।। नवकोटि और दोष ।।

15. चूर्ण दोष - चक्षु को निर्मल करने के लिए जो सुरमा य अंजन आदि होता है वह अंजन चूर्ण है। जिस चूर्ण से तिलक या पत्रवल्ली आदि की जाती है वह भूषण चूर्ण है। शरीर में दीप्ति पैदा करनेयोग्य चूर्ण शरीर शोभा चूर्ण है इत्यादि चूर्णों को गृहस्थों को देकर उन्हें आहार हेतु प्रभावित करके आहार ग्रहण करना ‘चूर्ण’ नामक दोष कहलाता है। साधु पुरूषों के लिए आहार हेतु चूर्ण आदि औषधि देना या बताना उचित नहीं है।

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16. मूलकर्म दोष - जो वश में नहीं है उनका वशीकरण करना और जिनका आपस में वियोग हो रहा है उनका संयोग करा देना यह ‘मूलकर्म’ नामक दोष है। इस मूलकर्म के द्वारा आहार उत्पन्न कराकर जो मुनि आहार लेते हैं उनके मूलकर्म नाम का दोष होता है।

इस प्रकार के ‘16 उत्पादन दोष’ कहें, अब एषणा समिति के 10 दोषों को कहते हैं - एषणा समिति के 10 दोष -

1. शंकित दोष, 2. म्रक्षित दोष 3. निक्षिप्त दोष 4. पिहित दोष 5. संव्यवहार दोष 6. दायक दोष 7. उन्मिश्र दोष 8. उपरिणत दोष 9. लिप्त दोष 10. कृपरित्यजन दोष

1. शंकित दोष - शंका से उत्पन्न हुआ आहार शंकित है। क्या यह आहार अधः कर्म से बना हुआ है? यह आहार मेरे लेने योग्य है अथवा नहीं? ऐसी शंका करके जो मुनि आहार ग्रहण करते हैं, उनके शंकित नामक दोष लगता है।

2. भ्रक्षित दोष - घी - तेल आदि के चिकने हाथ से या चिकने हुए बर्तन से कलछी-चम्मच से दिया गया आहार-आदिक है उसे मुनिराज यदि ग्रहण करते हैं तो उन्हें ‘भ्रक्षित’ नामक दोष लगता है। यह दोष भी मुनिराज को त्याज्य है क्योंकि इससे सम्मूच्र्छन छोटे-छोटे जीवों की विराधना हो सकती हैं अर्थात् चिकने (स्निग्धता युक्त) हाथ या बर्तन से चिपककर जीवों की विराधना, बर्तन गिरना संभव है।

3. निक्षिप्त दोष - ‘सचित्त पृथ्वी, सचित्त जल, अग्नि, हरितकाय वनस्पति, बीज काय, त्रस जीव’ इन पर रखा हुआ आहारादि है वह छह भेद रूप ‘निक्षिप्त’ कहलाता है। चित्त सहित अप्रासुक वस्तु को सचित्त कहते हैं। ऐसे आहार को यदि श्रमण ग्रहण करते हैं तो उन्हें ‘निक्षिप्त’ दोष लगता है।

4. पिहित दोष - सचित्त वस्तु (अप्रासुक वस्तु) से ढका हुआ अथवा अचित्त भारी वस्तु से ढ़का हुआ जो आहार है उसे यदि मुनिवर लेते है तो उन ‘पिहित’ नामक दोष लगता है।

5. सव्यवहार दोष - दान के निमित्त वस्त्र या बर्तनादि को जल्दी से खींचकर बिना देखे जो आहार मुनीन्द्रों को दिया जाता है और मुनीन्द्र उस आहार को ग्रहण करते हैं तो उन्हें ‘संव्यवहार’ नामक दोष लगता है। इसमें भी जीव विराधना संभव है, बर्तन का गिरना या कपड़े का फटना भी संभव है। अतः यह दोष भी मुनिवरों के लिए त्याज्य है।

6. दायक दोष - धय, मद्यपायी, रोगी मृतक के पातक सहित, जन्म के सूतक वाला, नपुंसक, पिशाचग्रस्त, नग्न, मल-मूत्र त्याग कर आया हुआ रूधिर शरीर से बह रहा हो, वेश्या, श्रमणिका, तैलमालिश करने वाली, अतिबाला अतिवृद्धा खाती हुई, गर्भिणी (5 माह से अधिक समय हो चुका हो), अंधी किसी के आड़ में खड़ी हुई, नीचे या ऊंचे स्थान पर खड़े होकर आहार देने वाले अग्नि जलाना, फूंकना, बुझाना, दबाना, इत्यादि कार्य करने वाले, लीपकर, पोतकर कपड़े धेकर, बालक को सत्नपान कराते हुए छोड़ कर, आने वाली श्राविका या अनय सावद्य कार्यों से युक्त दाता आहार देता है और मुनिराज उसे यदि ग्रहण कर लेते हैं तो उन्हें ‘दायक’ नाम का दोष लगता है।

7. उन्मित दोष - मिट्टी, अप्रासुक जल, हरे पत्ते-फूल आदि हरि काय जौ, गेहूं, चना आदि बीज और सजीव त्रस, इन पांचों से मिश्रित हुआ आहार ‘उन्मिश्र दोष’ रूप होता है। यदि मुनिवर ऐसा आहार ग्रहण करते हैं तो उसे उन्मिश्र नामक दोष लगता है।

8. अपरिणत दोष - तिल का धेवन, चावल का धेवन, गर्म होकर ठण्डा हुआ जल, चले का धोवल, दाल का धेवन, अपने वर्ण रस गंध को नहीं छोड़ा है, ऐसा जल, अन्य भी उसी प्रकार से लौंग, सौंप हरड़ के चूर्ण से अल्प प्रासुक जल जो अन्य परिणत नहीं हुआ है, वह अपरिणत कहलाता है। ऐसा जलादि भी साधुओं को लेना योग्य नहीं है यदि साधु ऐसे जल आदि (जो अप्रासुक या अल्पप्रासुक है) को ग्रहण करते हैं तो उन्हेें ‘अपरिणत’ नामक दोष लगता है।

9. लिप्त दोष - गेरू, मेंहदी, हरिताल, सेलखड़ी, मनःशिला गीला आआ अप्रवाल (अपक्वशाक) कोंपल आदिसहित व अप्रासुक जल से लिप्त हाथ या बर्तन से जो आहार दिया जाता है उसे ‘लिप्त’ दोष से दूषित जानो।

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10. परित्यजन दोष - बहुत सा भोजन गिराते हुए आहार लेना, (आहार लेना कम, ज्यादा गिराना) सछिद्र अंजुली पुट बनाकर आहार लेना, स्वादिष्ट, इष्ट, गरिष्ठ वस्तु आहार में लेना व शेष गिराते जाना या दूसरे को बांटते जाना, इस प्रकार आहार करने में ‘परित्यजन’ नामक दोष लगता है।

ये सब एषणा समिति के दोष कहे, आगे महादोषों को कहते हैं-

महादोष -

1. संयोजना दोष - ठण्डा भोजन या जल ऊष्ण भोजन या जल में मिला देना अथवा दो प्रकृति विरूद्ध पदार्थों का आपस में मिला देा, अन्य भी परस्पर विरूद्ध वस्तुओं को मिला देना ‘संयोजना’ नामक दोष कहलाता है।

2. प्रमाण दोष - व्यञ्ज आदि भोजन से उदर के दो भाग पूर्ण करना और जल के उदर का तीसरा भाग पूर्ण करना और चतुर्थ भाग खाली रखना, सो प्रमाणभूत आहार कहलाता है इसमें भिन्न जो अधिक आहार ग्रहण करते हैं उनके ‘प्रमाण’ या ‘अतिमात्रा’ नामक दोष लगता है।

3. अंगार दोष - जो साधु अति आसक्ति/गृद्धता पूर्वक आहार गेहण करते हैं तोउनके ‘अंगार’ नामक दोष लगता है।

4. धूम दोष - जो साधु आहार या आहार दाता की निंदा करते हुए (यह अनिष्ट आहर है, ये लोग अच्छा आहार बनाना नहीं जानते इसमें नमक नहीं डाला, बूरा भी कम डाला है इत्यदि प्रकार से) आहार ग्रहण करते हैं तो उसमें ‘धूम’ नामक दोष लगता है।

अधः कर्म महादोष - 46 दोषों के अतिरिक्त यह ‘अर्धःकर्म’ नामक महादोष है। इसका अर्थ है - छह जीव निकायों की (5 स्थावर $ 1 त्रस) हिंसा से विराधना से और मारण आदि से अपने या पर के निमित्त से बनाया हुआ जो आहार है वह ‘अधःकर्मदोष’ से दूषित होता है।

‘‘14 मलदोष’’

हां उक्त 47 दोषों के अतिरिक्त और चैदह (14) मल दोष होते हैं जिनका परिहार अनिवार्य है वे निम्नांकित हैं-

1. नख - मनुष्य या तिर्यंच के हाथ या पैर की उंगलियों का अग्र भाग।

2. रोम - मनुष्य या तिर्यंच के बाल।

3. जंतु - प्राणियों का निर्जीव शरीर।

4. अस्थि - कंकार या हड्डी।

5. कण - जौ, गेहूं, आदि का बहार का अवयव, छिलका, अनाज का टुकड़ा/अंश।

6. कुण्ड - शालि आदि का अभ्यन्तर भाग का सूक्ष्मावयव।

7. पूय - पका हुआ रूधिर या पीव।

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