बिना आहार के शरीर की स्थिति नही रह सकती बिना शरीर के संयम की साधना, पंचपरमेष्ठी की आराधना, धर्म की प्रभावना आत्मध्यान एवं तपो मे प्रवृत्ति नही हो सकती। अतः पात्रो को आहार ग्रहण करना पड़ता है। वे तो यह चाहते है कि हमे कभी आहार नहीं लेना पड़े, अपने स्वभाव मे ही सदैव लीन रहे किन्तु हीनसंहन न होने से बिना आहार के दीर्घ काल तक जीवित रहकर निराकुलता से संयम की साधना नही हो सकती।
दूसरा मुख्य कारण यह है श्रावकों के पापप्रक्षालन व सातिशय पुण्यास्रव का यह एक हेतु है। आहारादि दान से श्रावक अपना, तन, मन, धन, वचन, जीवन सभी कुछ धन्य करलेता है। उत्तम पात्रों के चरण श्रावकों के घर मे पड़ जाते है तो उनके वे घर स्वर्ग के समान सुखदाय हो जाते हैं। जिस घर मे उत्तम पात्रों (सत्पात्रों के) चरण न पड़े ंतो उस घर को आचार्यों ने श्मशान या पुशाओं की गुफा या पक्षियों के घोंसले के समान कहा है। अतः सत्पात्र का आहारादि ग्रहण करना स्व-परकल्याण का हेतु है। वे साधक आहार तन पोषण के लिए नहीं धर्म/संयम के पोषण के उद्देश्य से ही लेते हैं। साधकों के आहार ग्रहण करने के कारण निम्नांकित हैं:-
1 क्षुधा वेदना को शमन करने हेतु - क्षुधा वेदना की तीव्र उदय होने पर साधक निराकुलता से धर्म ध्यान नही कर सकेंगे। क्षुधा की तीव्र वेदना आर्त ध्यान का कारण बनेगी विशुद्ध की सहारक व संक्लेशित की उत्पादक होगी। अतः साधक क्षुधा शमन हेतु भी आहार लेते हैं।
2 वैय्यावृत्ति करने के लिए - बिना आहार के शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है जिससे अनेक रोगो का उत्पन्न होना भी संभव है। उस अवस्था मे अन्य साधकों की व स्वयं की संयम स्थिरता करने वाली वात्सल्य व विनय की सुचक वैय्यावृत्ति नही कर सकेगें। वैय्यावृत्ति के अभाव मे स्व एव पर के संयम का पालन करना अत्यंत कठिन हो जाएगा। अतः स्व पर की वैय्यावृत्ति के उद्देश्य से भी साधक आहार ग्रहण करते हैं।
3 षडावश्यक कत्र्तव्यों के पालन हेतु - साधक या श्रावक की षड् आवश्यक क्रियाएं (श्रमण की आवश्यक क्रियाएं-देव वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कार्योंत्सर्ग, समता) (किन्हीं आचार्यों ने प्रत्याख्यान के स्थान पर स्वाध्याय को ग्रहण किया है) एवं श्रावक की षड् आवश्यक क्रियाएं देव पूजा, गुरू उपासना, स्वाधयाय, संयम, तप, दान इत्यादि क्रियाएं बिना आहार ग्रहण किये दीर्घकाल तक इनका परिपालन करना अशक्य हो जाएगा। आवश्यक क्रियाएं श्रमण एवं श्रावक की अवश्यक की जाने वाली क्रियाएं श्रमण एव श्रावक की अवश्य की जाने वाली क्रियाएं हैं। इसके बिना न तो श्रमण श्रमण है और न ही श्रावक श्रावक कहलाने का अधिकारी होता है। ये षड् आवश्यक क्रियाएं सर्व कर्म निर्मूलन करने मे समर्थ हैं। ये कभी किसी के वश मे नही होती, अतः अवश है। और ‘अवश’ को यानि मोक्ष को देने मे कारण है अतः श्रमणादि इन आवश्यक क्रियाओं का परिपालन करने हेतु भी आहार ग्रहण करते हैं।
1 संयम साधन के लिए - जीवन पर्यन्त तक समीचीन नियमो का पालन करना या सम्यक्त्व पूर्वक संयम का परिपालन करना, अथवा यम (काल$मृत्यु) का संहार-नाश के लिए नियम-व्रतादि का परिपालन करना संयम कहलाता है। इसके मुख्य 2 भेद हैं- 1. प्राणि संयम 2. इंन्द्रिय संयम।
1 षड् कायिक (5 स्थावर $ 1 त्रास कायिक) जीवों की रक्षा करना प्राणि संयम है।
2 पंचो इन्द्रियों व मन को वश मे करना इन्द्रिय संयम है। अथवा 13 प्रकार के संयम का परिपालन करना।
बिना आहार के सुदीर्घकाल तक संयम का परिपालन करना असंभव है अतः साधक के लिए आहार लेना आवश्यक है।
5 प्राणों की रक्षा - बिना आहार के असमय मे ही मेरे प्राणो का वियोग हो जाएगा, मेरी विशुद्धि का संयम का भी नाश हो जायेगा, मै संक्लेशता के साथ मृत्यु को प्राप्त होऊंगा। अपने प्राणों की रक्षा व दूसरे के प्राणों की रक्षा बिना आहार के ग्रहण किये सुचितकाल तक अति दुर्लभ हैं अतः साधक जनस्व-पर के प्राणों की रक्षा हेतु भी शुद्ध प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं।
6 धर्म का परिपालन करने हेतु - बिना आहार के ग्रहण किये साधक पुरूष द्वारा उत्तम क्षमादि 10 धर्म (उत्तम क्षम, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य ब्रह्मचर्य) का, रत्नत्रय रूप धर्म का, उत्तम अहिंसादि 5 धर्मों का परिपालन करना अशक्य हो जाएगा अतः साधक पुरूष सुदीर्घ काल तक धर्म का परिपालन करने हेतु आहार ग्रहण करते हैं।