।। अंतराय कर्म ।।

किसी कार्य में विघ्न आ जाए जिससे वह कार्य पूर्ण न हो सके उसे अंतराय कर्म कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से जीव के दान, लाभ भोग-उपभोग एवं वीर्यादि गुणों का नाश हो जाता है उसे अंतराय कर्म कहते हैं। इस अंतराय कर्म के 5 भेद हैं -

jain temple191

1 - दान अन्तराय कर्म

2 - लाभ अन्तराय कर्म

3 - भोग अन्तराय कर्म

4 - उपभाोग अन्तराय कर्म

5 - वीर्य अन्तराय कर्म

1 दानान्तराय - जिस कर्म के उदय से दाता सत्पात्रों को आहारादि दान की इच्छा रखते हुए भी नहीं दे पाता और यदि देता है तो उसमें कोई न कोई विघ्न आ जाता है। यह दानान्तराय कर्म कहलाता है।

2 लाभान्तराय - लाभान्तराय कर्म के उदय से जीव लाभ प्राप्त नहीं कर पाता। सामने लाभ प्राप्त होता देखकर भी उससे वंचित रह जाता है।

3 भोगान्तराय - जो वस्तु एक बार भोगने में आये उसे भोग कहते हैं। जैसे-दान, रोटी, पानी, तेल आदि। एक बार सेवन करे योग्य वस्तुओं का प्राप्त नहीं हो पाना अथवा प्राप्त करते हुए भी उनको भोग नहीं पाना भोगान्तराय कर्म के उदय का परिणाम है।

4 उपभोगान्तराय - जो वस्तु बार-बार सेवन करने में आती है, वे उपभोग की वस्तुएं कहलाती हैं। जैसे-वस्तु वाहन, आसन, शैय्या, आभूषणादि। उपभोग्य वस्तुओं को प्राप्त करके भी उनका उपभोग जिस कर्म से उदय से नहीं कर पाते हैं वह उपभोगान्तराय नामक कर्म है।

5 वीर्यान्तराय- जिस कर्म के उदय से पर्याप्त भोगोपभोग के उपरांत भी शारीरिक शक्ति की हीनता होना या शक्ति का ह्रास होते जाना वीर्यान्तराय कर्म का ही कुफल है। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से ही अनंत शक्ति की प्राप्ति होती है। ज्यों-ज्यों क्षयोपशम बढ़ता है त्यों-त्यों शक्ति भी बढ़ती है। वीर्यांन्तराय कर्म का उदय होने पर शक्ति का ह्ारस होता है।

दाता आहार देना चाहता है, सत्पात्र लेना चाहते हैं फिर भी दाता के दानान्तराय कर्म के उदय से एवं पात्र के लाभान्तराय/भ्लोगान्तराय कर्म के उदय से आहार को प्राप्त नहीं कर पाते। सामान्यतया ऐसे 32 कारण दिये हैं, जिनके उपस्थित होने पर मुनिराज आहार छोड़ देते हैं वे निम्नांकित हैं-

1 काक - आहार के लिए गमन करते हुए यदि मुनिराज के ऊपर काक, वक, बाज चील आदि में से कोई भी पक्षी बीट कर दे तो मुनिराज उस दिन अंतराय मानकर आहार त्याग देते हैं यहां पर कारण की मुख्यता का कथन कार्य में करके साहचर्य से अंतराय का भी काक कह दिया है।

2 अमेध्य - आहारार्थ गमन करते हसमय यदि मुनिराज का पैर विष्ठा, गीला गोबर, गंदी कीचढ़ आदि में लिप्त हो जाए तो मुनिराज आहार का त्याग कर देते हैं। यह अमेध्य नाम का अंतराय है।

3 वमन - आहार करते समय मुनिराज को वमन (उल्टी) हो जाए तो भी मुनिराज आहार का त्याग कर देते हैं उस दिन पुनः आहार नहीं करते हैं।

4 रोधन - आहार हेतु जाते समय कोई धर्म द्रोही श्रावक मुनिरराज को रोक दे ‘‘कि आहार हेतु नहीं जा सकते या जाते हुए को विद्वेष भावना से पकड़ ले तो’’ मुनिराज पुनः आहार हेतु नहीं निकलते। उसे अंतराय मान कर समता भाव मन में धरण कर लेते हैं।

5 रूधिर - आहार करते समय स्वयं के अथवा दाता के शरीर से चार अंगुल तक बहता हुआ रूधि, पीव दिखायी दे अथवा चार अंगुल प्रमाण मांस युक्त घाव दिखायी दे जाए ते मुनिराज अंतराय कर लेते हैं।

6 अश्रुपात - अंतरंग में दुःखित होते हुए अपने अथवा आहारदाता के आंसू बहने लगें अंतरंग संतापित है तो मुनिराज आहार ग्रहण नहीं करते। कभी-कभी दाता के नेत्रों से हर्षाश्रु भी बह निकलते हैं, हर्षाश्रु के बहने का या रोग के कारण आंाों से पानी बहना है तो इसका अंतराय नहीं होता। किन्तु ध्यान रखें आंसू न बहें तो अति उत्तम है।

7 जान्वधः परामर्श - जानु = घुटना, अधः = नीचे, परामर्श = स्पर्श। यदि आहार करते समय मुनिराज अपने हाथों से घुटने के नीचे स्पर्श कर लें या भूल के हाथ नीचे तक खुजलाने आदि के निमित्त पहुंच जाए तो अंतराय होता है।

8 जानूपरिव्यतिवम - जानु = घुटना, उपरि = ऊपर व्यतिवम = नियमित क्रम का विशेष उल्लंघन। आहार करते समय यदि मुनिराज के हाथों से घुटने के ऊपर का भाग (जंघा आदिस्थान) स्पर्श हो जाए तो मुनिराज उस अंतराय मान लेते हैं।

9 नाभ्योधे निर्गमन - नाभि = टुण्टी अधे = नीचे निर्गमन = निकलना अर्थात् मुनिराज यदि आहार को जाते समय नाभि के नीचे मस्तक कराकर किसी दाता के घर में प्रवेश करते हैं तो यह नाभ्योधो निर्गमन नाम का अंतराय होता है अतः मुनिराज, जिस दाता के घर का दरवाजा (प्रवेश द्वार) नीचा होता है तो वे वहां से लौट आते हैं।

10 प्रत्याख्यान सेवन - यदि आहार करते समय त्यागी हुई वस्तु अंजुलि में आ जाती हैं, जिसका अंजुलि से निकलना अशक्त हो तो मुनिराज अंतराय कर लेते हैं अथवा अभयक्ष्य वस्तु हाथ में या आहार में आ जाती है तो भी मुनिराज अंतराय कर लेेते हैं।

jain temple192

11 जन्तु वध - आहार करते समय अपने या दाता के द्वारा सामने किसी जंतु (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव) का वध हो जाए तो मुनिराज आहार छोड़ देते हैं, पुनः वसतिका में आकर उसका अपने गुरू से प्रायश्चित भी लेते हैं। यह ‘जंतुवध’ नामक अंतराय है।

12 काकदि पिण्ड हरण - आहार करते समय कौआ आदि कोई पक्षी मुनिराज की अंजुलि से ग्रास ले उड़े अथवा श्रावक ही मुनिराज की अंजुलि में से ग्रास उठा लें तो मुनिराज का अंतराय होता है अतः श्रावक को मुनिराज की अंजुलि में रखा हुआ ग्रास कारणवश भी नहीं उठाना चाहिए और न ही उनसे प्रसाद की याचना करनी चाहिए।

13 पिण्ड पतन- आहार करते समय यदि मुनिराज असावधनी से पूरा ग्रास नीचे गिर जाये अथवा दाता की आसावधनी से ग्रास अंजुलि छूकर नीचे गिर जाये, अंजुलि में उस समय ग्रास न हो अर्थात् अंजुलि (पणिपात्र) खाली हो तो मुनिराज उसका अंतराय ही मानते हैं और आहार सावधनी पूर्वक ेदना चाहिए ग्रास (आहार का कवल) नीचे न गिरे।

14 प्राणी जंतु वध - आहार करते समय कोई जीव स्वयं मुनिराज की अंजुलि (पाणिपात्र = जो दोनों हाथों को जोड़कर अंजलि पुट बनाया है) में आकर मर जाए तो भी मुनिराज का अंतराय होता है अतः आहार के समय विशेष सावधनी बरतनी चाहिए, जिससे आहारादि के समय जीव वध मक्खी मच्दर आदि की विराधना/घात की संभावना भी न रहे।

15 मांसादि दर्शन - आहार करते समय यदि मुनिराज को हड्डी, मांस गीला-ताजी चमड़ा, शराब या अन्य भी (सप्त धतु या कृधतु में से कोई) दिखायी दे जाए तो मुनिराज उस समय आहार छोड़ देते हैं अतः श्रावक (उत्तम दाता) को चाहिए। कि इतना ध्यान रखे कि वहां इस प्रकार की किसी भी वस्तुओं की संभावना व शंका भी न हो।

16 उपसर्ग - आहार करते समय यदि मुनिराज पर देव कृत, मनुष्य कृत, तिर्यंच कृत, देवी, मनुष्यनी या तिर्यंचनी कृत अथवा अचेतन कृत उपसर्ग आदि होने की स्थिति में भी मुनिराज आहार का त्याग करते हैं ये ‘उपसर्ग’ नामका सोलहवां अन्तराय है।

17 पादान्तरे जीव - आहार करते समय यदि कोई पंचेन्द्रिय जीव आदि मुनिराज के दोनों पैरों के बीच से निकल जाए तो भी मुनिराज आहार छोड़कर अंतराय पालते हैं कहीं हिंसा आदि न हो जाए तथा वहां फिर क्षेत्र अशुद्धि की भी संभावना रहती है।

2
1