निकम्मे) रहते हैं किन्तु मन उस समय भी अपना कार्य नहीं छोड़ता। अनेक तरह के स्वप्न दीखना मन का ही कार्य है। बिना स्त्री-सम्पर्क के पुरुषों को सोते समय मन के दूषित विचारों के कारण ही स्वप्न दोष हो जाता है। इस कारण मन से अच्छा उपयोगी कार्य लेने का अभ्यास करना चाहिये।
मन के विचारों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- (१) आर्तरूप (दुखीरूप), (२) रौद्ररूप (भयानक विचार), (३) शुभरूप (धर्मरूप), (४) शुद्धरूप (राग द्वेष रहित शुक्लरूप)।
(१) प्रियवस्तु-पुत्र, मित्र, स्त्री, पिता, धन, मकान आदि का वियोग हो जाने पर नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर, खो जाने पर जीव के विचार दुखी होते हैं। (इष्ट वियोग) अथवा
(२) अप्रिय वस्तु-शत्रु, कुपुत्र, कुमित्र, कुभार्या, कुमाता कुपिता, कुभ्राता आदि के मिलने पर कलह, क्लेश, मारपीट आदि द्वारा चित्त मे चिंता, व्याकुलता, भय आदि दुखी भाव बने रहते हैं (अनिष्ट संयोग)
(३) सिर, पेट, कान, नाक, नेत्र आदि में किसी रोग के कारण पीड़ा होने पर, वायु की पीड़ा अथवा ज्वर आदि अन्य शारीरिक रोगों के कारण जो महावेदना होती है, उस समय चित्त व्याकुल होता है।
(४) भविष्य के लिये अनेक प्रकार के संकल्प विकल्पों से चित्त बेचैन होता है। इस तरह दुःख के अनुभव रूप चिन्तवन में मन का उलझा रहना आर्तध्यान है।
(१) अन्य मनुष्य पशु आदि को मारने, कूटने, जलाने, छेदने, भेदने, घायल करने, गिरा देने, काट देने आदि की विचार-धारा बनाये रखना तथा किसी को लड़ा-भिड़ा कर प्रसन्न होना, अथवा किन्हीं मनुष्यों द्वारा पशुओं-पक्षियों आदि को परस्पर लड़ाते-भिड़ाते देखकर खुश होना, हिंसाजनक कार्यों में आनंद मानना। (हिंसानंद) (२) असत्य बोलने दूसरे को धोखा देने, कूट कपट करने दूसरों को भ्रम पैदा करने, दूसरों को ठगने आदि में मन का प्रसन्न रहना। (असत्य में आनंद मानना)। (३) दूसरों की वस्तु चुरा लेने, गुम कर देने लूट लेने आदि चोरी सम्बंधी कार्यों में चित्त प्रफुल्लित होना। (चैर्यानंद) (४) रात दिन धन एकत्र करने में लगे रहना, धर्म कर्म, सभ्य-व्यवहार आदि की अपेक्षा करके स्वास्थ्य आदि की भी परवाह न करके धन सम्पत्ति कमाने में लवलीन रहना, न्याय-अन्याय, मान अपमान, नीति-अनीति, यश-अपयश आदि की चिंता न करके धन इकट्ठा करने में तन्मय रहना, उसी में प्रसन्न रहना, (परिग्रहानंद) रौद्र ध्यान है।
(१) दान, उपकार, दीन दुखियों की सेवा, समाज का उद्धार, लोक कल्याण धर्म प्रचार के कार्य में दत्तचित्त रहना, जिनवाणी के प्रचार की भावना रखना धर्म प्रचार का उत्साह रखना (आज्ञाविचय) (२) दुखी जीवों के दुख दूर करने की भावना, कुपथगामी जीवों को सन्मार्ग पर लाने के विचार, अज्ञान अश्रद्धा जगत से मेटने की भावना रखना (अपायविचय)। (३) भाग्यचक्र, अभाग्यचक्र बनने बिगड़ने की प्रक्रिया का सुख, शांति अशांति के कारण कलापों का, कर्मजल में फँसने तथा उससे मुक्त आदि के विचार से मनोवृत्ति लगी रहना (विपाकविचय)। (४) जगत के आकार प्रकार आदि के विचार में तथा स्व-पर कल्याण के अन्य विचारों में संलग्न रहना (संस्थान विचय) धर्मध्यान है।
राग करने से भी कर्मजाल बनता है और द्वेष मोह आदि भी कर्म जंजीर के कारण हैं। आत्मा में अशांति, क्षोम, व्याकुलता इन्हीं राग, द्वेष, मोह, क्रोध, काम, लोभ, शोक, हर्ष, विषाद आदि के कारण हुआ करती हैं, अतः समस्त संसार से सम्पर्क तोड़कर, किसी भी पदार्थ से यहाँ तक कि निज शरीर से भी न रंचम मात्र अनुराग प्रेम करना, न किसी भी पदार्थ से लेश मात्र द्वेष, घृणा, विषाद आदि करना, आत्म साधन में ही तन्मय होना शुद्धध्या नया शुक्लध्यान है।
इन चारों ध्यानों में से आर्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ विचारों के कारण हुआ करते हैं अतः ये दोनों ध्यान के परिभ्रमण के कारण हैं। इनसे पाप कर्मों का बंध होता है। इन दोनों ध्यानों से दूर रहना चाहिए।
धर्म ध्यान में मन विचार शुभ रूप होते हैं, अतः उनसे शुभ कर्मों का निर्माण होता है, जिससे आत्मा सन्मार्ग पर लगता है, स्वर्ग आदि शुभ गति प्राप्त करता है जिससे आत्मा को सांसारिक सुख शांति मिलती है।
धर्म ध्यान में मन के विचार शुभ रूप होते हैं, अतः उनसे शुभ कर्मों का निर्माण होता है, जिससे आत्मा सन्मार्ग पर लगता है, स्वर्ग आदि शुभ गति प्राप्त करता है जिससे आत्मा को सांसारिक सुख शांति मिलती है।
राग द्वेष-विहीन शुक्ल ध्यान के द्वारा आत्मा शुद्धि प्राप्त करके संसार से मुक्त हो जाता है। इसी शुक्ल ध्यान के कारण भरत चक्रवर्ती ने मुनि बनाकर अन्तर्मुहुर्त की समाधि से ही केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
अतः धर्मध्यान परम्परा से आत्मशुद्धि का कारण है और शुक्लध्यान साक्षात् मुक्ति का साधन है। इसीलिये बतलाया है -
अर्थात्-मन के विचार ही कर्म-बंध के कारण है और मन के विचार ही कर्म-मुक्ति (अजर अमर निरंजन परमात्मा होने) के कारण है।
इस तरह ध्यान सबसे अधिक महत्वशाली तप है।