मुनिराज नवकोटि से विशुद्ध, 14 मन दोष, 46 दोष अद्यः कर्म नामक महादोष से रहित होकर 32 अंतरायों को टालते हुए आहार ग्रहण करते हैं। नवकोटि का अर्थ है - नव प्रकार की शुद्धि।
ये नवकोटि कहलाती हैं अर्थात् वे श्रमण मन-वचन-काय से न आहार बनाते हैं न बनवाते हैं न बनवाने की अनुमोदना करते हैं, वे नव कोटि से परिशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं।
एषणा दोष $ 1 संयोजना दोष $ 1 अप्रमाण दोष $ 1 धूम दोष $ अंगार दोष = 46 दोष हैं।
इनमें से अब यहां 16 उत्पादन दोषों का कथन करते हैं
1. धत्री दोष 2. दूत दोष 3. निमित्त दोष 4. आजीव दोष 5. वनीपक दोष 6. चिकित्सा दोष 7. क्रोध दोष 8. मान दोष 9. माया दोष 10. लोभ दोष 11. पूर्व संस्तुति दोष 12 पश्चात् संस्तुति दोष 13. विद्या दोष 14. मंत्र दोष 15. चूर्ण दोष 16. मूलकर्म दोष
1. धत्री दोष - मार्जन धत्री (बालकों का पालन-पोषण करने वाली मां) मण्डन धन्नी (बालकों को आभूषणों से श्रृंगारित करने वाली माँ) क्रीडन धत्री (बालकों को क्रीडाएं करने वाली माँ) क्षीर धत्री (बालकों को दूध पिलाने वाली, स्तनपान कराने वाली माँ) अम्ब धत्री (सुलाने वाली, जन्म देने वाली माँ) ये 5 धत्री हैं। इन पांच धत्री कर्मों से उत्पन्न कराया गया आहार धत्री दोष से दूषित कहलाता है। अतः मुनिराज धत्री जैसी क्रियाएं व इन कार्यों का उपदेश देकर आहार हेतु प्रभावित करके आहार ग्रहण नहीं करते।
2. दूत दोष - श्रावकों का संदेश एक ग्राम से दूसरे ग्राम में, नगर में,देश में या विदेश में भेजकर अर्थात् दूत या संदेश वाहक का कार्य कर दाता को प्रभावित कर आहार ग्रहण करना दूत दोष कहलाताहै। इस प्रकार का दूतों जैसा कार्य साधक पुरूषों को नहीं करना चाहिए।
3. निमित्त दोष - व्यञ्जन, अंग, स्वर, छिन्न, भूमि, अंतरिक्ष, लक्षण, स्वप्न ये 8 प्रकार का निमित्त ज्ञान होता है -
(क) व्यञ्जन निमित्त ज्ञाान - किसी पुरूष के शरीर पर स्थित तिल या मसा आदि देखकर जो शुभ अशुभ जाना जाता है। वह व्यञ्जन निमित्त ज्ञान है।
(ख) अंग- किसी पुरूष के हाथ, पैर, ग्रीवा, सिर, वक्षस्थाल आदि देखकर शुभ अशुभ जानना अंग निमित्त ज्ञान है।
(ग) स्वर - किसी पुरूष या अन्य प्राणी के शब्दों को सुनकर शुभ अशुभ जानना स्वर निमित्त ज्ञान है।
(घ) छिन्न - खड्गादि शस्त्र के प्रहार से छिन्न शरीर या वस्त्रादि को छिन्न (कटा या फटा) देखकर शुभाशुभ को जानना छिन्न निमित्त ज्ञान है।
(ड.) भूमि - भूमि कारंग, सुगन्ध व मिट्टी का स्वाद, कठोरता-मुलायमता, हल्का-भारीपन, चिकनाई-रूखापन, ठण्डी व ऊष्णता को जानकर वहां रहने वालों का शुभाशुभ जानना भौमिक निमित्त ज्ञान है।
(च) अंतरिक्ष - आकाश में होने वाले ग्रह युद्ध, ग्रहों का अस्तोदय होना, ग्रहों की वक्री व सरल चाल देखना, उल्कापात, आकाश में विभिन्न रंगों का व्याप्त होना, इन्द्र धनुष आदि का उदय, ग्रहों का निर्घात, नक्षत्रों का उदय, अस्त आदि के निमित्त से प्रजा का शुीा अशुभ जानना अंतरिक्ष निमित्त ज्ञान है।
(छ) लक्षण - पुरूष के शरीर में स्थित शंख, पद्म, सरोवर, धनुष, नन्द्यावर्त, चक्र, मीन, गज, अश्व, मृगेन्द्र, सारंग, गदा इत्यादि लक्षणों को देखकर पुरूषों का शुभाशुभ जानना लक्षण निमित्त ज्ञान है।
(ज) स्वप्न - सोते समय स्वप्न में हाथी, घोड़ा, सागर, बैल, सूर्य, चन्द्रमा, भैंसा, नाग, भूत-प्रेत, जिन बिम्ब, विधवा कन्या, जलावगाहन, गगन विहार, अग्नि, धनसम्पत्ति, मुडन, देव विमान, शंख, हल इत्यादि स्वप्नों के माध्यम से शुभाशुभ जानना स्वप्न निमित्त ज्ञान है।
इन अठा प्रकार के निमित्त ज्ञान से श्रावकों को शुभाशुभ बताकर उन्हें प्रभावित कर जिससे वे मुझे आहार दें, यदि इस प्रकार से उत्पन्न कराया हुआ आहार मुनि गण लेते हैं। तो उन्हें निमित्त दोष लगता हैं अतः आहार के उद्देश्य से कभीनहीं बतायें।
4. आजीव दोष - जाति, कुल शिल्प, तप, ईश्वरता ये आजीव हैं इनसे उत्पन्न कराया हुआ आहार आजीव दोष से युक्त कहलाता है अर्थात कोई साधु अपनी जाति कुल का निर्देश करके, शिल्प कर्म, तपश्चरण या ईश्वरता को बतलाकर यदि आजीवका करता है अर्थात् इसप्रकर प्रभावित कर दाता के आहार उत्पन्न कराकर यदि आहार ग्रहण करते हैं तो उन्हें आजीव नामक दोष लगता है।
5. वनीपक दोष - दाता के पूछे जाने पर कि कुत्ता, बिल्ली, बंदर, चूहा, दीन-दरिद्रियों भिखारियों, मांसाहारी मानवों, मेहमान, पाखण्डियों, कौवा आदि पक्षियों को भोजनादि दान देने से पुण्य होता है या नहीं? तो दाता की अनुकूल बोल देना कि हां! पुण्य होता है जिससे दाता प्रसन्न होकर आहार दान देता है और मुनिराज यदि उस आहार को ग्रहण करते हैं तो उन्हें ‘वनीपक’ नामक दोष लगता है। मुनिराज को कभी दाता के अनुकूल नहीं अपितु आगम के अनुकूल ही बोलना चाहिए।
6. चिकित्सा दोष - कौमार चिकित्सा, तनु चिकित्सा, रसायन चिकित्सा, विख चिकित्सा, भूत चिकित्सा, छार तन्त्र चिकित्सा, शालाकिक चिकित्सा, शल्य चिकित्या - इन 8 प्रकार की चिकित्सा करके, मुनि गृहस्थ का उपचार करके उसे प्रभावित कर आहार ग्रहण करते हैं तो उन्हें ‘चिकित्सा’ नामक दोष लगता है क्योंकि इनक ार्यों में सावद्यता पायी जा सकती है अतः आहार हेतु ये कार्य साधु को कदापि नहीं करने चाहिए।
7. क्रोध दोष - यदि मुनिराज श्रवकों को डाट-फटकार कर, क्रोधित होकर आहार उत्पन्न कराते हैं व उसे ग्रहण करते हैं तो ‘क्रोध’ नामक दोष लगता है।
8. मान दोष - यदि मुनि पुंगव अपने मान की पृष्टि करते हुए गर्व से युक्त होकर श्रावकों से आहार उत्पन्न कराते हैं वे उसे ग्रहण करते हैं तो वह ‘मान’ दोष से दूषित आहार कहलाता है।
9. माया दोष - यदि वे श्रमणराज मायाचारी करके, कुटिल भावों से युक्त होकर, छलकपट से श्रावकों से आहार बनवाकर उसे ग्रहण करते हैं तो उस आहार को लेने से उन्हें ‘माया’ नामक दोष लगता है।
10. लोभ दोष - यदि वे मुनिराज श्रावकों को कोइ्र लाभ दिखाकर आहार ग्रहण करते हैं तो उन्हें ‘लोभ’ नाम का दोष लगता है।
11. पूर्व संस्तुति दोष - ‘‘तुम तो श्रेष्इ दानपति हो, तुम्हारी कीर्ति जग विख्यात है, यशस्वी हो। आपका जैसा दाता, मुनि भक्त, धार्मिक कोई हो ही नहीं सकता। आपके पुण्य का क्या कहना?’’ इत्यादि प्रकार के वचन कहना जिससे दाता आहार देने में प्रवृत्त हो। इस प्रकार उत्पन्न कराकर ग्रहण किया गया आहार ‘पूर्व संस्तुति’ दोष से दूषित कहलाता है।
12. पश्चात् संस्तुति दोष - आहार ग्रहण करने के बाद दाता की प्रशंसा करना कि तुम श्रेष्ठ दाता हो, तुम्ळारे यहां जैसा आहार कहीं नहीं बनता, तुम्हारा यश लोक मेें व्याप्त है, इत्यादि वचन बोलना इस प्रकार दाता को प्रभावित कर उत्पन्न कराया गया आहार ग्रहण करना ‘पश्चात् संस्तुति’ दोष है।
13. विद्या दोष - जो साधित सिद्ध है वह विद्या है यदि मुनिराज श्रावक को विद्या देने की आशा देकर पुनः आहार गहण करते हैं तो ‘विद्या’ नामक दोष प्राप्त होता है।
14. मंत्र दोष - ‘‘मैं तुम्हें मंत्र दे दूंगा’’ ऐसी आशा प्रदान करने की युक्ति से या उस मंत्र के माहात्म्य से जो जीते हैं अर्थात् श्रावक से आहार उत्पन्न कराकर लेते हैं तो उन्हें ‘मंत्र’ नामक दोष लगता है। अपने आहार के उद्देश्य से श्रावकों को मंत्र देना, साधु के लिए यह उचित नहीं है।