1 - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि नियामक है, जहां चार प्रकार की शुद्धि हो, तभी वहां चैका शब्द सार्थक हो जाता है।
2 - चैके के स्थान पर प्राकृतिक प्रकाश पर्याप्त मात्रा में हो, दुर्गन्ध न हो वह स्थान शुद्ध हो, वहां अपवित्र पदार्थ न पड़े हों, जूते-चप्पल आदि बाथरूम, पाखना, अशुद्ध वस्त्र नआदि न हों।
3 - उक्त स्थान में प्राकृतिक वायु का गमनागमन अवधित होता रहता हो। वहां से सार्वजनिक व्यक्तियों का आवागमन न हो।
4 - अन्न शुद्धि (सड़ा, गला, घुना, अभक्ष्य, जूठा विवर्णयुक्त, बेस्वाद न हो) होना चाहिए।
5 - जल शुद्धि के लिए जन मोटे दुहरे छन्ने से छना हो, जीवानी (विलछानी) के यथास्थान पहुंचा देना चाहिए, जल नलादि का न हो, जल उबला हुआ (24 घंटे की मर्यादा वाला) हो।
6 - आहार बनाते समय ईंधन शुद्ध (कपड़े, घुनी, लकड़ी, चमडे के वार्सल युक्त स्टोव या अन्य अशुद्ध पदार्थ का प्रयोग नहीं किया गया) हो।
7 - आहार बनाने वाला दाता स्वस्थ, नहाधोकर, शुद्ध, स्वच्छ कपड़े पहनकर ही चैके में कार्य करें, अशुद्ध वस्त्रों से, अस्वस्थ या अशुद्धि की अवस्था में चैके का कार्य न करें।
8 - दाता के नाखून बड़े-बड़े व गंदे न हो, नेलपेण्ट, लिपिस्टिक, क्रीम सेन्ट आदि का भी प्रयोग न करें एवं दाता को चैके में जाने सेपूर्व चर्बी युक्त साबुन से नहीं नहाना चाहिए अन्यथा अशुद्ध ही कहलायेगा।
9 - दाता ध्यान रखे- उसके अंग, भंग न हो, उंगली आदि कटी न हो, शरीर से बहता हुआ पसीना खाद्य सामग्री से स्पर्शित न हो। (पसीना आये तो उसे अलग जाकर पोंछ लेना चाहिए, पुनः हाथ धो लेना चाहिए।)
10 - ग्रहण काल, शोक काल, रात्रि काल आदि वैकाल अथवा सामायिक स्वाध्याय, देववंदना आदि के समय को टालकर शुद्ध काल में ही आहार देना चाहिए।
11 - ‘‘श्रद्धा, भक्ति, समर्पण, विनय, वात्सल्य, करूणा’’ अदि समीचीन भवों से युक्त होकर तथा दुर्भावों से रहित होकर ही दान देना चाहिए।
12 - क्रोध, मान, मयाचारी, लोभ, विषय वासना युक्त, आर्त-रौद्र घ्यानजन्य परिणाम, शल्यमय परिणाम या हिंसा झूठ-चाररी-कुशी-परिग्रह केया अप्रशस्त राग या द्वेष रूप परिणाम कुभाव कहलाते हैं। इन कुभावों से रहित होकर ही आहारादि दान देना चाहिए।
13 - आहार में दी जाने वाली वस्तु परिणामों में विशुद्धि को वृर्द्धिगत करने वाली, मौसम, स्वास्थ्य, अवस्था व प्रकृति के अनुकूल प्रमाद व विनाशक, शुद्ध, प्रासुक व मार्यदित होनी चाहिए।
14 - आहार में देय पदार्थ अपक्व, अतिपक्व, दुर्गम पाच्य, अपाच्य, विवर्ण-कुवर्ण युक्त विरस, विगंध, विवर्ण, अशोभनीय, निंद्य, संक्लेशकारक, रोगोत्पादक, प्रकृति व मौसम के प्रतिकूल नहीं होना चाहिए।
15 - उत्तम दाता वह होता है, जिसके परिणाम क्षम, मार्दव सरलता, सहजता, संतोषयुक्त श्रद्धा भक्ति व समर्पण रूप हो। दान के समय परिणाम कषाय-क्लेशजन्य न हो।
16 - दाता मूर्ख न हो, हीन कुल वाला, कलंकित हीनाचरण युक्त न हे, अपाहिज विकलांग न हो, कंजूस, दरिद्र, निंद्य, दान देने में असमर्थ निंद्य-व्यवसायी, बहु हिंसा-अनुमोदक-कत्ता अथवा करनाने वाला न हो, जैन कुल के प्रतिकूल आचरण करने वाला न हो।
17 - दाता जुकाम, खांसी, ज्वर, कुष्ठरोग, भगंदर, बवासीर, कैंसर, टी.वी. (क्षयरोग) आदि भयंकर रोग से पीडि़त न हों। गूंगा, अंधा, काना, बहरा, लंगड़ा, लूला न हो।
18 - दाता मेँ के समान वात्सल्य से युक्त श्रद्धा भक्ति विवेक से युक्त आहारदान की क्रिया में कुशल, ग्लानि को जीतने वाला, प्रमोदी प्रसन्नता से युक्त होना चाहिए।
19 - आहार देते समय दाता फटे-पुराने या बिल्कुल कोरे कपड़े धारण न करें, धुले हुए वस्त्र ही होने चाहिए। बाल खुलेन हों सिर को ढ़क कर ही विवेकी दाता आहार देता है।
20 - आदर्श चैका वह कहलाता है, जहां आहार सम्बंधी कार्य सूर्योदय के 2 घड़ी (48 मिनट) के बाद प्रारंभ होता है तथा सूर्याेस्त के लगभर 2 घड़ी पूर्व ही समाप्त हो जाता है।
21 - विवेक दाता/श्रावक वह कहलाता है जो चैके को सूना नहीं छोड़त, आहर की सामग्री को स्वच्छ वस्त्र से ढ़ाक कर पाटे पर रखता है, जिससे मक्ख्ी आदि न बैठ सके।
22 - आहार देते समय धवल वस्त्र धारण करनेवला उत्तम, पीत वस्त्र वाला मध्यम, हरित, नील, गुलाबी आदि वस्त्र वाला जघन्य, काले वस्त्र धारण करने वाला निंद्य/निकृष्ट दाता होता है।
23 - विवेक दाता गीले वस्त्रों से अपूर्ण वस्त्रों से अति छोटे या बड़े वस्त्रों को पहनकर या रेशम के वस्त्र या किराये आदि के वस्त्रों को पहनकर आहार नहीं देता।
24 - सुविवेकी दाता चैके में नीचे देखकरचलता है, किसी कार्य में जल्दबाजी या प्रमाद नहीं करता, गर्म-दूध-पानी-ऊकाली (काढ़दि क्वाल) को कभी मुंह से नहीं फूंकता। क्योंकि मुंह से फूंकने से थूक उचटने से वह वस्तु अभक्ष्य ही हो जाती है।
25 - दाल, सब्जी, खिचड़ी, हलुवा, रबड़ी, भात आदि स्निग्ध पदार्थों को चमच्च से ही देना चाहिए, हाथ से नहीं, तथा अन्य पदार्थ, रोटी फल लड्डू या मुनक्कादि यदि हाथ से दे रहे हैं तो उन्हें भी अधिक समय तक हाथ नहीं में रखना चाहिए। हाथ की ऊष्मा का पदार्थ भर भी प्रभाव पड़ता है।
26 - कभी भी दाता को बांये हाथ से या केवल दायें हाथ से आहार नहीं देना चाहिए। अपितु दायें हाथ को मुख्य करके बायें हाथ को साथ में लगाते हुए दोनों हाथों से ही आहार देना चाहिए।
27 - आहार देते समय दाता को चाहिए कि आहार इस प्रकार दे कि वस्तु पात्र की अंजुलि के बाहर न गिरे एवं अति विलम्ब या अतिशीघ्रता से आहार न देकर विवेकपूर्ण समयानुसार आहार देना चाहिए।
28 - चैके के दाता ध्यान रखे कि पाटा या वर्तन या मेज-चोकी आदि को इधर-उधर न सरकायें। अन्यत्र रखना हो तो उठाकर ही रखना चाहिए क्योंकि सरकाने/घसीटने से जीवों की हिंसा भी संभव हैं।
29 - चैके में प्रज्ज्वलित अग्नि न हो, कूलर, हीटर, पंखा आदि भी चलते हुए न हों। (चालू न हों), कृत्रिम विद्युत जन्य प्रकाशश न हो प्राकृतिक प्रकाश ही होना चाहिए।
30 - विवेकी दाता को चाहिए कि वह कोई भी पदार्थ देते समय देख ले कि कहीं वह पदार्थ (दूध, जल, सब्जी, खिचडत्री आदि) अतिगर्म अथवा अतिशीत न हो जो कि पात्र के लिए प्रतिकूल हो।
31 - उत्तम दाता को अपनी शुद्धि, द्रव्य-काल-भाव की शुद्धि का विशेषतया ध्यान रखना चाहिए। अशुद्ध वस्त्र वाले व्यक्तियों से दूर ही रहें। चैके को स्पष्ट करने वाली लाई अति स्पष्ट दिखायी देना चाहिए।
32 - चैके में शुद्ध वस्त्रधारी ही प्रवेश करें व कार्य करें, अशुद्ध वस्त्र वाले नहीं। स्वयं चैके में दाता प्रकाशः आहार देते एक तरफ होते जाएं, भीड़ बनाकर सामने खड़े न रहें भीड़ बनाने से असावधनी से अंतराय की संभाना रहती हैं।